एस आर हरनोट : हिमाचली लोक जीवन के अनूठे गायक

हरनोट के उपन्यासों को पढ़ते हुए फणीश्वरनाथ रेणु की याद आती है;

Update: 2025-07-13 04:37 GMT

- अह

हरनोट के उपन्यासों को पढ़ते हुए फणीश्वरनाथ रेणु की याद आती है । 'मैला आँचल' याद आता है । वैसी ही चित्रमय, संगीतमय भाषा । मानो आप उपन्यास न पढ़ रहे हों, कोई फिल्म देख रहे हों । पहाड़ी नदी के पानी-सी पारदर्शी भाषा ।पहाड़ का जैसा जीवन वैसी ही भाषा । हिमाचली लोक की भाषा । रेणु की तरह हरनोट ने भी आंचलिक शब्दों का रोचक और प्रभावपूर्ण प्रयोग किया है । इनमें से अनेक शब्द पारिभाषिक हैं और उनके पीछे कोई कथा या किंवदंतियाँ छिपी हैं । पाठ से अलग करके देखने पर भले वे कठिन लगें लेकिन पाठ के साथ सहज ही इन शब्दों के अर्थ खुलते जाते हैं और हिंदी का शब्द परिवार समृद्ध होता चलता है । ये लेखक के जीवन जगत के शब्द हैं । इसलिए इनके अर्थ खुलने में बाधा नहीं आती ।

दिराकेशरेणु

एस.आर. हरनोट का नाम हिन्दी के महत्वपूर्ण कथाकारों में शामिल है । उन्होंने हिमाचल के ग्रामीण जीवन, लोक संस्कृति, परंपराओं, मान्यताओं को अपनी कहानी तथा उपन्यास का विषय बनाया है । हिमाचल के पहाड़ी जनजीवन की जटिलताओं, संबंधों में पैबस्त स्वार्थ व कुटिलता और हितों के टकराव की कथा आख्यानों में पिरोकर कहने का कौशल जैसा हरनोट में है वैसा हिमाचल के किसी अन्य कथाकार में नहीं। किंवदंतियाँ, लोक कथाएँ और आख्यान न केवल उनकी कथा रचना को शक्ति और परिप्रेक्ष्य देते हैं बल्कि उसमें सहजता, प्रवाह व ज़रूरी तनाव भी भरते हैं। कथा साहित्य, ख़ास तौर पर औपन्यासिक कृति में ये तीनों तत्व गतिशीलता और पठनीयता के लिए ज़रूरी हैं। इसके साथ ही, उपन्यास में आरंभिक पृष्ठों का रचाव और कसाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।

हरनोट से पहले हिमाचल प्रदेश में जन्मे अथवा वहाँ रह कर लेखन करने वाले नामचीन कथाकारों की एक लंबी श्रृंखला है जिसकी शुरूआत चंद्रधर शर्मा गुलेरी से हुई मानी जाती है। हिन्दी जगत को उसकी पहली कहानी 'उसने कहा था' देने का श्रेय गुलेरी जी को ही प्राप्त है । उनके बाद यशपाल का नाम उल्लेखनीय रूप से लिया जाता है। निर्मल वर्मा और रस्किन बांड आदि का संबंध भी हिमाचल प्रदेश से रहा है, भले ही वे दिल्ली अथवा देहरादून जैसी जगहों पर बसकर लेखन करते रहे। मोहन राकेश भी थोड़े समय तक शिमला मे रहकर अध्यापन और लेखन किया। लेकिन इनमें से किसी ने भी अपने लेखन में हिमाचल के ग्रामीण व लोक जीवन में प्रवेश करने की कोशिश नहीं की । उन्हें अपने उपन्यासों का विषय नहीं बनाया ।

हरनोट इस मानी में विशिष्ट हैं । उनके पास हिमाचल के पहाड़ी जीवन की अछूती और अनूठी कथाओं का समृद्ध ख़ज़ाना है। हरनोट हिमाचल के एक गाँव से आते हैं । उनका संबंध संघर्षशील दलित समाज से है। उन्हें पहाड़ी जीवन की दूभरताओं और दृढ़ताओं की गहरी जानकारी है। सामाजिक पदानुक्रम में नीचे रखे गए तबकों की पीड़ाओं और उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार की भी गहरी जानकारी उन्हें है । हिमाचल की परंपराओं, किंवदंतियों और मिथकीय कथाओं के बीच उनका जीवन गुज़रा है। अपनी कहानियों और उपन्यासों में हरनोट जी ने हिमाचल के इसी पहाड़ी जीवन के संघर्ष, सुख-दु:ख, आपसी खींचतान और जिजीविषा को अभिव्यक्ति दी है। उनके उपन्यास जहाँ एक ओर परम्परा से चले आ रहे भेदभाव और शोषण की प्रविधियों का दस्तावेज़ प्रस्तुत करते हैं वहीं दूसरी तरफ आधुनिकता और विकास के नाम पर पहाड़ी संसाधनों और दलित-वंचित तबकों के दोहन-शोषण के नए-नए तरीकों की जानकारी विस्तार से रखते हैं। इन पंक्तियों के लेखक की सीमित जानकारी में हिमाचल का कोई दूसरा ऐसा उपन्यासकार नहीं है जो एस आर हरनोट की तरह अपने उपन्यासों में हिमाचल के सुदूर पर्वतीय जीवन और उनकी विडंबनाओं की दारुण किंतु विश्वसनीय जानकारी दे सके। उपन्यास और कहानियों में जो काम हरनोट में किया है, आधुनिक हिन्दी कविता में वह सुरेश सेन निशान्त और उनके बाद अब अजेय कुमार, आत्मारंजन और गणेश गनी जैसे कवि कर रहे हैं ।

हरनोट ने विपुल लेखन किया है - दर्जन भर कहानी संग्रहों के बीच उनके अब तक 'हिडिम्ब' और 'नदी रंग जैसी लड़की' नाम से दो उपन्यास प्रकाशित हैं। दोनों उपन्यासों के केन्द्र में हिमाचल के गाँव हैं। पहले उपन्यास हिडिम्ब का शीर्षक पौराणिक आख्यानों के एक खल पात्र के नाम को इंगित करता है जिसे महाभारत की कथा के अनुसार भीम ने मार गिराया था । लेकिन वह मारा कहाँ गया ? वह आज भी हज़ार-हज़ार रूपों में हमारे बीच उपस्थित है। हिमाचल के पर्वतों में ही उसका वास था । और, यदि वह आज भी जीवित है, जो कि है, तो हिमाचल के खल पात्रों में जीवित है जो पहाड़ के लोगों के जीवन की सरलता व छोटे-छोटे सुखों पर गिद्ध दृष्टि जमाए है । वह येन-केन-प्रकारेण किसानों की ज़मीन, लड़कियों का कौमार्य, स्त्रियों का शील और कृषि श्रमिकों का श्रम और आत्म सम्मान छीन लेना चाहता है । हिमाचल ही क्यों, वह समूचे देश में मौजूद है । पूरे देश में उसका आचरण एक-सा है - उतना ही विध्वंसक और अधोगामी । राक्षसी प्रवृत्ति वाले ऐसे पात्रों को इंगित करने के लिए हिडिम्ब से बेहतर कोई शीर्षक हो भी नहीं सकता था । अपने आत्मकथ्य में इस बात को और स्पष्ट करते हुए हरनोट लिखते हैं- 'प्राचीन काल से ही दो तरह की शक्तियाँ काम कर रही हैं - दैवी और आसुरी । प्रागैतिहासिक मिथक पुराण कथाएँ इसी बात को प्रमाणित करती हैं । लोकोत्तर अंध आस्था ने मगर इसे प्राय: भौतिक और स्थूल स्तर पर ग्रहण किया है और इन संदर्भों को उत्सव के रूप में मनाया है । जैसे कि होलिकादहन, दशहरे पर रावण का पुतला जलाना आदि । लोक यह दावा करता है कि दहन के साथ-साथ वे बुराइयों को भी जला रहे हैं । पर ऐसा हुआ कहाँ है ! उपन्यास का शीर्षक 'हिडिम्ब' इसी प्रवृत्ति से उपजा है ।'

जाहिरा तौर पर यह उपन्यास मिथकीय हिडिम्ब मात्र की कथा नहीं है बल्कि उस प्रवृत्ति और मानसिकता का प्रतीक है जो भले ही समाज में मनुष्यता के आरंभ से रहा हो लेकिन आज के उपभोक्तावादी दौर में वह हर तरफ दिखाई पड़ता है। इसके बहुतेरे चेहरे हैं जिनके शिकार आमतौर पर समाज के सबसे कमज़ोरतबके ही होते हैं।

अलग-अलग होने के बावजूद हरनोट के दोनों ही उपन्यासों की कथाभूमि में कुछ साम्य देखे जा हैं - पहला, वे हिमाचल के पहाड़ी गाँव के खेतिहर परिवारों के जीवन संघर्ष की जीवंत और यथार्थवादी कथा कहते हैं। दूसरे, दोनों ही उपन्यासों में मुख्य कथा को सूत्रबद्ध करने वाली एक-एक नदी है जो एक छोटी-सी लड़की के रूप में उपस्थित है - सरल, निर्मल, उच्छल, अतल और उज्ज्वल। हरनोट के उपन्यासों में नदी प्रकृति के पवित्रतम स्वरूप का प्रतीक है जो छोटी सी बालिका विपु और शतु के रूप में उपस्थित होती है । हिडिम्ब में यह बालिका विपु घाटी के प्रत्येक ईमानदार और सरल आदमी के साथ है । उनका हित चाहती है । किंतु नदी और प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करने, उन्हें गंदा करने वालों को समूल नष्ट करने के लिए संकल्पबद्ध भी प्रतीत होती है । और, आखिरकार ऐसा ही होता है । हिडिम्ब के अंत में घनघोर आँधी-तूफान, ओला वृष्टि के बाद हुए विनाश के उपरांत शावणू को अपने आंगन से नदी की ओर जाकर उसमें विलीन होते पैरों के छोटे-छोटे निशान दिखाई देते हैं जो उसी संकल्पबद्ध बालिका के हैं । वह बालिका नदी है, पर्वत, वन और पहाड़ी स्त्रियों की प्रतीक भी । वह प्रकृति है । वही संहारक है वही सर्जक । वह पहाड़ की उदात्तता का प्रतीक है । लेकिन जब उसे अवरुद्ध करने की कोशिश होती है अथवा मैला करने की, तो वह उसका प्रतिकार करती है । विध्वंस मचाती है । यह गंदगी को साफ कर नवीन सृजन करने के लिए ज़रूरी है ।

'नदी रंग जैसी लड़की' का आरम्भ ही एक कि़स्म की यूटोपियन संकल्पना से होता है - नदी के लड़की बन जाने की संकल्पना से । उपन्यास में कथा नायिका सुनमा जो कालांतर में वय के साथ दादी सुनमा में बदल जाती है, की अंतरंग दोस्त बालिका शतु है। हरनोट शतु नामक जिस छोटी सी ख़ूबसूरत लड़की का रूपक रचते हैं, उपन्यास में उसका आगमन कथा-फलक का विस्तार करता है। रूपक की यह बालिका बीच-बीच में अंतर्ध्यान हो जाती है । फिर अचानक उपस्थित होती है । हर बार कथानक को व्यापक अर्थ संदर्भ देती हुई। आख़िर का चौथाई हिस्सा उसी के वृत्तांत में लीन हो गया लगता है । वह सरकारी मुलाजिम और कंपनी मालिक जैसे विध्वंसकर्ता शक्तियों से मुक्त समाज की कल्पना करती है - 'बस हम और तुम हों और हमारी मछलियाँ हों और लोकगीत गाते मज़दूर और किसान हों।' यह उपन्यास कई स्तरों पर घटित होता है। कई बार प्रतीत होता है कि वृद्ध हो चुकी दादी सुनमा उम्र के असर से जागते हुए तरह-तरह के सपने देखती है। उसकी बड़बड़ाहट से कहानी आगे बढ़ती है और बहुधा एक कि़स्म का जादुई यथार्थ रचती है । उपन्यास का अंत उसी मार्मिक जादुई यथार्थ का मर्मस्पर्शी विस्तार है जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की । एक भरपूर जीवन जीने के बाद दादी सुनमा उसी नदी में समा गई जिससे वह जीवनपर्यंत प्रेरणा पाती रही। उपन्यास का अंत सुनमा दादी के नदी कन्याओं के संग, शतु के संग कागज़ की नाव में जाने का रूपक रचता है जो वस्तुत: उसके नदी की भाँति जीने, उसमें ही समा जाने और अमर हो जाने का रूपक है । कहना न होगा कि विपु विपाशा और शतु शतद्रु नामक नदियों के ही संक्षिप्त बालरूप हैं । दोनों उपन्यासों की सभी महत्वपूर्ण घटनाएँ इन्हीं नदियों के इर्दगिर्द और साथ-साथ घटित होती हैं ।

तीसरा सादृश्य दोनों उपन्यासों के स्त्री पात्रों के चित्रण में देखा जा सकता है । हरनोट दोनों ही उपन्यासों में परिवार में रमी किंतु मज़बूत आत्मबल की धनी स्त्री पात्रों की रचना करते हैं । एक में वे 'दारोश' सरीखी कहानी लिख कर स्त्री विरोधी प्रथा के ख़िलाफ अपनी असहमति और विरोध जता चुके हैं । वहीं से उनके स्त्री संबंधी विचार मज़बूती से प्रकट होते हैं । हिडिम्ब में जब मंत्री के गुंडे शावणू परिवार को डराने-धमकाने, प्रताड़ित और अपमानित करने के मकसद से उनके घर पहुँच जाते हैं तो शावणू की अर्द्धांगिनी सुरमा देई डरने की बजाए हाथ में दरात उठाकर उन्हें खदेड़ देती है । उसके पराक्रम पर स्वयं शावणू को भी भरोसा नहीं होता । बिलकुल घरेलू सी उसकी पत्नी इस संकट की घड़ी में शक्ति का रूप धर लेती है । बेटे की मृत्यु के बाद विक्षिप्तावस्था में भटकती सुरमा देई के सम्मुख ठेकेदार के आ जाने पर हाथ में दरात लिए वह उसका पीछा करती है, खदेड़ती हुई रेस्ट हाउस में पहुँच जाती है और अंतत: उसके गुप्तांग काट लेती है । स्त्री शक्ति का यह आक्रोश अनायास नहीं है । हरनोट के लिए यह एक संकेत है । समाज में हिडिम्बों की बढ़ते दुराचार के असह्य हो जाने का प्रकट विरोध है ।

दूसरी तरफ नदी रंग जैसी लड़की में सुनमा देई (दोनों उपन्यासों की नायिका के नामों में बस एक हर्फ का अंतर है । वही हर्फ बराबर अंतर उनके कार्य व्यवहार और व्यक्तित्व में भी है) का चरित्र पितृसत्ता को चुनौती देने वाला और स्त्रियों की स्वतंत्र इयत्ता का ख़ूबसूरत आख्यान रचने वाला है । यह समकालीन स्त्री चेतना के अनुकूल भी है । सुनमा देई का जीवन सामान्य नहीं है । उसे असामान्य बनाने में तथाकथित विकास की बड़ी गहरी भूमिका रही है । सुनमा पर्वत, नदी , पर्यावरण और आम जन के विरोध में अमानवीय व विध्वंसक व्यवस्था का साथ देने वाली सभी ताकतों से लोहा लेती है । वह दुर्धर्ष आत्मबल की धनी है । पति की अकाल मृत्यु के बाद परंपराओं को धता बताती वह सुहाग चिन्हों को पहले की ही तरह धारण करती रहती है । धीरे-धीरे समाज उसकी संवेदनाओं को समझने लगता है।

प्रकृति और पर्यावरण हरनोट की चिंता के केन्द्र में हैं । उनकी दृष्टि में इनका कितना अधिक महत्व है इसे नदी रंग जैसी लड़की की एक पंक्ति 'ज्नदी का मरना उसे भगवान के मरने जैसा लगता' से समझा जा सकता है । इन सबके के बावजूद दोनों उपन्यासों को केवल पर्यावरण केंद्रित मान लेना उन्हें सीमित करना होगा । अपने बुनियादी चरित्र में ये दोनों ही उपन्यास राजनीतिक हैं क्योंकि दोनों ही उपन्यासों में एक कि़स्म का वर्ग संघर्ष है - साधन संपन्न तबके का वंचितों से संघर्ष, अपनी भूख मिटाने के लिए सब कुछ हड़प लेने की इच्छा से जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियाँ और संसाधन बचा लेने का संघर्ष । हिडिम्ब में यह संघर्ष कहीं अधिक तीखा है। इस वर्ग संघर्ष का अगुआ शावणू और उनका परिवार है जिसे दलित होने की वजह से प्रताड़ित होना पड़ता है और जो बेटे और पत्नी को गँवा कर भी अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए तन कर खड़ा होता है, मंत्री और उसके गुर्गों को चुनौती देता रहता है । अंत तक नहीं झुकता ।

नदी रंग जैसी लड़की में यद्यपि दलित संघर्ष नहीं है किंतु यहाँ वर्ग संघर्ष दूसरे रूप में मौजूद है, किसानों और सत्ताधारियों के बीच संघर्ष के रूप में ।अपने गाँवों को और पहाड़, प्रकृति, पर्यावरण और लोक संस्कृति में जो अच्छा है, उसे बचा लेने के लिए संकल्पबद्ध सुनमा देई के रूप में है। एक स्तर पर इस उपन्यास में हिमाचल प्रदेश का ठोस इतिहास भी साथ-साथ चलता है । सुनमा देई के स्वाधीनता संग्रामी पिता मास्टर भागदत्त और श्वसुर देवीदत्त वज़ीर की कथा उसे आगे बढ़ाती है । स्वाधीन भारत में जिस मंत्री-संतरी वाले तंत्र को देश के आम लोगों, मजलूमों की रक्षा के लिए खड़ा होना चाहिए था । किंतु वही उनके लूट और विनाश का कारण बन गए हैं ।

हरनोट के उपन्यासों को पढ़ते हुए फणीश्वरनाथ रेणु की याद आती है । 'मैला आँचल' याद आता है । वैसी ही चित्रमय, संगीतमय भाषा । मानो आप उपन्यास न पढ़ रहे हों, कोई िफल्म देख रहे हों । पहाड़ी नदी के पानी-सी पारदर्शी भाषा ।पहाड़ का जैसा जीवन वैसी ही भाषा । हिमाचली लोक की भाषा । रेणु की तरह हरनोट ने भी आंचलिक शब्दों का रोचक और प्रभावपूर्ण प्रयोग किया है । इनमें से अनेक शब्द पारिभाषिक हैं और उनके पीछे कोई कथा या किंवदंतियाँ छिपी हैं । पाठ से अलग करके देखने पर भले वे कठिन लगें लेकिन पाठ के साथ सहज ही इन शब्दों के अर्थ खुलते जाते हैं और हिंदी का शब्द परिवार समृद्ध होता चलता है । ये लेखक के जीवन जगत के शब्द हैं । इसलिए इनके अर्थ खुलने में बाधा नहीं आती । काहिका, गुर, बुक्कल, कूहल, क्यार, पूड़, घासणी, बजंतर, पुरांदू, कूजो और दूसरे पर्वतीय फूलों के नाम आदि जैसे शब्द हिन्दी की वर्धमान गतिशीलता को बनाए रखते हैं । यही काम उपन्यास में प्रयुक्त हिमाचली लोकगीत और लोक कथाएँ करती हैं ।

हरनोट उम्मीद, सरलता और संभावना के गायक उपन्यासकार हैं। कई बार कविता जैसी तरल और प्रतीक भाषा में वे अपना रूपक गढ़ते हैं । हरनोट की वैचारिकी हर तरह के भेदभाव मिटाकर सम समाज की रचना की वैचारिकी है ।वह प्रकृति के साथ तालमेल बनाए रखने और उसके सहज प्रवाह में प्रवाहित होने रहने की वैचारिकी है । वह वैज्ञानिक और जनधर्मी वैचारिकी है । वह दलितों और स्त्रियों को परिवार और समाज में उनके हक व समान आदर दिलाने वाली वैचारिकी है । वह 'सार-सार को गहीराकेशरेणु

एस.आर. हरनोट का नाम हिन्दी के महत्वपूर्ण कथाकारों में शामिल है । उन्होंने हिमाचल के ग्रामीण जीवन, लोक संस्कृति, परंपराओं, मान्यताओं को अपनी कहानी तथा उपन्यास का विषय बनाया है । हिमाचल के पहाड़ी जनजीवन की जटिलताओं, संबंधों में पैबस्त स्वार्थ व कुटिलता और हितों के टकराव की कथा आख्यानों में पिरोकर कहने का कौशल जैसा हरनोट में है वैसा हिमाचल के किसी अन्य कथाकार में नहीं। किंवदंतियाँ, लोक कथाएँ और आख्यान न केवल उनकी कथा रचना को शक्ति और परिप्रेक्ष्य देते हैं बल्कि उसमें सहजता, प्रवाह व ज़रूरी तनाव भी भरते हैं। कथा साहित्य, ख़ास तौर पर औपन्यासिक कृति में ये तीनों तत्व गतिशीलता और पठनीयता के लिए ज़रूरी हैं। इसके साथ ही, उपन्यास में आरंभिक पृष्ठों का रचाव और कसाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।

हरनोट से पहले हिमाचल प्रदेश में जन्मे अथवा वहाँ रह कर लेखन करने वाले नामचीन कथाकारों की एक लंबी श्रृंखला है जिसकी शुरूआत चंद्रधर शर्मा गुलेरी से हुई मानी जाती है। हिन्दी जगत को उसकी पहली कहानी 'उसने कहा था' देने का श्रेय गुलेरी जी को ही प्राप्त है । उनके बाद यशपाल का नाम उल्लेखनीय रूप से लिया जाता है। निर्मल वर्मा और रस्किन बांड आदि का संबंध भी हिमाचल प्रदेश से रहा है, भले ही वे दिल्ली अथवा देहरादून जैसी जगहों पर बसकर लेखन करते रहे। मोहन राकेश भी थोड़े समय तक शिमला मे रहकर अध्यापन और लेखन किया। लेकिन इनमें से किसी ने भी अपने लेखन में हिमाचल के ग्रामीण व लोक जीवन में प्रवेश करने की कोशिश नहीं की । उन्हें अपने उपन्यासों का विषय नहीं बनाया ।

हरनोट इस मानी में विशिष्ट हैं । उनके पास हिमाचल के पहाड़ी जीवन की अछूती और अनूठी कथाओं का समृद्ध ख़ज़ाना है। हरनोट हिमाचल के एक गाँव से आते हैं । उनका संबंध संघर्षशील दलित समाज से है। उन्हें पहाड़ी जीवन की दूभरताओं और दृढ़ताओं की गहरी जानकारी है। सामाजिक पदानुक्रम में नीचे रखे गए तबकों की पीड़ाओं और उनके साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार की भी गहरी जानकारी उन्हें है । हिमाचल की परंपराओं, किंवदंतियों और मिथकीय कथाओं के बीच उनका जीवन गुज़रा है। अपनी कहानियों और उपन्यासों में हरनोट जी ने हिमाचल के इसी पहाड़ी जीवन के संघर्ष, सुख-दु:ख, आपसी खींचतान और जिजीविषा को अभिव्यक्ति दी है। उनके उपन्यास जहाँ एक ओर परम्परा से चले आ रहे भेदभाव और शोषण की प्रविधियों का दस्तावेज़ प्रस्तुत करते हैं वहीं दूसरी तरफ आधुनिकता और विकास के नाम पर पहाड़ी संसाधनों और दलित-वंचित तबकों के दोहन-शोषण के नए-नए तरीकों की जानकारी विस्तार से रखते हैं। इन पंक्तियों के लेखक की सीमित जानकारी में हिमाचल का कोई दूसरा ऐसा उपन्यासकार नहीं है जो एस आर हरनोट की तरह अपने उपन्यासों में हिमाचल के सुदूर पर्वतीय जीवन और उनकी विडंबनाओं की दारुण किंतु विश्वसनीय जानकारी दे सके। उपन्यास और कहानियों में जो काम हरनोट में किया है, आधुनिक हिन्दी कविता में वह सुरेश सेन निशान्त और उनके बाद अब अजेय कुमार, आत्मारंजन और गणेश गनी जैसे कवि कर रहे हैं ।

हरनोट ने विपुल लेखन किया है - दर्जन भर कहानी संग्रहों के बीच उनके अब तक 'हिडिम्ब' और 'नदी रंग जैसी लड़की' नाम से दो उपन्यास प्रकाशित हैं। दोनों उपन्यासों के केन्द्र में हिमाचल के गाँव हैं। पहले उपन्यास हिडिम्ब का शीर्षक पौराणिक आख्यानों के एक खल पात्र के नाम को इंगित करता है जिसे महाभारत की कथा के अनुसार भीम ने मार गिराया था । लेकिन वह मारा कहाँ गया ? वह आज भी हज़ार-हज़ार रूपों में हमारे बीच उपस्थित है। हिमाचल के पर्वतों में ही उसका वास था । और, यदि वह आज भी जीवित है, जो कि है, तो हिमाचल के खल पात्रों में जीवित है जो पहाड़ के लोगों के जीवन की सरलता व छोटे-छोटे सुखों पर गिद्ध दृष्टि जमाए है । वह येन-केन-प्रकारेण किसानों की ज़मीन, लड़कियों का कौमार्य, स्त्रियों का शील और कृषि श्रमिकों का श्रम और आत्म सम्मान छीन लेना चाहता है । हिमाचल ही क्यों, वह समूचे देश में मौजूद है । पूरे देश में उसका आचरण एक-सा है - उतना ही विध्वंसक और अधोगामी । राक्षसी प्रवृत्ति वाले ऐसे पात्रों को इंगित करने के लिए हिडिम्ब से बेहतर कोई शीर्षक हो भी नहीं सकता था । अपने आत्मकथ्य में इस बात को और स्पष्ट करते हुए हरनोट लिखते हैं- 'प्राचीन काल से ही दो तरह की शक्तियाँ काम कर रही हैं - दैवी और आसुरी । प्रागैतिहासिक मिथक पुराण कथाएँ इसी बात को प्रमाणित करती हैं । लोकोत्तर अंध आस्था ने मगर इसे प्राय: भौतिक और स्थूल स्तर पर ग्रहण किया है और इन संदर्भों को उत्सव के रूप में मनाया है । जैसे कि होलिकादहन, दशहरे पर रावण का पुतला जलाना आदि । लोक यह दावा करता है कि दहन के साथ-साथ वे बुराइयों को भी जला रहे हैं । पर ऐसा हुआ कहाँ है ! उपन्यास का शीर्षक 'हिडिम्ब' इसी प्रवृत्ति से उपजा है ।'

जाहिरा तौर पर यह उपन्यास मिथकीय हिडिम्ब मात्र की कथा नहीं है बल्कि उस प्रवृत्ति और मानसिकता का प्रतीक है जो भले ही समाज में मनुष्यता के आरंभ से रहा हो लेकिन आज के उपभोक्तावादी दौर में वह हर तरफ दिखाई पड़ता है। इसके बहुतेरे चेहरे हैं जिनके शिकार आमतौर पर समाज के सबसे कमज़ोरतबके ही होते हैं।

अलग-अलग होने के बावजूद हरनोट के दोनों ही उपन्यासों की कथाभूमि में कुछ साम्य देखे जा हैं - पहला, वे हिमाचल के पहाड़ी गाँव के खेतिहर परिवारों के जीवन संघर्ष की जीवंत और यथार्थवादी कथा कहते हैं। दूसरे, दोनों ही उपन्यासों में मुख्य कथा को सूत्रबद्ध करने वाली एक-एक नदी है जो एक छोटी-सी लड़की के रूप में उपस्थित है - सरल, निर्मल, उच्छल, अतल और उज्ज्वल। हरनोट के उपन्यासों में नदी प्रकृति के पवित्रतम स्वरूप का प्रतीक है जो छोटी सी बालिका विपु और शतु के रूप में उपस्थित होती है । हिडिम्ब में यह बालिका विपु घाटी के प्रत्येक ईमानदार और सरल आदमी के साथ है । उनका हित चाहती है । किंतु नदी और प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करने, उन्हें गंदा करने वालों को समूल नष्ट करने के लिए संकल्पबद्ध भी प्रतीत होती है । और, आखिरकार ऐसा ही होता है । हिडिम्ब के अंत में घनघोर आँधी-तूफान, ओला वृष्टि के बाद हुए विनाश के उपरांत शावणू को अपने आंगन से नदी की ओर जाकर उसमें विलीन होते पैरों के छोटे-छोटे निशान दिखाई देते हैं जो उसी संकल्पबद्ध बालिका के हैं । वह बालिका नदी है, पर्वत, वन और पहाड़ी स्त्रियों की प्रतीक भी । वह प्रकृति है । वही संहारक है वही सर्जक । वह पहाड़ की उदात्तता का प्रतीक है । लेकिन जब उसे अवरुद्ध करने की कोशिश होती है अथवा मैला करने की, तो वह उसका प्रतिकार करती है । विध्वंस मचाती है । यह गंदगी को साफ कर नवीन सृजन करने के लिए ज़रूरी है ।

'नदी रंग जैसी लड़की' का आरम्भ ही एक कि़स्म की यूटोपियन संकल्पना से होता है - नदी के लड़की बन जाने की संकल्पना से । उपन्यास में कथा नायिका सुनमा जो कालांतर में वय के साथ दादी सुनमा में बदल जाती है, की अंतरंग दोस्त बालिका शतु है। हरनोट शतु नामक जिस छोटी सी ख़ूबसूरत लड़की का रूपक रचते हैं, उपन्यास में उसका आगमन कथा-फलक का विस्तार करता है। रूपक की यह बालिका बीच-बीच में अंतर्ध्यान हो जाती है । फिर अचानक उपस्थित होती है । हर बार कथानक को व्यापक अर्थ संदर्भ देती हुई। आख़िर का चौथाई हिस्सा उसी के वृत्तांत में लीन हो गया लगता है । वह सरकारी मुलाजिम और कंपनी मालिक जैसे विध्वंसकर्ता शक्तियों से मुक्त समाज की कल्पना करती है - 'बस हम और तुम हों और हमारी मछलियाँ हों और लोकगीत गाते मज़दूर और किसान हों।' यह उपन्यास कई स्तरों पर घटित होता है। कई बार प्रतीत होता है कि वृद्ध हो चुकी दादी सुनमा उम्र के असर से जागते हुए तरह-तरह के सपने देखती है। उसकी बड़बड़ाहट से कहानी आगे बढ़ती है और बहुधा एक कि़स्म का जादुई यथार्थ रचती है । उपन्यास का अंत उसी मार्मिक जादुई यथार्थ का मर्मस्पर्शी विस्तार है जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की । एक भरपूर जीवन जीने के बाद दादी सुनमा उसी नदी में समा गई जिससे वह जीवनपर्यंत प्रेरणा पाती रही। उपन्यास का अंत सुनमा दादी के नदी कन्याओं के संग, शतु के संग कागज़ की नाव में जाने का रूपक रचता है जो वस्तुत: उसके नदी की भाँति जीने, उसमें ही समा जाने और अमर हो जाने का रूपक है । कहना न होगा कि विपु विपाशा और शतु शतद्रु नामक नदियों के ही संक्षिप्त बालरूप हैं । दोनों उपन्यासों की सभी महत्वपूर्ण घटनाएँ इन्हीं नदियों के इर्दगिर्द और साथ-साथ घटित होती हैं ।

तीसरा सादृश्य दोनों उपन्यासों के स्त्री पात्रों के चित्रण में देखा जा सकता है । हरनोट दोनों ही उपन्यासों में परिवार में रमी किंतु मज़बूत आत्मबल की धनी स्त्री पात्रों की रचना करते हैं । एक में वे 'दारोश' सरीखी कहानी लिख कर स्त्री विरोधी प्रथा के ख़िलाफ अपनी असहमति और विरोध जता चुके हैं । वहीं से उनके स्त्री संबंधी विचार मज़बूती से प्रकट होते हैं । हिडिम्ब में जब मंत्री के गुंडे शावणू परिवार को डराने-धमकाने, प्रताड़ित और अपमानित करने के मकसद से उनके घर पहुँच जाते हैं तो शावणू की अर्द्धांगिनी सुरमा देई डरने की बजाए हाथ में दरात उठाकर उन्हें खदेड़ देती है । उसके पराक्रम पर स्वयं शावणू को भी भरोसा नहीं होता । बिलकुल घरेलू सी उसकी पत्नी इस संकट की घड़ी में शक्ति का रूप धर लेती है । बेटे की मृत्यु के बाद विक्षिप्तावस्था में भटकती सुरमा देई के सम्मुख ठेकेदार के आ जाने पर हाथ में दरात लिए वह उसका पीछा करती है, खदेड़ती हुई रेस्ट हाउस में पहुँच जाती है और अंतत: उसके गुप्तांग काट लेती है । स्त्री शक्ति का यह आक्रोश अनायास नहीं है । हरनोट के लिए यह एक संकेत है । समाज में हिडिम्बों की बढ़ते दुराचार के असह्य हो जाने का प्रकट विरोध है ।

दूसरी तरफ नदी रंग जैसी लड़की में सुनमा देई (दोनों उपन्यासों की नायिका के नामों में बस एक हर्फ का अंतर है । वही हर्फ बराबर अंतर उनके कार्य व्यवहार और व्यक्तित्व में भी है) का चरित्र पितृसत्ता को चुनौती देने वाला और स्त्रियों की स्वतंत्र इयत्ता का ख़ूबसूरत आख्यान रचने वाला है । यह समकालीन स्त्री चेतना के अनुकूल भी है । सुनमा देई का जीवन सामान्य नहीं है । उसे असामान्य बनाने में तथाकथित विकास की बड़ी गहरी भूमिका रही है । सुनमा पर्वत, नदी , पर्यावरण और आम जन के विरोध में अमानवीय व विध्वंसक व्यवस्था का साथ देने वाली सभी ताकतों से लोहा लेती है । वह दुर्धर्ष आत्मबल की धनी है । पति की अकाल मृत्यु के बाद परंपराओं को धता बताती वह सुहाग चिन्हों को पहले की ही तरह धारण करती रहती है । धीरे-धीरे समाज उसकी संवेदनाओं को समझने लगता है।

प्रकृति और पर्यावरण हरनोट की चिंता के केन्द्र में हैं । उनकी दृष्टि में इनका कितना अधिक महत्व है इसे नदी रंग जैसी लड़की की एक पंक्ति 'ज्नदी का मरना उसे भगवान के मरने जैसा लगता' से समझा जा सकता है । इन सबके के बावजूद दोनों उपन्यासों को केवल पर्यावरण केंद्रित मान लेना उन्हें सीमित करना होगा । अपने बुनियादी चरित्र में ये दोनों ही उपन्यास राजनीतिक हैं क्योंकि दोनों ही उपन्यासों में एक कि़स्म का वर्ग संघर्ष है - साधन संपन्न तबके का वंचितों से संघर्ष, अपनी भूख मिटाने के लिए सब कुछ हड़प लेने की इच्छा से जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियाँ और संसाधन बचा लेने का संघर्ष । हिडिम्ब में यह संघर्ष कहीं अधिक तीखा है। इस वर्ग संघर्ष का अगुआ शावणू और उनका परिवार है जिसे दलित होने की वजह से प्रताड़ित होना पड़ता है और जो बेटे और पत्नी को गँवा कर भी अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए तन कर खड़ा होता है, मंत्री और उसके गुर्गों को चुनौती देता रहता है । अंत तक नहीं झुकता ।

नदी रंग जैसी लड़की में यद्यपि दलित संघर्ष नहीं है किंतु यहाँ वर्ग संघर्ष दूसरे रूप में मौजूद है, किसानों और सत्ताधारियों के बीच संघर्ष के रूप में ।अपने गाँवों को और पहाड़, प्रकृति, पर्यावरण और लोक संस्कृति में जो अच्छा है, उसे बचा लेने के लिए संकल्पबद्ध सुनमा देई के रूप में है। एक स्तर पर इस उपन्यास में हिमाचल प्रदेश का ठोस इतिहास भी साथ-साथ चलता है । सुनमा देई के स्वाधीनता संग्रामी पिता मास्टर भागदत्त और श्वसुर देवीदत्त वज़ीर की कथा उसे आगे बढ़ाती है । स्वाधीन भारत में जिस मंत्री-संतरी वाले तंत्र को देश के आम लोगों, मजलूमों की रक्षा के लिए खड़ा होना चाहिए था । किंतु वही उनके लूट और विनाश का कारण बन गए हैं ।

हरनोट के उपन्यासों को पढ़ते हुए फणीश्वरनाथ रेणु की याद आती है । 'मैला आँचल' याद आता है । वैसी ही चित्रमय, संगीतमय भाषा । मानो आप उपन्यास न पढ़ रहे हों, कोई िफल्म देख रहे हों । पहाड़ी नदी के पानी-सी पारदर्शी भाषा ।पहाड़ का जैसा जीवन वैसी ही भाषा । हिमाचली लोक की भाषा । रेणु की तरह हरनोट ने भी आंचलिक शब्दों का रोचक और प्रभावपूर्ण प्रयोग किया है । इनमें से अनेक शब्द पारिभाषिक हैं और उनके पीछे कोई कथा या किंवदंतियाँ छिपी हैं । पाठ से अलग करके देखने पर भले वे कठिन लगें लेकिन पाठ के साथ सहज ही इन शब्दों के अर्थ खुलते जाते हैं और हिंदी का शब्द परिवार समृद्ध होता चलता है । ये लेखक के जीवन जगत के शब्द हैं । इसलिए इनके अर्थ खुलने में बाधा नहीं आती । काहिका, गुर, बुक्कल, कूहल, क्यार, पूड़, घासणी, बजंतर, पुरांदू, कूजो और दूसरे पर्वतीय फूलों के नाम आदि जैसे शब्द हिन्दी की वर्धमान गतिशीलता को बनाए रखते हैं । यही काम उपन्यास में प्रयुक्त हिमाचली लोकगीत और लोक कथाएँ करती हैं ।

हरनोट उम्मीद, सरलता और संभावना के गायक उपन्यासकार हैं। कई बार कविता जैसी तरल और प्रतीक भाषा में वे अपना रूपक गढ़ते हैं । हरनोट की वैचारिकी हर तरह के भेदभाव मिटाकर सम समाज की रचना की वैचारिकी है ।वह प्रकृति के साथ तालमेल बनाए रखने और उसके सहज प्रवाह में प्रवाहित होने रहने की वैचारिकी है । वह वैज्ञानिक और जनधर्मी वैचारिकी है । वह दलितों और स्त्रियों को परिवार और समाज में उनके हक व समान आदर दिलाने वाली वैचारिकी है । वह 'सार-सार को गही रहे थोथा देय उड़ाए' की वैचारिकी है । रहे थोथा देय उड़ाए' की वैचारिकी है ।

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