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हम सब ज़हरीली गैस से भरे गुब्बारे हो गए हैं

कबीले के सरदार ने अपने एक लड़ाके को दुश्मन कबीले के भीतर दाख़िल होकर एक आदमी को जान से मारने के लिए भेजा

हम सब ज़हरीली गैस से भरे गुब्बारे हो गए हैं
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- वर्षा भम्भाणी मिर्जा़

मानव मन भाई-चारे के साथ जीना चाहता है लेकिन स्वार्थी ताकतें हर युग में उसे या उसके समूह को बस में करना चाहती हैं- कभी ताकत से तो कभी सम्मोहन से। देश में भी अब ऐसी ताक़तें अब और ज़्यादा ताकतवर हो गई हैं जो सीधे सरल इंसान को पहले उन्मादी बना रही है और फिर भीड़ बनकर हमलावर। इंसानों को गुब्बारा बनाकर उनमें ज़हरीली गैस भरी जा रही है।

कबीले के सरदार ने अपने एक लड़ाके को दुश्मन कबीले के भीतर दाख़िल होकर एक आदमी को जान से मारने के लिए भेजा। उसे बताया गया था कि उस आदमी के पास हमारे कबीले को तबाह करने की ताकत है और जो उसे मार दिया तो हम हर खतरे से मुक्त हो जाएंगे। उसे बताया गया कि उस कबीले में हमारा एक आदमी पहले से ख़ुफ़िया ढंग से मौजूद है जो वहां पहुंचते ही कैसे और किसे मारना है, इसकी योजना समझा देगा। अपने कबीले को बचाने का जोशीला भाषण सुन लड़ाका तुरंत तैयार हो गया और चल पड़ा अपना भाला और तीर-धनुष लेकर। रास्ते में घना जंगल था। अंधेरा होने पर वह सतर्क था लेकिन एक जंगली जानवर ने उस पर हमला कर दिया।

होश आया तो वह एक मचान पर दो लोगों से घिरा हुआ था। उनमें से एक युवा था और दूसरा कुछ उम्रदराज़। पास में कुछ खाना और पानी रखा हुआ था। लड़ाके को होश में आया देख दोनों के चेहरे पर ख़ुशी और तसल्ली का भाव था। उम्र में बड़े व्यक्ति ने फख़्र से अपनी जड़ी-बूटी की ओर इशारा करते हुए बताया कि तुम पर तो एक बाघ ने हमला कर दिया था, वो तो सही समय पर तुम्हें इसने देख लिया वरना तुम्हारा बचना नामुमकिन था। लड़ाके की आंखों में विनम्रता और धन्यवाद का भाव था। दोनों ने मिलकर लड़ाके के साथ भोजन किया और शिकार से जुड़े अपने कई अनुभव भी साझा किये। अगले दिन सुबह लड़ाका विदा हुआ तो उसे लगा जैसे किसी मित्र से जुदा हो रहा है।

अनुभवी व्यक्ति से उसने हाथ जोड़कर विदा ली, मानों जान बचाने का आभार व्यक्त कर रहा हो। जिस उद्वेलित मन से वह घर से चला था अब वह कमोबेश शांत और खुश था। दो दिन के सफर के बाद वह उस कबीले के अड्डे पर पहुंचा। पहुंचते ही उसके ख़ुफ़िया साथी ने जिस आदमी को उसे मारना था उसका चेहरा दिखाया। वह हैरान रह गया क्योंकि वह जंगल में उसकी जान बचाने वाला वही उम्रदराज़ व्यक्ति था। लड़ाके के हाथ जैसे भारी हो गए थे। भाला उठता ही न था और अचानक से उसने फ़ैसला लिया। चाहे कुछ भी हो जाए वह उन पर हाथ नहीं उठाएगा। आख़िर क्यों मारना चाहिए मुझे इन्हें? ये भी मेरे जैसे हैं, मेरी ही तरह जीवन की चुनौतियों को जी रहे हैं। मैं इन्हें नहीं मार सकता।

इस छोटी सी कहानी को यहां लिखने का मकसद केवल इतना है कि मानव मन भाई-चारे के साथ जीना चाहता है लेकिन स्वार्थी ताकतें हर युग में उसे या उसके समूह को बस में करना चाहती हैं- कभी ताकत से तो कभी सम्मोहन से। देश में भी अब ऐसी ताक़तें अब और ज़्यादा ताकतवर हो गई हैं जो सीधे सरल इंसान को पहले उन्मादी बना रही है और फिर भीड़ बनकर हमलावर। इंसानों को गुब्बारा बनाकर उनमें ज़हरीली गैस भरी जा रही है और उनके जरिये अनजान लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा है। सड़कों पर लोगों के वाहन फूंके जा रहे हैं। उनकी अलग पहचान स्थापित की जा रही है ताकि दूरियां बन सके। समूचा प्रचारतंत्र इस काम में झोंक दिया गया है। उसके बाद एक संविधान से चलने वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में घृणित अपराधों को अंजाम देने वालों को कवच भी दिया जाता है। हमने सुना था कि पहले दंगा भड़काने के लिए मंदिरों के सामने गाय और मस्जिद के सामने सूअर काटकर फेंक दिए जाते थे। बलवा करवाने वालों का काम हो जाता था।

हाल ही में अनुभव सिन्हा ने 'अफ़वाह'नाम की बढ़िया फिल्म बनाई है। भीड़ जिस ट्रक को गौमाता का समझकर पीछा करती है उसमें से गधे बाहर आते हैं। इस नए ज़माने में अब खुद को गौरक्षक बताने वाला वीडियो भेजकर चुनौती देता है, उकसाता है और फिर ब्रज अंचल से लगे हरियाणा के नूंह में भड़की हिंसा कई लोगों की जान ले लेती है। व्यवस्था इन दंगों को किसी साज़िश का नतीजा बताकर मुंह पर चादर लपेट कर सो जाती है। ये दंगाई कई सालों से कभी लोगों के फ्रिज में गौमांस ढूंढते हैं तो कभी जानवरों से भरी गाड़ियों को कसाईखाने ले जाई जा रही बताकर भीड़ द्वारा हमला करा देते हैं।

चालक को मार देते हैं और जहरीली गैस से भरे गुब्बारे इक_ा कर फ़साद करा दिए जाते हैं। ये गुब्बारे 2017 से ट्रेन में भी चढ़ रहे हैं। तब 17 साल के एक बच्चे को ट्रेन में सीट साझा करने के विवाद में मार दिया गया था। अब ये गुब्बारे वर्दी में भी होते हैं। ये यात्रियों की रक्षा के लिए दी गई बन्दूक का इस्तेमाल उन्हें ही मौत के घाट उतारने में कर रहे हैं। देशवासियों में ऐसा डर बैठ गया है कि वे अब यात्रा से डरने लगे हैं। बेरोज़गारी और बेहिसाब मंहगाई से जूझते इंसान बड़ी आसानी से ऐसे गुब्बारों में तब्दील हो रहे हैं। भारत के एक फीसदी अमीरों के पास देश की चालीस फ़ीसदी समृद्धि पर कब्ज़ा हो और पचास प्रतिशत के पास केवल तीन फ़ीसदी संसाधन हो तो इस अभाव में ज़हर भरना कौन सा मुश्किल काम है?

तब क्या कोई उम्मीद नहीं है? मणिपुर, नूंह और ट्रेन में हत्याएं होती रहेंगी और महावीर, बुद्ध और गांधी का यह देश इसी तरह खून से सना रहेगा? कभी अंग्रेज़ों के आगे अपने बलिदान का लहू बहाने वाले देश में अब बेवजह बेगुनाहों का खून बहता रहेगा? क्या हुक्मरान इस खून को अपने वोटों की फसल के लिए खाद की तरह देख रहे हैं?

अगर नहीं तो खुलेआम नरसंहार की बात करने वाले क्यों अब तक आज़ाद घूम रहे हैं? क्यों धार्मिक जुलूसों को वही रास्ता चुनना है जहां दंगा भड़क सकता है और क्यों पुलिस उन्हें यह अनुमति भी देती है? उम्मीद की किरण उत्तर प्रदेश के बरेली से आती दिखाई देती है जहां के पुलिस कमिश्नर प्रभाकर चौधरी ने कावंड़ियों की उस ज़िद को नहीं माना जिसमें वे अपना निर्धारित रास्ता बदलना चाहते थे। नतीजतन चंद घंटों में प्रभाकर का तबादला कर दिया गया। 2010 बैच के इन आईपीएस अधिकारी के अब तक 21 बार तबादले हो चुके हैं। अधिकारी जिसकी वजह से बवाल होने से बच गया उसे सम्मान की जगह ट्रांसफर मिलता है। अधिकारी के पिता का साफ़ कहना है कि उनका बेटा बेहद ईमानदार ऑफिसर है और नेताओं से ज़रूरी दूरी बनाए रखता है। इसी का नतीजा है कि बार-बार उसका तबादला कर दिया जाता है। उम्मीद से भरी टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट की है जब मणिपुर की हिंसा को लेकर न्यायाधीश ने पूछा कि कितने लोग ग़िरफ़्तार हुए, कितनी एफआईआर दज़र् हुई और क्या दो महीने हालत ऐसे थे कि कानून-व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने वह किया है जो सरकार या फिर केंद्र सरकार को करना चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के डीजीपी को जानकारी देने के लिए हाज़िर होने के लिए कहा है। यदि कोर्ट द्वारा जनता के लिए अधिकारी को यूं तलब करना पड़े, तो यह वही परिस्थिति है कि कार्यपालिका अपने कर्तव्य में नाकाम रही है।

एक बात और है। जो पक्ष-विपक्ष की बहस में उलझेंगे तो नुकसान और ज़्यादा होगा। अभी नूंह से गरीब मजदूरों का पलायन हो रहा है। बाद में पूरे देश से होगा। उद्योग चौपट होंगे। आग में सबसे पहले घर बचाना ज़रूरी है। ये नेता लोग सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए कभी भी किसी भी छतरी के नीचे चले आते हैं और आप इनके लिए लड़ने मरने को तैयार रहते हैं। आचार्य विनोबा भावे ने कहा है-'चार बातें ध्यान में रखने लायक हैं: आज का नारा- जय जगत, हमेशा का नारा- जय जगत, हमारा नारा- जय जगत,सबका नारा- जय जगत। आज का, कल का, परसों का नारा यही है। इसी से उद्धार होने वाला है। ऐसा तभी होगा जब सोच में एकरूपता आएगी अन्यथा अनेक कारणों दरारें पड़ेंगी, धर्मभेद, जातिभेद, पंथभेद, भाषाभेद, ऐसे टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। समाज की गाड़ी यहीं रुकी हुई है। सब एक दूसरे का हित देखें। इसी में सबका कल्याण है।
(लेखिका स्वतन्त्र पत्रकार हैं)


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