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आंकड़ों का सच-झूठ

आंकड़े सरकारी हैं इसलिए बात भरोसे से की जा सकती है

आंकड़ों का सच-झूठ
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- अरविन्द मोहन

70 फीसदी से ज्यादा घरों के चूल्हे के लिए लकड़ी, उपले या खेती से निकले डंठल या भूसे पर ही निर्भर हैं। झारखंड के 25 फीसदी से भी कम घरों का चूल्हा एलपीजी से जलता है जो देश में सबसे कम है। इसी सर्वेक्षण में यह भी उजागर हुआ कि 15 से 24 साल के 16 फीसदी पुरुष और 44 फीसदी महिलाएं न तो स्कूल-कॉलेज जाते हैं न काम करते न ही कहीं प्रशिक्षण ले रहे हैं।

आंकड़े सरकारी हैं इसलिए बात भरोसे से की जा सकती है। लेकिन इन आंकड़ों की चर्चा मीडिया में इतनी कम क्यों हुई? यह हैरान करता है। बात ग्रामीण और शहरी भारत में शुद्ध पेय जल पहुंचाने और घर-घर शौचालय वाले स्वच्छता मिशन की उपलब्धियों और नाकामियों की है। और आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के है। सर्वेक्षण के 78वें दौर के मल्टीपल इंडीकेटर सर्वे के अनुसार आज भी ग्रामीण भारत के चार में से तीन घरों तक स्वच्छ पेयजल की पाइप वाली व्यवस्था नहीं है। शहरी इलाकों की स्थिति अच्छी है लेकिन यहां भी एक तिहाई घर अभी इस सुविधा से वंचित हैं। करीब 21 फीसदी घरों तक अभी भी शौचालय की सुविधा नहीं है। बहुत बड़े आधार वाले इस सर्वेक्षण से यह भी जाहिर हुआ कि अभी भी देहाती आबादी का आधा हिस्सा अभी भी जलावन की लकड़ी से ही खाना बना रहा है। और अगर कोई चाहे तो यह भी कह सकता है कि उज्ज्वला योजना ने देश की आधी से अधिक महिलाओं को चूल्हा फूंकने से मुक्ति दिला दी है और शौचालयों की दखल अस्सी फीसदी से कुछ कम घरों तक हो चुकी है। इस मामले में सबसे खराब स्थिति झारखंड और ओडिशा की है।

लेकिन नरेंद्र मोदी के शासन के नौ वर्षों के साथ यदि हम यूपीए शासन के दस साल और उसके लोकप्रिय और कार्यकुशल मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह की तत्परता और मेहनत को देखें तो लगेगा कि अभी जो स्थिति होनी चाहिए थी वह कोसों दूर है। जाहिर है इस काम में जो संसाधन लगाना चाहिए और जो रणनीति अपनाई जानी चाहिए वह अभी भी दूर है। और शायद हम इन बातों के महत्व को अपने लोगों के मन में बैठाने में भी असफल रहे हैं। स्वच्छता मिशन का प्रचार बहुत हुआ है लेकिन उतना असर नहीं दिखता। इसकी तुलना में बैंक में खाता खोलने, मोबाइल पहुंचाने, बिजली पहुंचाने या सड़क मार्ग से देश के हर गांव को जोड़ने के मामले में शायद बेहतर उपलब्धियां हासिल हुई हैं। और पेयजल मिशन या स्वच्छता का काम अकेले इन्हीं दो सरकारों का भी नहीं है। इनका हिसाब तो बीस साल का भी नहीं है। आजाद देश का हिसाब तो पचहत्तर साल का है और अंगरेजी हुकूमत ने भी ये व्यवस्थाएं की थीं-खासकर शहरी क्षेत्रों के लिए। हम लाख दावे करें पर अभी भी अधिकांश शहरों के पेयजल और मल-निकासी की पुरानी व्यवस्थाएं ही आगे के लिए भी आधार बनी हैं। कई जगह तो मुगल दौर की या उस काल की व्यवस्थाएं आज भी काम कर रही हैं।

मजे की बात यह है कि हमारे राष्ट्रपिता की प्राथमिकता में यह चीज चंपारण आंदोलन के समय से ही दिखने लगी थी। तब भी चंपारण के कुएं, तालाबों की सफाई और उनमें पोटेशियम परमैगनेट के घोल से सफाई का कार्यक्रम जोर-शोर से चला था। तब के चंपारण में घेंघा, मलेरिया और चर्मरोग इतना ज्यादा था कि गांधी ने इस काम को तीनकठिया से मुक्ति के बाद प्राथमिकता के आधार पर किया। खास इसी के लिए डॉ. देव को बुलाया गया और महाराष्ट्र तथा कर्नाटक से स्वयंसेवक बुलाए गए थे। इतना ही नहीं, हमारे एक और बड़े जननेता डॉ. राममनोहर लोहिया तो घर में शौचालय होना और औरतों को चूल्हा फूंकने से मुक्ति दिलाए बगैर औरत की आजादी की बात करना भी गुनाह मानते थे। बहुत बाद तक समाजवादी आंदोलन के लोग बाकी समाज में काम अपने कार्यकर्ताओं के घर में शौचालय ढूंढते थे और न होने पर डांट लगाते थे। रघुवंश बाबू के समय लोहिया की इस सूक्ति की चर्चा बार-बार होती थी। और गांधी तो स्वच्छता मिशन का प्रतीक चिह्न ही बन गए हैं। आजकल भले इस प्रचार में कुछ कमी दिखती है वरना गांधी का चेहरा, चश्मा और खड़ाऊ ही मिशन का प्रतीक थे।

उस हिसाब से देखें तो अभी इस मामले में काफी काम बाकी है बल्कि अनेक राज्यों में पाइप और नल वाले पानी का हिसाब तो इस सर्वेक्षण में 'नगण्य' बताया गया है। सर्वे में घर या आंगन या फिर सार्वजनिक नल तक पाइप के सहारे पानी पहुंचने, नल-कूप से पानी, चापाकल/हैंडपंप, ढंके या छत वाले कुएं, टैंकर, बोतल या जार में बंद पानी की आपूर्ति को भी गिना गया और इस हिसाब से 95 फीसदी से ज्यादा लोग पेयजल प्राप्त कर रहे थे। बिहार में हाल के दिनों में पाइप वाले पेयजल का काफी काम हुआ है लेकिन वह इस दौर वाले सर्वे में नहीं आ पाया। पर असम, झारखंड, उत्तर प्रदेश और ओडिशा पेय जल की उपलब्धता के मामले में राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे हैं। कई जगह तो साफ पानी की उपलब्धता कराने में नब्बे फीसदी घरों तक नहीं हो पाई है। इसी तरह घर के अंदर शौचालय बनवाने के मामले में बिहार, झारखंड और ओडिशा सबसे नीचे हैं। यहां बिना शौचालय वाले ग्रामीण घरों का अनुपात तीस फीसदी से ज्यादा है। अब कई राज्यों में यह अनुपात साठ फीसदी से ऊपर भी गया है।

अभी भी छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, नागालैंड और मध्यप्रदेश के 70 फीसदी से ज्यादा घरों के चूल्हे के लिए लकड़ी, उपले या खेती से निकले डंठल या भूसे पर ही निर्भर हैं। झारखंड के 25 फीसदी से भी कम घरों का चूल्हा एलपीजी से जलता है जो देश में सबसे कम है। इसी सर्वेक्षण में यह भी उजागर हुआ कि 15 से 24 साल के 16 फीसदी पुरुष और 44 फीसदी महिलाएं न तो स्कूल-कॉलेज जाते हैं न काम करते न ही कहीं प्रशिक्षण ले रहे हैं। पुरुषों के मामले में उत्तराखंड, ओडिशा, केरल और दिल्ली का दर्जा काफी नीचे था जबकि औरतों के मामले में उत्तरप्रदेश, असम, ओडिशा, गुजरात, पश्चिम बंगाल और बिहार का नंबर नीचे था। मोबाइल फोन के मामले में लगभग आधी आबादी की पहुंच हो चुकी है और बैंकों में खाते के मामले में सफलता की दर लगभग नब्बे फीसदी तक पहुंच गई थी। अब यह सर्वे के दायरे के बाहर का सवाल है कि उनमें कितना पैसा था और कितने खाते सिर्फ सरकारी योजनाओं के रकम के डायरेक्ट ट्रांसफर के लिए खुले थे।


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