गांधी और गांधीवाद पर हमला सुनियोजित साजिश

गांधीवादी विचार, संस्थान और स्वयं महात्मा गांधी पर आज अभूतपूर्व हमले हो रहे हैं;

Update: 2023-07-08 01:51 GMT

- जगदीश रत्तनानी

गांधीवादी डॉ. सुदर्शन अयंगर ने लगभग एक दशक पहले प्रकाशित एक पेपर में लिखा था- 'कई (गांधीवादी) संस्थान संकट में दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है कि उनकी बुनियाद कमजोर हो गई है जो विचार की गरीबी और व्यवहार में कठोरता दोनों को दर्शाता है। प्रतिबद्ध व्यक्तियों की संख्या कम है। सामान्य तौर पर मामूली सामाजिक सेवा को छोड़कर, गांधीवादी विचारों और कार्यों के लिए व्यापक सामाजिक समर्थन लगभग न के बराबर है।'

गांधीवादी विचार, संस्थान और स्वयं महात्मा गांधी पर आज अभूतपूर्व हमले हो रहे हैं। सरकार में शामिल लोगों से लेकर कार्यकर्ताओं तक अपने जहरबुझे दिमाग से गांधी और उनके विचारों पर लगातार हमले कर रहे हैं। राष्ट्रपिता को गलत और यहां तक कि खलनायक बताने की कोशिशें की जा रही हैं। इन घटनाओं से गांधीवादी हैरान हैं, लेकिन हमलों की उग्रता और मीडिया चैनलों पर फैलाए जा रहे जहर के कारण उनके मन में मायूसी, हार और इस विवाद में शामिल न होने की भावना भी है। इन परिस्थितियों में गांधीवादियों को क्या करना चाहिए? उन्हें कैसे जवाब देना चाहिए?

विडंबना यह है कि 2 फरवरी, 1948 को वर्धा में आयोजित होने वाले एक सम्मेलन में चर्चा के केंद्र में ये सवाल थे। हालांकि उस समय संदर्भ अलग था- स्वतंत्रता के बाद के भारत को मजबूत करने के लिए प्रयास। उस सम्मेलन से तीन दिन पहले ही गांधी की हत्या कर दी गई थी। इसलिए इस सम्मेलन का बाद में मार्च में आयोजन करना तय किया गया। इसका विषय था- 'गांधी चले गए। अब हमें क्या करना चाहिए?' (गांधी इज गॉन,व्हॉट शुड वी डू नॉऊ?)

13-15 मार्च, 1948 को हुए उस सम्मेलन में सर्व सेवा संघ की स्थापना की गई। इस सम्मेलन की अध्यक्षता कांग्रेस अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने की थी और इसमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद, आचार्य जेबी कृपलानी, जेसी कुमारप्पा, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे जैसे लोगों ने 'सच्चेदिल, आत्म-आलोचना और निष्पक्षता के साथ अपनी बातें रखीं, जिसने अपने शहीद मार्गदर्शक को भी छूट नहीं दी। इस विचार मंथन को 'गांधी इज गॉन, हू विल गाईड अस नॉऊ?' (संपादक गोपालकृष्ण गांधी, परमानेंट ब्लैक द्वारा प्रकाशित) में छापा गया। इस सम्मेलन में सरदार वल्लभभाई पटेल भी शामिल होने वाले थे लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण वे नहीं आ सके। यह तय किया गया कि सर्व सेवा संघ दलगत राजनीति से दूर रहकर इस उद्देश्य से काम करेगा कि-'मानव और लोकतांत्रिक मूल्यों से ओत-प्रोत सत्य और अहिंसा पर आधारित एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की शुरुआत की जा सके जो शोषण, अत्याचार, अनैतिकता या अन्याय से मुक्त हो और जो मानव के व्यक्तित्व विकास के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करे'।

इस समय सर्व सेवा संघ और वाराणसी में उसके द्वारा संचालित संस्थाएं, स्थानीय प्रशासन और रेलवे के खिलाफ उच्च न्यायालय में उस नोटिस के खिलाफ लड़ रही हैं जो दावा करते हैं कि जिस भूमि पर संघ का कार्यालय है उसका स्वामित्व रेलवे के पास है। स्थानीय प्रशासन और रेलवे की नोटिस में संस्था के रिकॉर्ड और 15 मई 1960, 09 मई 1961 और 20 मई 1970 के बिक्री विलेखों की वैधता के दावों की अवहेलना की गई है जो दिखाते हैं कि यह भूमि सरकार से विधिवत खरीदी गई थी।

संपत्ति गिराने की नोटिस और वास्तविक तोड़फोड़ के लिए तय की गई तारीखें बिजली की गति के साथ आई हैं और सरकारी मशीनरी काम करने के अपने ढीले-ढाले तरीके के एकदम विपरीत है। इस मामले पर प्रकाश डालते हुए एक सदस्य ने कहा कि -'गांधीवादी संगठन आज दुर्दशा और खतरे का सामना कर रहे हैं।' उन्होंने कहा कि 'वाराणसी में सर्व सेवा संघ पर हमला हो रहा है। हम इसे बचाने के लिए सब कुछ कर रहे हैं।' अगर सर्वसेवा संघ के समृद्ध इतिहास, इसके इरादे की शुद्धता (सार्वजनिक जीवन में सच्चाई) और इस संगठन को बनाने वाले नेताओं के नाम भी सरकारी अधिकारियों को सर्व सेवा संघ की इमारतों को ध्वस्त करने से नहीं रोक सके तो गांधीवादी आंदोलन के बचे हुए लोगों में से लगभग किसी को भी सुरक्षित नहीं माना जा सकता है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि गांधी विरोध की यह दिशा घृणित है। इसका विरोध करने के लिए हरसंभव प्रयास किये जाने चाहिए। हमारे भीतर के सर्वश्रेष्ठ का पोषण करने वाली गहरी, समृद्ध और विकसित सोच जो हमारी विरासत और लोकाचार की बात करती है, उसे एक ऐसे स्तर पर लाया जा रहा है जो राष्ट्र के कद को कम करता है। सही सोच वाले सभी भारतीयों को इन हरकतों से चिंतित होना चाहिए। फिर भी, गांधी विरोधी सोच हर तरह से फल-फूल रही है। 1948 में उठाया गया सवाल 2023 में फिर हमारे सामने खड़ा है; फर्क सिर्फ इतना है कि अब 'हमारी' सरकार पर खुली शत्रुता, वैमनस्य को बढ़ावा देने और गांधीवादी सोच की जड़ों पर प्रहार करने वाले विभाजन पैदा करने का आरोप लगाया जा रहा है। फिर भी, आजादी की 75 साल की यात्रा में इस सवाल की समानता हमें एक व्यक्ति के रूप में और गांधीवादी आंदोलन के बारे में बहुत कुछ बताती है। दोनों अच्छे नहीं लग रहे हैं।

हम उन शक्तियों को दोष दे सकते हैं और उन्हें दोष देना भी चाहिए जो इस कहानी को आकार देते हैं कि गांधी हमारे असली नायक नहीं हैं और इस विचार को बेचने के लिए अंतहीन घंटों के एयर टाइम और सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं, परन्तु वे इस कथा को इतनी सफलतापूर्वक ले जा रहे है कि हमें बताते हैं कि गांधी के आदर्श वास्तव में भारतीयों के दिल और दिमाग में अंतर्निहित नहीं हैं।

इसलिए यह दोष उन सभी लोगों द्वारा भी साझा किया जाना चाहिए जिन्हें गांधीवादी के रूप में जाना जाता है। इस बात में कोई विवाद नहीं है कि जैसे-जैसे पिछली पीढ़ी के गांधीवादी बूढ़े होते गए, गांधीवादी सोच का निर्माण करने और इसे एक नए युग के लिए नई पीढ़ी को पेश करने के लिए नई ऊर्जा (कुछ अपवादों को छोड़कर) की कमी रही है।

अधिकांश युवाओं ने गांधी के संदेशों को औपचारिक परीक्षा देने के लिए याद किया लेकिन वास्तव में कभी भी इस सोच की आलोचनात्मक जांच नहीं की या इसे स्वीकार नहीं किया, इसे अपनाना तो दूर की बात है। गांधी ने जो कुछ भी कहा और उसके लिए खड़े रहे, उसकी अनदेखी करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने की आदत उस भारत में जारी रही, जिसने अधिक आधुनिकता, अधिक उदारीकरण और उपभोक्तावाद पर सवार आर्थिक उछाल को सफलता के एक प्रमुख मार्कर के रूप में खरीदा। यह सब हाल में तेज हो सकता है लेकिन यह ट्रेंड लंबे समय से गिरावट की दिशा में है। कुछ लोग इसे 'हिंद स्वराज' में गांधी के विचारों को नेहरू द्वारा अस्वीकार करने से जोड़ते हैं।

आज देश में हिंसा गहराई में अंतर्निहित है और जो इन वर्षों में तेजी से बढ़ रही है। न्याय मिलना मुश्किल है, खासकर वंचितों के लिए। ताकत बोलती है और वास्तविकता यह है कि कम से कम अल्पावधि के लिए इस ताकत से सत्य को कुचला जा सकता है। इसका ताजा उदाहरण महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) से अलग हुए विधायकों की छलकपट भरी रणनीति है जहां भाजपा द्वारा नियंत्रित सरकार ने बड़े घोटालों के आरोपी और जांच के घेरे में आए लोगों का स्वागत किया है। दलबदलू अजित पवार को उप मुख्यमंत्री बनाया गया है और उनके साथ आए अन्य नेता मंत्री बने हैं। इन घटनाओं को पढ़ने और देखने वाले युवा यह विश्वास नहीं कर सकते कि सत्य आगे का रास्ता है। निश्चित रूप से आज के भारत में तो नहीं।

शायद ही कोई गांधीवादी संगठन हो जिसने वर्षों से गिरावट की इस प्रवृत्ति के बारे में कुछ कहा हो। प्रासंगिक होना और घटनाओं को चुनना एक बात है लेकिन विषयगत पतन को देखना काफी अलग है जो आज हमें यहां तक ले आया है। नए नेताओं को पोषित और प्रशिक्षित नहीं किया गया। कक्षाओं में पढ़ाने के लिए नई और प्रेरक सामग्री नहीं लाई जाती है। चुनौतियों का सामना करने के बजाय उन्हें दबा दिया जाता है। गांधीवादी डॉ. सुदर्शन अयंगर ने लगभग एक दशक पहले प्रकाशित एक पेपर में लिखा था- 'कई (गांधीवादी) संस्थान संकट में दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है कि उनकी बुनियाद कमजोर हो गई है जो विचार की गरीबी और व्यवहार में कठोरता दोनों को दर्शाता है। प्रतिबद्ध व्यक्तियों की संख्या कम है। सामान्य तौर पर मामूली सामाजिक सेवा को छोड़कर, गांधीवादी विचारों और कार्यों के लिए व्यापक सामाजिक समर्थन लगभग न के बराबर है।'

1948 के उस सम्मेलन में राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, 'देश का नैतिक ताना-बाना कमजोर हो गया है।' आज हम इस बात को बार-बार कह सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)

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