अच्छी परंपराओं की सीख
सर्दियों का मौसम आ गया है। लोगों ने गर्म कपड़े पहनने शुरू कर दिए हैं। रंग-बिरंगी स्वेटर, शॉल, ऊनी टोपी, जैकेट, मफलर इत्यादि की दुकानें सजने लगी हैं;
- बाबा मायाराम
हमें पुरानी अच्छी परंपराओं से सीख लेनी चाहिए। चाहे हमारे बुजुर्ग हों, पुरखे हो, गांधी हो, बुद्ध हो, वे बाहर किताबों में नहीं हैं। अगर हमें उनकी कोई चीज, व्यवहार व आदतें अच्छी लगती हैं, तो उन्हें अपनाना चाहिए। कोई भी अच्छा विचार, परंपरा कहने की चीज नहीं है, बरतने की चीज हैं।
सर्दियों का मौसम आ गया है। लोगों ने गर्म कपड़े पहनने शुरू कर दिए हैं। रंग-बिरंगी स्वेटर, शॉल, ऊनी टोपी, जैकेट, मफलर इत्यादि की दुकानें सजने लगी हैं। लेकिन मैं आज ऐसी परंपराओं की चर्चा करना चाहूंगा, जो चीजों को संभालकर बरतने की थी। उनसे यादें तो जुड़ी ही होती थीं, साथ ही कचरा भी नहीं होता था।
अगर मैं अपने बचपन को याद करूं तो हमारे घर सर्दियों के दिनों में हम धान के पुआल का बिछौना बनाकर सोते थे। यह बहुत ही गर्म होता है और सोने में बहुत आरामदायक होता था और ठंड से बचाव के लिए रात में गुदड़ी ओढ़कर सोते थे।
मेरी मां, जिसे मैं बाई कहता था, फटे-पुराने कपड़ों से गुदड़ी बनाती थी। फुरसत के समय वह पुराने कपड़ों को काटकर, सुई धागे से सिलकर गुदड़ी सिलती रहती थी। बाजार से सामान लाने के लिए झोले व तकिया का खोल बनाती थी। हमारे फटे हुए कपड़ों को सिलती थी, कई बार तो उनमें पैबंद भी लगाती थी, जिससे कपड़ा मजबूत व पहनने लायक हो जाए।
इस तरह की परंपराएं देशभर में दिखने को मिलती हैं। पिछले साल इन्हीं दिनों में गुजरात के कच्छ इलाके में था। वहां के पशुपालक मालधारी हैं। वहां की महिलाएं बहुत ही सुंदर गुदड़ी बनाती हैं। खाली समय में महिलाएं यह काम करती रहती हैं। उन्होंने गुदड़ी एक मित्र को भेंट में भी दी थी।
हमारे स्कूल के दिनों में लोग चिठ्ठी लिखते थे। गांधी और नेहरू की चिठ्ठियों की तो प्रसिद्ध ही हैं। उस समय कलम दवात वाली कलम से चिठ्ठी लिखी जाती थी। हम सबने इसी पेन से लिखा है। अगर पेन की निब घिस जाती थी, तो बदल लेते थे। यह पेन सस्ता होता था, और लम्बे समय तक इस्तेमाल किया जाता था। इस पेन से अक्षर भी अच्छे बनते थे, लिपि भी सुधरती थी। अब यह निब वाला पेन दिखाई नहीं देता है। दुकानों पर भी मुश्किल से मिलता है।
इसकी जगह रिफिल वाला पेन आ गया है। रिफिल और प्लास्टिक की पूरी बॉडी। दोनों ही कचरा पैदा करते हैं। घर से निकलने वाले कचरे में यह भी शामिल हो गया है। कई शहरों में कभी-कभार प्लास्टिक की थैलियां प्रतिबंधित है, पर रिफिल वाले पेन तो चल रहे हैं। यह भी तो कचरा फैलाने का काम करते हैं।
कम्प्यूटर व मोबाइल पर भी कुछ लोग लिखने लगे हैं, पर इनकी संख्या बहुत कम है। जैसे-जैसे शिक्षा का दायरा बढ़ता जाएगा, कलम की जरूरत भी बढ़ती जाएगी। इसी अनुपात में कचरा भी बढ़ता जाएगा। मध्यप्रदेश के हमारे एक मित्र पुराने लिफाफे, एक तरफ लिखे कागजों का इस्तेमाल करते थे। यह अच्छी सोच है।
इस संदर्भ में मैं ऐसे दो लोगों को याद करना चाहूंगा, जिन्होंने पुरानी चीजों और कबाड़ को शिक्षा का माध्यम बनाया। इनमें से एक हैं इन्दौर (मध्यप्रदेश) के कलागुरू विष्णु चिंचालकर और दूसरे हैं पुणे के अरविंद गुप्ता। विष्णु चिंचालकर, जिन्हें गुरूजी कहा जाता था, ने बेकार मानी जानी वाली चीजों से बेजोड़ कलाकृतियां बनाई।
उनकी कला की दुनिया रंगों व ब्रश के दायरे से बड़ी थी। वे घास के तिनकों, सूखे पत्ते, टहनी, पत्थर, घर में पड़ी बेकार चीजों को नया रूप दे देते थे। जिससे वे सौंदर्य व आकर्षण का केन्द्र बन जाती थीं।
इसी प्रकार, अरविंद गुप्ता, जो कभी पेशे से इंजीनियर थे, अब टायमेकर के नाम से जाने जाते हैं। उन्होंने विज्ञान व गणित के सिद्धांतों को समझाने के लिए खिलौनों का माध्यम बनाया। वे बेकार चीजों से बच्चों को नए-नए खिलौने बनाते हैं। वे साइकिल के पहिए में लगने वाली वाल्व ट्यूब, माचिस की तीली, कचरे में पड़ा वायर या बोतल, वे झाड़ू की सींक जैसे सामानों से खिलौने बनाते हैं।
अरविंद गुप्ता की चिंता है कि हमारे देश में बल्कि दुनिया के कई देशों में गरीबी के चलते बच्चे खिलौने खरीद नहीं सकते। जब वे कचरे या बेकार सामान से अपने खिलौने खुद बनाकर खेलते हैं, तो इससे उन्हें बेहद खुशी होती है। भारत में खिलौने बनाने की एक पुरानी परंपरा रही है। परंपरागत खिलौने फेंकी हुई वस्तुओं को दुबारा इस्तेमाल करके बनते हैं, इसलिए वे सस्ते और पर्यावरण मित्र होते हैं।
इस संदर्भ में बुद्ध की एक कहानी बहुत ही प्रासंगिक है, जो इस कुछ इस प्रकार है:-
एक दिन बुद्ध अपने मठ में मठवासियों के साथ बैठे बातें कर रहे थे। तभी एक भिक्षु ने नए अंगरखे के लिए इच्छा जताई।
बुद्ध ने पूछा- तुम्हारे पुराने अंगरखे का क्या हुआ?
-'वह बहुत फटा व पुराना हो गया है। इसलिए मैं उसे अब चादर के रूप में इस्तेमाल कर रहा हूं।'
बुद्ध ने फिर पूछा- पर तुम्हारी पुरानी चादर का क्या हुआ?
-'गुरूजी, वह चादर पुरानी हो गई थी, वह इधर-उधर से फट गई थी, इसलिए मैंने उसे फाड़कर तकिया का खोल बना लिया।' भिक्षु ने कहा।
-बेशक तुमने तकिया का नया खोल बना लिया, लेकिन तुम ने तकिया के पुराने खोल का क्या किया? बुद्ध ने पूछा-
'गुरूजी, तकिये का गिलाफ सिर से घिस-घिस कर फट गया था और उसमें एक बड़ा छेद हो गया था। इसलिए मैंने पायदान बना लिया।'
बुद्ध हर चीज़ की गहराई से तहकीकात करते थे। उस जवाब से भी वे संतुष्ट नहीं हुए।
'गुरूजी, पायदान भी पैर रगड़ते-रगड़ते फट गया। एकदम तार-तार हो गया। तब मैंने उसके रेशे इकठ्ठे करके उनकी एक बाती बनाई। फिर उस बाती को तेल के दीये में डाल कर जलाया।'
भिक्षु की बात सुन कर बुद्ध मुस्कराए। फिर उस सुपात्र को बुद्ध ने एक नया गरम अंगरखा दिया।
यह कहानी आज भी प्रासंगिक है क्योंकि उपभोक्तावादी संस्कृति इस्तेमाल करो और फेंको (यूज-एंड-थ्रो) की संस्कृति को बढ़ावा देती है जिससे चीजों के प्रति अथाह चाह जगती है और पैसों की और जीवन के बहुमूल्य समय की बर्बादी होती है। और जीवन में सार्थक करने की बजाय चीजों को बटोरने में जिंदगियां लग जाती हैं।
इसलिए हमें पुरानी अच्छी परंपराओं से सीख लेनी चाहिए। चाहे हमारे बुजुर्ग हों, पुरखे हो, गांधी हो, बुद्ध हो, वे बाहर किताबों में नहीं हैं। अगर हमें उनकी कोई चीज, व्यवहार व आदतें अच्छी लगती हैं, तो उन्हें अपनाना चाहिए। कोई भी अच्छा विचार, परंपरा कहने की चीज नहीं है, बरतने की चीज हैं।
पिछले साल इन्हीं दिनों में अहमदाबाद में साबरमती गांधी आश्रम गया था। वहां गांधी का एक संदेश लिखा था, मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। अगर हम किसी परंपरा व विचार से सहमत हैं तो उसे अपनाना चाहिए। क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ना चाहेंगे।