विकसित भारत के लिए चाहिए विकास की नयी राह
बजट का फोकस गरीबों, युवाओं, महिलाओं एवं किसानों पर है जो वाजिब और वांछनीय है;
- डॉ.इंदिरा हिरवे
बजट का फोकस गरीबों, युवाओं, महिलाओं एवं किसानों पर है जो वाजिब और वांछनीय है। हालांकि, बजट का विवरण इस फोकस को प्रतिबिंबित नहीं करता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सरकार की समग्र जीडीपी-केंद्रित रणनीति इन चार क्षेत्रों को खुद-ब-खुद मदद नहीं करेगी। गरीबों व युवाओं के लिए विशेष रूप से रोजगार-केंद्रित रणनीति की आवश्यकता है जो शिक्षा और कौशल निर्माण से समर्थित हो।
2024-25 का केंद्रीय बजट दो मायनो में महत्वपूर्ण है- 1. वित्तमंत्री ने पिछले दस वर्षों की इस सरकार की उपलब्धियों पर प्रकाश डाला और 2. आगामी चुनावों में पार्टी के सत्ता में लौटने की स्थिति में इसने एक विकसित देश के रूप में भारत के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने भाषण की शुरुआत इस धमाकेदार दावे के साथ की कि 'पिछले दस वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था में गहन सकारात्मक परिवर्तन' हुआ है और जिसमें 'समाज के सभी वर्गों के कवरेज के माध्यम से सामाजिक समावेशिता' तथा 'देश के सभी क्षेत्रों के विकास के माध्यम से भौगोलिक समावेशिता' का उल्लेख था। हमारी अर्थव्यवस्था की यह अत्यधिक रंगीन तस्वीर ज्यादातर मायनों में तथ्यात्मक रूप से गलत है। कई विशेषज्ञों ने नीति आयोग के इस दावे को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया है कि आर्थिक मंदी के दौरान बहुआयामी गरीबी में कमी आई है। विशेषज्ञों ने बताया है कि गरीबी वास्तव में बढ़ी है!
चूंकि 2011-12 से उपभोग व्यय के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं इसलिए वित्त मंत्री द्वारा दावा की गई गरीबी के हेडकाउंट अनुपात में गिरावट भी गलत है। आप उपभोग व्यय संबंधी आंकड़ों के बिना गरीबी अनुपात की गणना नहीं कर सकते। यह दावा भी तथ्यात्मक रूप से गलत है कि श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि उनके सशक्तिकरण को दर्शाती है क्योंकि यह वृद्धि मुख्य रूप से उनके स्वरोजगार में है और इसका मतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की पैठ बढ़ी है। सबसे पहले तो सरकार द्वारा महामारी को संतोषजनक ढंग से संभाला नहीं गया था जिसकी शुरुआत अचानक लगाए गए विचारहीन लॉकडाउन से हुई जिसके कारण हजारों गरीब असहाय प्रवासियों को अपने घर तक पहुंचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। और भी कई अन्य गलतियां हुईं उनमें जब सबसे ज्यादा जरूरत थी तब ऑक्सीजन सिलेंडर की भारी कमी भी शामिल हैं। अंत में, रोजगार के मोर्चे पर भी प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। इस प्रकार सरकार द्वारा किए गए अधिकांश दावों को चुनौती दी जा सकती है। बजट का फोकस गरीबों, युवाओं, महिलाओं एवं किसानों पर है जो वाजिब और वांछनीय है। हालांकि, बजट का विवरण इस फोकस को प्रतिबिंबित नहीं करता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सरकार की समग्र जीडीपी-केंद्रित रणनीति इन चार क्षेत्रों को खुद-ब-खुद मदद नहीं करेगी।
गरीबों व युवाओं के लिए विशेष रूप से रोजगार-केंद्रित रणनीति की आवश्यकता है जो शिक्षा और कौशल निर्माण से समर्थित हो। बड़े पैमाने पर उत्पादक रोजगार का सृजन समावेशी विकास तक पहुंचने का सुनिश्चित तरीका है। हमारी 79 प्रतिशत साक्षरता (21फीसदी निरक्षरता) और लगभग 30-35 प्रतिशत आबादी माध्यमिक स्तर तक शिक्षित है। यह कार्यबल भारत की मुख्यधारा की विकास प्रक्रिया में भाग लेने में सक्षम नहीं है।
युवा और गरीब तब तक हाशिए पर और वंचित रहेंगे जब तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर खर्च में भारी वृद्धि नहीं होती है एवं बड़े पैमाने पर उत्पादक रोजगार का सृजन नहीं होता है। संयोग से 80 करोड़ लोगों यानी लगभग 60 फीसदी आबादी को मुफ्त अनाज वितरण भी एक प्रकार की चैरिटी है तथा उत्पादक रोजगार का सृजन कहीं बेहतर विकल्प है।
महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को समझना जटिल है। महिलाओं के सशक्तिकरण और उनकी पुरुष अधीनता की जड़ें पितृसत्तात्मक व्यवस्था में हैं। समग्र रूप से महिलाओं की कम भागीदारी दर और श्रम बाजार में उनकी दीन-हीन स्थिति श्रम के पितृसत्तात्मक विभाजन से उत्पन्न होती है जिसके तहत महिलाएं परिवार में अवैतनिक घरेलू काम और बच्चे, बूढ़े, बीमार एवं विकलांग की अवैतनिक देखभाल के लिए जिम्मेदार होती हैं। उन पर श्रम बाजार में पितृसत्तात्मक कई मानदंडों द्वारा भी प्रतिबंध लगे होते हैं। घरेलू स्तर पर श्रम का विभाजन पुरुषों को परिवार के लिए ब्रेडविनर की भूमिका आबंटित करता है तथा महिलाओं को घर का कामकाज संभालने की जिम्मेदारी सौंपता है। मतलब यह कि महिलाएं घर के रखरखाव (परिवार के लिए सफाई, धोना, खाना बनाना आदि) और घर में बच्चे, बूढ़े, बीमार व विकलांगों की देखभाल करने की जिम्मेदारी उठाती हैं। यहां तक कि जब उन्हें काम पर नियुक्त किया जाता है तो उस स्थिति में भी यह घर की महिला होती है जो घर के रखरखाव और देखभाल के लिए जिम्मेदार होती है।
नतीजा यह होता है कि महिलाएं या तो श्रम बाजार में प्रवेश नहीं करती हैं अथवा वे अपने कंधों पर घरेलू जिम्मेदारी के साथ प्रवेश करती हैं। श्रम बाजार में लैंगिक असमानता श्रम बाजार के प्रवेश द्वार से ही शुरू होती है। कम मानव पूंजी एवं श्रम बाजार में प्रतिबंधित गतिशीलता के साथ, पितृसत्तात्मक मानदंडों की वजह से श्रम बाजार में उनकी पसंद भी लिंग आधारित है। इसी कारण वे घर के करीब काम करना पसंद करती हैं, अंशकालिक या लचीला काम पसंद करती हैं व कार्यस्थल पर एक सुरक्षित वातावरण चाहती हैं। आम तौर पर वे पारंपरिक, कम उत्पादकता वाली नौकरियों में भीड़-भाड़ वाले स्थान होते हैं। विशेष रूप से हमारे जैसे पारंपरिक देश में महिला की स्थिति आमतौर पर अधीनस्थ की होती है।
अगर सरकार चाहती है कि महिलाएं सशक्त हों और श्रम बाजार में भी प्रवेश करें तो उन्हें पहले अवैतनिक काम में कमी के लिए काम करना होगा। यह प्रौद्योगिकी में सुधार करके सुनिश्चित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, लकड़ी का उपयोग करके पारंपरिक चूल्हों के स्थान पर खाना पकाने के लिए ईंधन कुशल स्टोव प्रदान करना, अवैतनिक कार्य को कम करने के लिए संरचनात्मक सहायता प्रदान कर घर पर पानी की आपूर्ति करना, बाल, विकलांग या वृद्धों की देखभाल जैसे अवैतनिक कार्य के एक हिस्से को मुख्यधारा के संस्थानों में स्थानांतरित करके ऐसा किया जा सकता है।
अवैतनिक कार्य का एक हिस्सा व्यवसायिक संस्थानों, जो बाल देखभाल और अन्य देखभाल के लिए शुल्क लेते हैं या नागरिक समाज संगठनों द्वारा प्रदान किया जा सकता है। ये कदम महिलाओं को काफी हद तक अवैतनिक कार्य के बोझ से मुक्त करेंगे, उन पर समय के तनाव को कम करेंगे ताकि वे नए कौशल प्राप्त कर सकें अथवा उत्पादक कार्यों में भाग ले सकें। श्रम बाजार में लैंगिक समानता लाने के लिए सरकार को महिलाओं की शिक्षा व कौशल स्तर में सुधार के लिए एक बड़ा जंप लेना होगा।
दुर्भाग्य से भारत सरकार, महिलाओं की अधीनस्थता और श्रम बाजार में महिलाओं की कम भागीदारी तथा निम्न स्थिति में अवैतनिक कार्य तथा सामाजिक मानदंडों की भूमिका को मान्यता नहीं देती है। इसने महिलाओं की वास्तविक बाधाओं को दूर करने के बारे में कोई नीति नहीं बनाई है। सरकार को यह समझना चाहिए कि कमजोर वर्गों की महिलाओं पर उनके अवैतनिक काम को कम किए बिना श्रम बाजार में अधिक काम करने का बोझ डालने से उनके सशक्तिकरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है।
जहां तक हमारे देश को विकसित भारत की ओर ले जाने की कार्यनीति का संबंध है, यदि हम इसी विकास पथ पर चलते रहेंगे तो उससे देश में समावेशी और सर्वव्यापी विकास प्राप्त करने में मदद नहीं मिलेगी। 'सबका साथ' तभी होगा जब कोई हमारी आबादी के अत्यधिक पिछड़े और हाशिए पर गए वर्गों का ध्यान रखेगा।
(लेखिका अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)