जवाहर लाल नेहरू और भारतीय संसद
आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में 1948 से मई 1964 तक का कालखंड नेहरू युग कहा जाता है;
- अरविंद कुमार सिंह
आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में 1948 से मई 1964 तक का कालखंड नेहरू युग कहा जाता है। इस दौर में संसद सबसे मजबूत संस्था के रूप में स्थापित हुई और संसदीय लोकतंत्र शिखर पर पहुंचा। इस दौरान भूमि सुधार, सहकारी खेती, बंजर और ऊसर भूमि सुधार, कृषि श्रमिकों को भूमि आवंटन, नदी घाटी परियोजनाओं पर संसद में लंबी बहसें हुईं।
हाल में संपन्न बिहार के विधान सभा चुनावों में निम्न स्तरीय भाषा को लेकर जनता के बीच बहुत सी चर्चाएं चलीं। पर संविधान लागू होने के बाद जब 1951-52 में पहली लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ हुए तो नेहरूजी ने अपनी भाषा को इतना संयत रखा था कि उन्होंने प्रतिपक्षी साथियों को भी विवश किया कि वे मुद्दों की बात करें। अपनी सभाओं में नेहरूजी ने कई मौकों पर कहा था कि वे 'ऐसे प्रत्याशियों को वोट दें जो सामाजिक न्याय को बढ़ाए, मनुष्य के व्यक्तित्व के गौरव और स्वतंत्रता को आगे ले जाये। धर्म और शिक्षा की स्वतंत्रता को आगे ले जाये। एक स्थान पर तो उन्होंने यहां तक कहा था कि 'गलत तरीके से जीतने से अच्छा है सही तरीके से पराजित हो जाना।
पहले आम चुनावों में वे देश भर में 40,278 किमी गए जिसमें से 141 किमी का सफर नावों से किया था, 2594 किमी रेलगाड़ी और 8474 किमी सड़क से गए। बाकी यात्रा हवाई मार्ग से हुई। तब एक साथ 497 लोकसभा और 3278 विधानसभा सीटों के चुनाव हो रहे थे। वे बिहार में दिसंबर 1951 और जनवरी 1952 में कई जगहों पर गए पर अधिकतर सभाओं में मतदान के महत्व पर बल दिया। कई सभाओं में उन्होंने महिलाओं से अपील की कि वे परदा प्रथा का त्याग करें और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर बराबरी से चलें।
पिछले कई सालों से भारत के महान नायक नेहरू पर अनर्गल टीका टिप्पणियों का दौर जारी है। हाल के सालों में वे थोड़ा सकारात्मक रूप में तब याद किए गए जब एनडीए ने तीसरी पारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जीती। तब नेहरूजी से बराबरी को लेकर बहुत से प्रचार हुए। हालांकि नेहरूजी के नेतृत्व में कांग्रेस तीनों आरंभिक लोक सभा चुनावों में प्रचंड बहुमत मिला था। तीसरी पारी में भी नेहरूजी 361 सीटों पर विजयी रहे थे। नेहरूजी 17 सालों तक देश के प्रधानमंत्री रहे। अस्थायी संसद और पहली लोक सभा से 1964 तक वे लोक सभा में नेता सदन रहे। तब विपक्ष प्रतीकात्मक ही था। लेकिन वह नेहरूजी का ही कार्यकाल था जब विपक्ष को सबसे अधिक सम्मान मिला। विपक्ष की मांग पर नेहरूजी ने सरकार ने फैसलों को बदला। कांग्रेस सांसद मुदगल की सदस्यता समाप्त करा कर उन्होंने नैतिकता को आगे रखा। लाल बहादुर शास्त्री ने नैतिकता के आधार पर ट्रेन दुर्घटना को लेकर त्यागपत्र दिया तो नेहरूजी ने उसे स्वीकारा। अपने करीबी टीटी कृष्णामाचारी और कृष्णा मेनन का त्यागपत्र उन्होंने लिया और विपक्ष की मांग पर उन्होंने अपने सहायक एम ओ मथाई को दिया। ऐसी बातें इतिहास में दर्ज है।
उनकी सोच सबको साथ लेकर चलने की थी। 1947 में जिन 14 मंत्रियों की नियुक्ति नेहरूजी ने की, उसमें बाबा साहेब डॉ अंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जान मथाई, सी एच भाभा और षडमुखम चेट्टी गैर कांग्रेसी थे। उन्होंने सरकार के सभी कार्यक्रमों और नीतियों पर संसद की मुहर लगवायी।
इतिहास गवाह है कि 1951-52, 1957 और 1962 में लोक सभा की 75 फीसदी तक सीटें कांग्रेस ने जीती थी। कांग्रेस का दबदबा था। उस दौरान बहुत से लोग यह मानते थे कि भारत शीघ्र ही निरंकुश शासन के अधीन हो जायेगा तथा लोकतंत्र का प्रयोग असफल होगा। पर नेहरूजी की सोच ने यह होने नहीं दिया। जब एक बार नेहरूजी से पूछा गया कि भारत के लिए उनकी विरासत क्या होगी, तो उन्होंने उत्तर दिया था कि ' बेशक स्वयं पर शासन करने में सक्षम चालीस करोड़ लोग।
नेहरूजी के कालखंड में ही हमारे संसद का सबसे बेहतरीन कामकाज हुआ। पहली लोकसभा के दौरान 1952 से 1957 के बीच 677 बैठकों में 319 विधेयक पारित हुए। अस्थायी संसद भी 1951 में 150 दिन चली थी, जबकि 1956 में संसद की 151 बैठकें हुई थी। यह घटते-घटते 17वीं लोक सभा तक 55 पर आ गयी है। लगातार बैठकें कम होती जा रही हैं और विपक्ष के सवालों पर चर्चा की जगह सरकार संसद को जयकारा का मंच बनाने पर अधिक जोर देती है। संसद का शीतकालीन सत्र आहूत किया गया है जो कि केवल 15 दिनों का है।
आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में 1948 से मई 1964 तक का कालखंड नेहरू युग कहा जाता है। इस दौर में संसद सबसे मजबूत संस्था के रूप में स्थापित हुई और संसदीय लोकतंत्र शिखर पर पहुंचा। इस दौरान भूमि सुधार, सहकारी खेती, बंजर और ऊसर भूमि सुधार, कृषि श्रमिकों को भूमि आवंटन, नदी घाटी परियोजनाओं पर संसद में लंबी बहसें हुईं। नेहरूजी के 6,130 दिनों के प्रधानमंत्री काल में एक से एक बेहतरीन खड़ी हुईं। उनके ही बनाए रास्ते से 1960 और 1970 के दशक में हरित क्रांति आयी जिसने देश को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाया। उनके बनाए सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों ने स्वदेशीकरण को गति दी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत का पिछड़ेपन दूर करने में उनका अनूठा योगदान रहा। भारत में नियोजित विकास की गति तेज करने के लिए 1950 में योजना आयोग का गठन हुआ जिसे 2015 में समाप्त कर दिया गया।
हाल के सालों में राजनीतिक हलकों में उनको परिवारवादी और बहुत कुछ बताने का प्रयास हुआ। वे इस विचार को अलोकतांत्रिक मानते थे। मई 1961 में उन्होंने नोरमन कहा था कि किसी व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी बनाने की बात मेरी सोच के विपरीत है। कब्र से शासन करने की क्षमता मुझमें नहीं है। अपने निधन के पहले उनकी वसीयत में धन-दौलत की जगह यह कहा गया था कि- मेरी राख को देश के खेतों, पहाड़ों और नदियों में विसर्जित किया जाये ताकि मैं इस देश के कण-कण मेंं व्याप्त रहूं।
नेहरू के प्रधानमंत्री रहने का कालखंड स्थिर और मजबूत सरकार का दौर था। विपक्ष बड़े नामों के बावजूद प्रतीकात्मक था। पर वे विपक्ष को वे पूरा सम्मान देते थे। 1953 में नेहरूजी ने लोक सभा मे कहा कि सरकार के लिए निर्भीक आलोचकों और विपक्ष का होना जरूरी है। आलोचना के बिना लोग अपने में संतुष्ट अनुभव करने लगते हैं और सरकार आत्मसंतुष्ट हो जाती है।
अपने जीवनकाल में बेहद व्यस्त रहने के बावजूद वे संसद में मौजूद रहते थे। लंबी बहसों को धैर्य से सुनते और नोट करते थे। विचारों की स्वतंत्रता के साथ लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता को वे सबसे ऊंचे पायदान पर रखते। वे कहते भी थे कि 'मैं किसी चीज के बदले में लोकतांत्रिक प्रणाली का त्याग नहीं करूंगा।
पंडित नेहरू संसद को लोकतंत्र का मंदिर मानते थे और सदन की मर्यादा के प्रति बेहद गंभीर रहते थे। पंडित नेहरू ने संसद को सर्वोच्च संस्था के रूप में स्थापित करने और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने में अहम योगदान दिया। संसद में वे जनहित के नाम पर जानकारी न देने के बहाने को अच्छा नहीं मानते थे। कई बार तो उन्होंने हस्तक्षेप भी किया, जिसमें सम्बन्धित मंत्री ने जानकारी देने से इंकार किया था। वे इस राय के थे कि सरकार के सभी कार्यक्रमों और नीतियों पर व्यापक बहस हो। लोग उसे समझें और उसका मूल्यांकन करें।
मुख्य राष्ट्रीय मुद्दों पर नेहरू ने सहमति बनाने का प्रयास किया। वे मानते थे कि केवल मताधिकार देने मात्र से सारे मसलों का समाधान नहीं हो जाएगा। प्रश्नकाल में उनकी खास दिलचस्पी थी। प्रश्नकाल में मौजूद रह कर कठिन सवालों के जवाब खुद देते थे। संसद सत्र में वे दिल्ली में रहें, इस बात का हमेशा ध्यान दिया। वे लोक सभा या राज्य सभा के सांसदों को विशेष निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधि भर नहीं मानते थे। 21 दिसम्बर, 1955 को लोक सभा में उन्होंने कहा था कि
'संसद सदस्य भारत के किसी विशिष्ट क्षेत्र के ही सदस्य नहीं, अपितु वह भारत का है, और वह भारत का प्रतिनिधित्व करता है।