5 सूबों की सरकारें बनने-बिगड़ने से बढ़कर हैं ये चुनाव
जिन पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों का ऐलान सोमवार को मुख्य निर्वाचन आयोग ने देश की राजधानी में किया

- डॉ. दीपक पाचपोर
इन राज्यों के नतीजे जो भी हों, अगर वे यहीं तक सीमित होकर रह जाते तो सम्भवत: भाजपा की परेशानी इतनी बड़ी न होती। मुश्किल यह है कि लोकसभा के चुनाव बामुश्किल 6 माह के भीतर ही हो जायेंगे। यानी इन परिणामों की प्रतिध्वनि वहां तक गूंजती रहेगी। इन नतीजों का ही असर और विमर्श बेशक आगे बढ़ेगा। लोकसभा का अगले साल होने वाला चुनाव सम्भवत: इन्हीं मुद्दों के ईर्द-गिर्द लड़ा जायेगा।
जिन पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों का ऐलान सोमवार को मुख्य निर्वाचन आयोग ने देश की राजधानी में किया, उसका महत्व केवल राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में सरकारों के बनने-बिगड़ने तक सीमित न रहकर उससे कहीं बहुत आगे का है। इन चुनावों में केवल यह देखने को नहीं रह गया है कि क्या राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपनी सरकारें बचाए रखने में कामयाब होती है या उन पर भारतीय जनता पार्टी काबिज होती है? यह भी देखने की बात नहीं है कि क्या मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार का विसर्जन होता है या वहां कांग्रेस का कब्जा होता है? तेलंगाना का चुनाव भी दिलचस्प होगा परन्तु उसे लेकर केवल इतनी सी उत्सुकता नहीं है कि क्या वहां क्षेत्रीय दल भारत राष्ट्रीय समिति (बीआरएस) दो-दो राष्ट्रीय पार्टियों से अपनी सरकार को बचा पाती है या नहीं? अगर ऐसा नहीं होता तो देखना यह भी होगा कि इस दक्षिण भारतीय राज्य में कांग्रेस की सरकार बनती है या भाजपा जीत सकेगी? उत्तर पूर्व के एक छोटे से राज्य मिजोरम में भी इसी समय चुनाव हो रहा है। वहां भी देखना होगा कि सत्तारुढ़ मिजोरम नेशनल फ्रंट की सरकार में वापसी होती है या नहीं? या फिर कोई नये समीकरण बनते हैं।
ये चुनाव ऐसे समय पर हो रहे हैं जब देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी अनेक तरह की परेशानियों से गुजर रही है और उसे चुनौती देने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी यानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसका देश के स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे अहम योगदान था और उसे ही भारत को आजाद कराने का श्रेय दिया जाता है, लगातार मजबूत हो रही है। वह न सिर्फ खुद में ताकतवर हो रही है वरन अपने साथ समग्र प्रतिपक्ष को भी सशक्त कर रही है। उसके साथ और उसी के नेतृत्व में पिछले दिनों बने 28 दलों के विपक्षी गठबन्धन 'इंडिया' (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूज़िव एलाएंस) ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा के समक्ष चुनौती के साथ-साथ ऐसा विकल्प भी पेश कर दिया है जो भरोसेमंद हो सकता है।
तीन-चार मानकों पर देखें तो भाजपा और कांग्रेस के बीच का अंतर साफ दिखता है जो इन चुनावों में सारा फर्क पैदा करने जा रहा है। पहला तो है दोनों दलों के प्रमुख नेताओं की छवि का मामला। भाजपा कुल जमा एक ही चेहरे पर पिछले 10 वर्षों से सब कुछ कर रही है-पार्टी चलाने से लेकर सरकार चलाने तक। 2013-14 में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के तत्काल बाद से ही सम्पूर्ण भाजपा मोदी में विलीन हो चुकी है। भाजपा के पहले कार्यकाल में तो फिर भी भाजपा के कुछ अन्य वरिष्ठ नेता चलते-फिरते दिखाई पड़ते थे, लेकिन अपनी छवि को वास्तविकता से बढ़कर मजबूत व लोकप्रिय बनाने के चक्कर में भाजपा के प्रचार तंत्र ने बाकी सभी नेताओं, पदाधिकारियों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों का अस्तित्व ही मिटाकर रख दिया। अब भाजपा इस कदर मोदी पर आश्रित हो गई है कि उनकी स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता पर ही पूरे चुनावी नतीजे टिके रहते हैं। भाजपा द्वारा खुद को मोदी केन्द्रित कर देने का अंजाम उसके सामने है। जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, वहां मोदी के अलावा कोई दूसरा चेहरा नहीं है और जाहिर है कि स्थानीय चेहरा न होने से राज्य इकाइयों को चुनाव लड़ने में दिक्कत आ रही है। राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में उसके पूर्व मुख्यमंत्री क्रमश: वसुंधरा राजे सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान तथा डॉ. रमन सिंह तीनों ही हाशिये पर हैं और इन राज्यों के चुनाव उनके चेहरों पर तो नहीं ही लड़े जा रहे हैं- किसी और चेहरे को शीर्ष कमान की न तो मान्यता है और न ही जन स्वीकार्यता।
दूसरे, हाल के वर्षों में मोदी की छवि में बड़ी गिरावट दर्ज हुई है, खासकर उनकी विभिन्न योजनाओं की असफलताएं, कोरोना कुप्रबंधन, अदानी के साथ उनके रिश्तों का उजागर होना, भ्रष्टाचारियों को संरक्षण, अनैतिक तरीकों से विपक्षी सरकारें गिराना, केन्द्रीय जांच एजेंसियों का गलत इस्तेमाल, संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करना, आर्थिक बदहाली व बढ़ती गैरबराबरी, विफल विदेश नीति, बढ़ती साम्प्रदायिकता, मणिपुर, नूंह जैसी घटनाएं, सरकार विरोधियों को जेलों में डालने जैसे कदमों ने उन्हें एक निरंकुश व क्रूर शासक के रूप में स्थापित किया है। इसके विपरीत उन्हें टक्कर देने वाले राहुल गांधी की छवि में बड़ा सुधार आया है। करोड़ों रुपये खर्च कर भाजपा व उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं, आईटी सेल व सोशल मीडिया पर सक्रिय ट्रोल आर्मी ने राहुल, गांधी परिवार, कांग्रेस तथा सम्पूर्ण विपक्ष के खिलाफ जो कलुषित अभियान छेड़ा था, वह अब ध्वस्त हो गया है। राहुल द्वारा पिछले सितम्बर में कन्याकुमारी से कश्मीर की जो भारत जोड़ो यात्रा निकाली, उसने उन्हें एक संजीदा, समझदार एवं परिश्रमी नेता के रूप में स्थापित किया है जो चीजों को समझते हैं और समाधान जानते हैं। उनकी बातों को लोगों ने सच होता हुआ पाया है।
तीसरा बड़ा अंतर जो लोग देख रहे हैं वह है भाजपा के पास मुद्दों की टंचाई। उसका सामाजिक धु्रवीकरण का फार्मूला कर्नाटक चुनाव में असफल हो गया और अब उसका कोई लेवाल नहीं है। साम्प्रदायिकता से होने वाले नुकसान का आभास जनता को हो चुका है इसलिये उसके विपरीत कांग्रेस एवं विपक्षी गठबन्धन द्वारा उठाये जा रहे जमीनी मुद्दे लोगों को अधिक आकर्षित करने लग गये हैं। उसके द्वारा उठाया गया जातिगत जनगणना और पिछड़े व अति पिछड़े लोगों के लिये आरक्षण का मुद्दा भाजपा को बेचैन कर रहा है। सोमवार को सम्पन्न कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक में हुई इस घोषणा का भाजपा के पास कोई जवाब नहीं है, जिसमें उसने कहा है कि अगर इन राज्यों के चुनाव वह जीतती है तो जातिगत जनगणना कराई जायेगी तथा जिसकी जितनी आबादी है उसकी उतनी हिस्सेदारी होगी। भाजपा इसके खिलाफ बोल पाने में भी असमर्थ है क्योंकि इसका अगर वह विरोध करेगी तो एक बड़ा वोट बैंक उससे छिटक सकता है।
इन राज्यों के नतीजे जो भी हों, अगर वे यहीं तक सीमित होकर रह जाते तो सम्भवत: भाजपा की परेशानी इतनी बड़ी न होती। मुश्किल यह है कि लोकसभा के चुनाव बामुश्किल 6 माह के भीतर ही हो जायेंगे। यानी इन परिणामों की प्रतिध्वनि वहां तक गूंजती रहेगी। इन नतीजों का ही असर और विमर्श बेशक आगे बढ़ेगा।
लोकसभा का अगले साल होने वाला चुनाव सम्भवत: इन्हीं मुद्दों के ईर्द-गिर्द लड़ा जायेगा। भाजपा के पास ध्रुवीकरण के अलावा कोई मुद्दा ही नहीं है और लोग इस बात का पहले से ही अनुमान लगाए बैठे हैं कि मोदी एवं भाजपा कोई ऐसा मसला ज़रूर खड़ा करेंगे जिससे उनकी नैया पार लग सके। जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक तो कह ही चुके हैं कि- 'मोदी चुनाव जीतने के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। वे 2024 के चुनाव के पहले पुलवामा जैसा कांड या राममंदिर पर हमला भी करा सकते हैं।' दूसरी ओर कांग्रेस व इंडिया अब बेहद सतर्क हैं और धार्मिक या भावनात्मक मुद्दों की भाजपायी पिच पर उतरने के लिये तैयार ही नहीं है। अब तो परिस्थिति इस कदर विपरीत है कि कांग्रेस-इंडिया के उठाये मुद्दों पर भाजपा बोलने पर भी फंस रही है और मौन रहे तो और भी फंसती जाती है। ये चुनाव केवल पांच सरकारें बनाएंगे या गिराएंगे नहीं, वरन लोकसभा-2024 का रास्ता और विमर्श दोनों का ही निर्धारण करेंगे।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


