पैंतीस वर्षों के गहन अध्ययन से सामने आया 'सन्दर्भ रामगढ़'
ऐतिहासिक महत्व के किसी भी स्थान विशेष के बारे में पुस्तक लिखना, गंभीर चिंतन, मनन के साथ -साथ बहुत चुनौतीपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य है;
- स्वराज्य करुण
ऐतिहासिक महत्व के किसी भी स्थान विशेष के बारे में पुस्तक लिखना, गंभीर चिंतन, मनन के साथ -साथ बहुत चुनौतीपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य है, जिसे लेखक श्रीश मिश्रा ने सफलतापूर्वक पूरा कर दिखाया है । वे छत्तीसगढ़ के सरगुजा राजस्व संभाग और जिले के मुख्यालय अम्बिकापुर के निवासी हैं । पिछले साल 2024 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'सन्दर्भ रामगढ़' मूल्यवान दस्तावेज है, जो उनके पैंतीस वर्षों के गहन अध्ययन और विश्लेषण से सामने आया है। इस पुस्तक में उन्होंने वाल्मीकि रामायण, मनु स्मृति, महाभारत, रामचरित मानस सहित 188 पुस्तकों को भी संदर्भित किया है, जिनकी सूची अंत में दी गई है।
'सन्दर्भ रामगढ़' के लेखक श्रीश मिश्र तत्कालीन अविभाजित मध्यप्रदेश और वर्तमान छत्तीसगढ़ सरकार के शिक्षा विभाग में बतौर अध्यापक वर्ष 1980 से 2019 तक 39 वर्षों की सुदीर्घ सेवाओं के बाद जून 2019 में सरगुजा जिले के हायर सेकेण्डरी स्कूल (लमगाँव) के प्राचार्य के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं । इस बीच ग्यारह साल उन्होंने तत्कालीन बस्तर जिले के फरसगाँव के शासकीय हायर सेकेण्डरी स्कूल में रासायन विज्ञान के व्याख्याता के तौर पर अपनी सेवाएँ दी।
सरकारी नौकरी के दौरान जब कभी उन्हें अवसर और अवकाश मिला, उन्होंने रामगढ़ पर्वत के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए उनका अध्ययन और विश्लेषण किया। उन्होंने रामगढ़ पर्वत पर केंद्रित 9 किश्तों की एक डाक्यूमेंट्री फिल्म 'रामगढ़ एक खोज' का भी निर्माण किया है। रामगढ़ के ऐतिहासिक और पुरातत्विक अध्ययन पर उनकी पुस्तक 'सन्दर्भ रामगढ़' एक सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में वर्ष 2024 में प्रकाशित हुई है। प्राचीन महत्व के अनेक चित्रों के साथ 350 रूपए मूल्य की उनकी यह पुस्तक 214 पेज की है ।
लेखक श्रीश मिश्र रामगढ़ पर्वत लेकर अब तक चली आ रही कुछ धारणाओं को तथ्यों और तर्कों के आधार पर तर्कसंगत नहीं मानते हैं। वे छत्तीसगढ़ में श्रीराम वनगमन पथ को लेकर कुछ लेखकों की धारणाओं को भी अतार्किक मानते हैं। उन्होंने पुस्तक में इन सबका विश्लेषण करते हुए अपने नज़रिए से अपनी बातें लिखीं हैं ।
रामगढ़ पर्वत में जोगीमाड़ा और सीता बेंगिरा सहित लक्ष्मण गुफा, वशिष्ठ गुफा, भरत गुफा, हनुमान गुफा (पार्वती गुफा ) और काली गुफा, मुर्गी गोडारी, सिद्ध गुफा, दुर्गा गुफा, चन्दन माटी गुफा सहित कई गुफाएँ हैं। इनमें से सीताबेंगिरा और जोगीमाड़ा नामक दो गुफाओं का विशेष आकर्षण है । दोनों गुफाएँ अगल -बगल स्थित हैं। प्रचलित धारणा है कि भगवान श्रीराम ने वनवास के दौरान कुछ समय यहाँ (सीता बेंगिरा )में भी बिताया था ।सीताबेंगिरा के बारे में पुस्तक हमें बताती है कि स्थानीय बोली में बेंगिरा (बइंगरा) का मतलब रहने का कमरा होता है । सीताबेंगिरा का मतलब हुआ सीता जी के रहने का कमरा ।वहीं जोगीमाड़ा से आशय जोगी यानी योगी (साधु) और माड़ा यानी (स्थानीय बोली में) रहने के लिए खोहनुमा स्थान। इससे संकेत मिलता है कि यह गुफा योगियों के रहने के लिए थी ।अंग्रेजी उच्चारण में माड़ा शब्द 'मारा' हो गया, इसलिए कई लोग इसे जोगीमारा भी कहते हैं । इस गुफा की छत पर उस ज़माने की चित्रकारी भी देखी जा सकती है ।
श्रीश मिश्र के अनुसार दोनों छत्तीसगढ़ की प्राचीनतम पर्वतीय गुफाएँ हैं । ये गुफाएँ विश्व विख्यात हैं। इनकी प्राचीनता का प्रमाण इनकी दीवारों पर उत्कीर्ण भित्तिलेख हैं। पुरातत्वविदों ने इन गुफाओं का समय ईसा पूर्व तीसरी से दूसरी सदी का बताया है। पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण साक्ष्यों के आधार पर ही लेखक ने 'सन्दर्भ रामगढ़' में अपना तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।
पुस्तक में सीताबेंगिरा और जोगीमाड़ा गुफाओं की बनावट, लिपि और उपलब्ध अन्य साक्ष्यों को देखते हुए इन्हें मौर्यकालीन बौद्ध गुफाओं के रूप में भी वर्णित किया गया है। यह भी लिखा गया है कि मौर्य काल में गुफाओं का निर्माण प्रारंभ हो गया था। रामगढ़ और उसके आस -पास ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक के पुरा साक्ष्य प्राप्त हुए हैं, जबकि इतिहास में कर्मबद्धता का अभाव है और बीच की अधिकांश कड़ियाँ विलुप्त हैं ।
लेकिन इन मूल्यवान प्राचीन गुफाओं की वर्तमान हालत पर लेखक ने गहरी चिन्ता व्यक्त की है। उन्होंने लिखा है - 'इतनी महत्वपूर्ण गुफाओं का संरक्षण जिस तरह से होना चाहिए, वह दिखाई नहीं देता। जोगीमाड़ा की ब्राम्ही लिपि में सीमेंट लगा दिया गया है । छत की पेंटिंग्स लगभग समाप्ति की ओर है। छत में दरारें आ गई हैं और वह कभी भी गिर सकती है । जो भी बची -खुची पेंटिंग्स हैं, वह भी समाप्त हो जाएंगी। शरारती लोगों द्वारा रंग, कील आदि से विभिन्न प्रकार के नाम खोदे जा रहे हैं। आशंका है कि ये इन लिपियों को भी विकृत न कर दें।
प्रचलित धारणाएँ तर्क संगत नहीं होने के बाद भी इन गुफाओं के महत्व को नकारा नहीं जा सकता ।सीताबेंगिरा गुफा भरत मुनि की प्राचीनतम नाट्य शाला के रूप में भी चर्चित है, लेकिन लेखक श्रीश मिश्र के अनुसार यह धारणा तर्क संगत नहीं है । जोगीमाड़ा गुफा के एक शिलालेख का उल्लेख करते हुए कुछ लोग सुतनुका नामक देवदासी और रूपदक्ष नामक व्यक्ति की भी चर्चा करते हैं । पुस्तक 'सन्दर्भ रामगढ़' के लेखक इसे लेकर प्रचलित मान्यताओं का भी खंडन करते हैं।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार कुबेर की नगरी अलकापुरी से अपनी पत्नी विद्योत्मा द्वारा निष्कासित महाकवि ने इसी पहाड़ पर रहकर, आषाढ़ के उमड़ते -घुमड़ते बादलों को देखकर अपने कालजयी और लोकप्रिय संस्कृत महाकाव्य 'मेघदूतम्' की रचना की थी, जिसमें उन्होंने स्वयं को विरह वेदना से पीड़ित यक्ष मानकर, मेघ को दूत बनाकर उसके माध्यम से अपनी प्रेयसी विद्योत्मा को संदेश भेजे हैं । कुछ विद्वान यह मानते हैं कि कालिदास जी उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के दरबार के नौ रत्नों में से थे । किसी बात पर नाराज होकर सम्राट ने उन्हें अपने राज्य से निकाल दिया तो उन्होंने एक साल इसी रामगढ़ (रामगिरि)पर्वत पर बिताया और इसी अवधि में उन्होंने 'मेघदूतम्' की रचना की।
कुछ विद्वान इसे ईसा पूर्व 200 की यानी आज से लगभग 2200 वर्ष पुरानी घटना मानते हैं
श्रीश मिश्र इस पर्वत को महाकवि कालिदास के 'मेघदूतम्' की रचना स्थली तो मानते हैं, लेकिन जोगीमाड़ा गुफा के शिलालेख में 'सुतनुका' नामक देवदासी से जुड़ी प्रचलित धारणाओं को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने तथ्यों और तर्कों के आधार पर अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं । ब्राम्ही लिपि के अध्ययन के आधार पर वे कहते हैं कि इस शिलालेख में 'शुतनुक' नामक किसी पुरुष का उल्लेख है, 'सुतनुका' नामक देवदासी का नहीं। उनका कहना कि ब्राम्ही लिपि की पाँच पंक्तियों के इस शिलालेख की पाँचवीं पंक्ति में 'देवदिने नम लुपदखे' लिखा हुआ है, जिसमें 'शुतनुक' को ही देवदीन के नाम से सम्बोधित किया गया है । पाँचवीं पंक्ति का अर्थ हुआ- देवदीन नाम का रूपदक्ष या रूप का पारखी। लोक जीवन में देवीदीन, मातादीन आदि नाम रखने की परम्परा रही है। देवदीन को देव उपासक या देवता का 'कृपापात्र' भी कह सकते हैं । लेखक श्रीश मिश्रा के अनुसार डॉ. एच. एल. शुक्ला इस शिलालेख की लिपि को 'विशुद्ध मागधी' बताते हैं । इसके मूल भावाशय को लेकर विद्वानों के अलग -अलग मत हैं । डॉ. ब्लाश ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक वर्ष 1903-04 में लिखा है -'सुतनुका नाम की देवदासी के प्रति देवदीन रूपदक्ष प्रेमासक्त हुआ।' भित्ति लिपि में सुतनुका, देवदार्शिक्य और देवदिने -मात्र इन तीन शब्दों को लेकर विद्वानों और लेखकों ने अपनी -अपनी बात रखी है। शब्दार्थों की व्याख्या नहीं की है । सुतनुका और देवदीन को लेकर बाकायदा प्रेमग्रंथ भी लिख डाले गये ।
श्रीश मिश्र ने लिखा है - पूरी लिपि को सम्यक रूप से पढ़ें तो अर्थ निकलता है
'शुतनुक नाम का देव उपासक या देवता का सेवक । वह वेदसम्मत कार्य (अपने देवता की सेवा) उपरांत थक कर शैय्या पर है देवदीन नाम का रूपदक्ष ।'
इस लिपि को किसने लिखा और किस सन्दर्भ में लिखा, यह तो लिखने वाला ही बता सकता है। हम केवल शब्दार्थ आधारित भावाशय ही निकाल सकते हैं। लिपि के वाक्यांश अधूरे हैं। बात संकेत में कही गई है। तारतम्यता नहीं है। अत: शब्दार्थ आधारित अर्थ ही निकाला जा सकता है। आगे इसी सन्दर्भ में श्रीश मिश्र लिखते हैं- 'मेघदूतम् के यक्ष को इस लिपि से जोड़कर देखा जा सकता है। शुतनुक (यक्ष), जिसे देवदीन भी कहा गया है, वह रूपदक्ष (रूप का पारखी) अलकापुरी में रहने वाली प्रेयसी के सन्दर्भ में रूपदक्ष कहा गया है, अपने देवता कुबेर की उपासना पश्चात श्रान्त-क्लान्त शैया पर लेटा हुआ है।' श्रीश जी लिखते हैं -इन तथ्यों के आधार पर इस संभावना को बल मिलता है कि यही वह रामगढ़ (रामगिरि ) पर्वत है, जहाँ महाकवि कालिदास ने 'मेघदूतम्' की रचना की थी।
पुस्तक के पेज 88 से 89 में लेखक श्रीश मिश्र ने जिन तथ्यों के आधार पर पुस्तक में बिंदुवार तर्क दिए हैं कि रामगढ़ में प्राचीनतम नाट्य शाला नहीं थी, वे उन्हीं के शब्दों में यथावत इस प्रकार हैं-1848 में कर्नल आउस्ले ने शिकार के दौरान सीताबेंगिरा और जोगीमाड़ा गुफाओं को प्रकाश में लाया था। (ख) 1903-04 में आरकियोलाजिस्ट डॉ. ब्लाश ने सर्व प्रथम सीता बेंगिरा को 200 ई. पूर्व की नाट्य शाला होने का अनुमान व्यक्त किया था ।
1973 में सरगुजा के कलेक्टर स्व. महेन्द्र कुमार दीक्षित और स्थानीय विद्वानों ने भरत मुनि की नाट्य शाला होने का एक शिलालेख सीताबेंगिरा के सामने स्थापित किया था, तब से प्राचीनतम नाट्यशाला के रूप में व्यापक तौर पर इसका प्रचार हुआ और इसी संदर्भ में 'आषाढ़स्य प्रथम दिवसे' नाम से कार्यक्रम आयोजित होने लगे ।
डॉ. ब्लाश और स्थानीय विद्वानों ने किन गुण धर्मों के आधार पर सीताबेंगिरा को नाट्य शाला माना है, कहीं उल्लेख नहीं मिलता । मात्र नाट्य शाला कह देना पर्याप्त नहीं हो सकता। मैंने नाट्य शास्त्र का अध्ययन किया और पाया नाट्य शास्त्र में वर्णित एक भी गुण सीता बेंगिरा में नहीं मिलते । मेरी दृष्टि में यह गुफा नाट्य शाला नहीं हो सकती। अपने कथन के पक्ष में प्रमाण स्वरूप कुछ बिंदु निम्नानुसार प्रस्तुत कर रहा हूँ-
1. डॉ. मनमोहन घोष द्वारा भरत मुनि के नाट्य शास्त्र का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है । इसके अध्याय दो के पृष्ठ 1-32 में नाट्य शाला के प्रकार, बनावट व विशेषताओं का विवरण दिया गया है । पुस्तक में कहीं भी Play House का जिक्र नहीं मिलता ।
2. सरगुजा स्टेट के तत्कालीन पारसी दीवान डी. डी. डाडी मास्टर की 1921 में प्रकाशित पुस्तक History of Surguja State में भी कहीं भी सीता बेंगिरा को नाट्य शाला नहीं कहा गया है। इसका उल्लेख गुफा के रूप में ही किया गया है।
3. नाट्य शास्त्र में प्रवेश और निर्गम द्वार की अवधारणा है। इस गुफा में निर्गम द्वार तो है ही नहीं।
4.नाट्य शाला के रूप में सामान्य जिज्ञासा का भी समाधान नहीं होता। जैसे -इसके केन्द्रीय कक्ष में इतना स्थान ही नहीं है कि चार -छ: लोग खड़े होकर मंचन कर सकें।
5.केन्द्रीय कक्ष की ऊंचाई 6फीट और अगल -बगल के कक्षों की ऊंचाई 5से 5.5 फीट है, इस ऊंचाई में लम्बा व्यक्ति ठीक से खड़ा ही नहीं हो सकता तो मंचन क्या करेगा?
6. कुछ लोगों ने एम्फीथियेटर की अवधारणा भी प्रस्तुत की है, जो हास्यास्पद है। इसके इर्द -गिर्द कहीं भी सोपानवत दर्शक दीर्घा नहीं है।
7. दर्शकों के बैठने का स्थान कहीं नहीं दिखता.
8. सीता बेंगिरा में उत्कीर्ण ब्राम्ही लिपि भी नाट्यशाला होना प्रमाणित नहीं करती। अत:बिना तथ्यों के नाट्य शाला निरूपित करना शिक्षार्थियों और शोधार्थियों को अंधेरे में रखने के समान होगा।
1991 में जिला प्रशासन सरगुजा की ओर से पुस्तक 'रेणुका' प्रकाशित की गई थी। इसमें डॉ. ए. एन. राव, अनुविभागीय अधिकारी, राजस्व का एक लेख छपा था। अपने लेख में उन्होंने भी सीता बेंगिरा को नाट्य शाला नहीं माना है। उन्होंने लिखा है -
'वस्तुत: रामगढ़ की सीताबेंगिरा नाट्य शाला नहीं, बौद्ध कालीन गुफा है। नाट्य शाला की परिकल्पना भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में वर्णित नाट्य मण्डपों के विवरण के आधार पर की गई है। यह अनुमान किया जाता है कि नाट्य शास्त्र की रचना के पूर्व पर्वतीय गुफाओं में नाट्य मंचन होता था। नाट्य शास्त्र के प्रकारों में इसे' विकृष्ट 'नामक नाट्य मण्डप से तुलना की गई है। विकृष्ट नाट्य मण्डप दो विभागों में विभाजित था। एक रंगकर्मियों के लिये, दूसरा प्रेक्षकों के लिये। इस प्रकार के नाट्य मण्डप दीवारों से घिरे होते थे, मण्डप धारण हेतु स्तंभ होते थे। सीताबेंगिरा के संदर्भ में दोनों बातें पूरी नहीं होती, रंग कर्मियों और प्रेक्षकों के लिये अलग -अलग विभाग नहीं हैं और मण्डप धारण हेतु स्तंभ भी नहीं हैं। यदि आप नाट्य शाला कहना ही चाहते हैं तो इस पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।'
रामगढ़ के इतिहास और पुरातत्व को लेकर विभिन्न विद्वानों के अनेक विचार हैं । श्रीश जी ने अपनी किताब 'सन्दर्भ रामगढ़' में यह भी दावा किया है कि इस पर्वत की गुफाओं में उत्कीर्ण ब्राम्ही लिपि की पहली बार व्याख्या की गई है। बहरहाल, छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण पर्वत और उसकी गुफाओं पर केंद्रित श्रीश मिश्र की पुस्तक 'सन्दर्भ रामगढ़' पठनीय है और इसमें दिए गए सभी तथ्य और तर्क भी विचारणीय हैं।