ललित सुरजन की कलम से - जनतांत्रिक संस्थाओं की साख का सवाल
'कुछ माह पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात के रायपाल द्वारा मनोनीत लोकायुक्त की नियुक्ति को जब वैध ठहराते हुए इस प्रदेश के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को जो वजन दिया तब उसे भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने उचित नहीं माना था;
'कुछ माह पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात के रायपाल द्वारा मनोनीत लोकायुक्त की नियुक्ति को जब वैध ठहराते हुए इस प्रदेश के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को जो वजन दिया तब उसे भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने उचित नहीं माना था। एक अन्य प्रसंग में थोड़े समय बाद सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी भी आई कि राज्य का मुख्य सूचना आयुक्त कोई सेवानिवृत्त जज ही होना चाहिए। इसके पहले चुनाव आयुक्त नवीन चावला की नियुक्ति पर सवाल उठाए गए तो प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू के बारे में लगातार असंतुलित टिप्पणियां की जा रही हैं। सीएजी विनोद राय तो विवादों में हैं ही। पूर्व में सेवानिवृत्त सीएजी टी.एन. चतुर्वेदी को यदि भाजपा ने रायसभा में भेज दिया तो कांग्रेस ने भी पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एम.एस. गिल को मंत्री बनाने से संकोच नहीं किया।'
'ऐसे तमाम प्रसंगों से क्या सिध्द होता है? अव्वल तो यही कि राजनीतिक दल इन संवैधानिक अभिकरणों की विश्वसनीयता को दांव पर लगाकर अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं। उन्हें स्वस्थ परंपराएं स्थापित करने का कोई ख्याल नहीं है। दूसरे यह कि इन पदों पर बैठे हुए लोग भी निजी लाभ-लोभ की भावना को छोड़ नहीं पा रहे हैं या जैसा कि जस्टिस काटजू के बारे में हमें लगता है कि वे हर समय वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम आने की धुन में लगे रहते हैं। अभिकरणों के बारे में रोज-रोज सवाल खड़े किए जाएंगे तो इनको स्थापित करने का मकसद कैसे पूरा होगा?'
(देशबन्धु में 7 मार्च 2013 को प्रकाशित )
https://lalitsurjan.blogspot.com/2013/05/blog-post_30.html