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भीतर जांच से और बाहर नारों की आंच से डर रही सरकार

देश की जनता का वह हिस्सा जो मानता है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है तो लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई, लेकिन उसके कामकाज का तरीका अलोकतांत्रिक है

भीतर जांच से और बाहर नारों की आंच से डर रही सरकार
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- वर्षा भम्भाणी मिर्जा़

संभव है कि एकता के प्रयास अभी बढ़ेंगे। शायद कांग्रेस ममता, अखिलेश, केजरीवाल और केसीआर के साथ बातचीत करेगी। क्या वाक़ई विपक्षी दल यह समझ रहे हैं कि अलग-अलग लड़ने की रणनीति उन्हें 2024 में सफलता का सूरज दिखाएगी? नरेंद्र मोदी की भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्ष इस रूप में कारगर साबित होगा? बेहतर होता कि मज़बूत भाजपा के सामने कांग्रेस के साथ मज़बूत विपक्ष सामने होता।

देश की जनता का वह हिस्सा जो मानता है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है तो लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई, लेकिन उसके कामकाज का तरीका अलोकतांत्रिक है। यह ऐसी सरकार है जिसे अपने ख़िलाफ़ एक पोस्टर, बयान, ट्वीट और गीत तो क्या, मसखरों का मज़ाक भी मंज़ूर नहीं है। इस सबके बाद वह चाहने लगता है कि कुछ ऐसा हो जो इस सरकार को सबक सीखा दे। ऐसी ही आस उसे विपक्ष से भी है। उसे यह भी लगता है कि तुरंत-फुरत विपक्ष को एक हो जाना चाहिए और 1977 और फिर 1989 की तरह सरकार को उखाड़ फैंकना चाहिए। उसे लगता है कि ये सभी क्षेत्रीय दल जो सरकार की जांच एजेंसियों द्वारा लगातार सताए जा रहे हैं, कांग्रेस को क्यों आंखें दिखा रहे हैं? ये क्यों नहीं कांग्रेस की छतरी के नीचे आ जाते जो सीना ठोंक कर न केवल संसद में खड़ी है बल्कि दरकते लोकतंत्र को बचाने के लिए 'भारत जोड़ो यात्रा' भी कर चुकी है। इसलिए जनता का यह हिस्सा बहुत निराश भी है कि आख़िर विपक्ष एक क्यों नहीं हो रहा? वह क्यों सत्ता के जाल में फंस रहा है, जबकि उसे तो उन चिड़ियों की तरह उस जाल को लेकर ही उड़ जाना चाहिए जिसमें शिकारी ने उन्हें फांस रखा है।

अब तक सब ठीक ही चल रहा था लेकिन यकायक तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ममता बैनर्जी और अखिलेश यादव की कोलकाता में बैठक और फिर अखिलेश की घोषणा ने विपक्षी एकता की जैसे पूरी ठसक ही निकाल दी। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव का यह कहना कि 'हम भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाकर चलेंगे और भाजपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी ममता बैनर्जी के नेतृत्व में ढृढ़ता से खड़ी है।' ममता बैनर्जी के भतीजे अभिषेक बैनर्जी तो पहले ही घोषणा कर चुके थे कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी को दिया गया वोट भाजपा को दिए जाने के बराबर होगा। ज़ाहिर है कि ये दोनों ही पार्टियां भाजपा के ख़िलाफ़ तो हैं ही, कांग्रेस से भी दूरी बनाए रखना चाहती हैं। ममता तो अखिलेश को समर्थन देने के लिए उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में प्रचार के लिए भी गईं थीं। इस बार अखिलेश कोलकाता गए हैं।

लोकसभा में 80 सीटें उत्तर प्रदेश और 42 सीटें पश्चिम बंगाल से आती हैं। पिछली लोकसभा में तृणमूल ने 22 सीटें जीती थीं। भाजपा को 18 और कांग्रेस को केवल दो सीटें मिली थीं। पिछले लोकसभा चुनावों में सपा को केवल तीन सीटें मिली थीं। जो नए संकेत हैं, वे बता रहे हैं कि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के साथ मिलकर वे सीटों का बंटवारा नहीं करेंगे। कांग्रेस चाहे तो सोच ले अन्यथा वे कई सीटों पर चतुष्कोणीय मुकाबले में उलझने के लिए भी तैयार हैं क्योंकि ये दोनों प्रदेश राजस्थान, मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ की तरह दो पार्टी वाले नहीं हैं। अब इस उलझे हुए गणित में भी कोई विपक्ष की मज़बूती देख रहा है, तो उसे क्या कहा जाए?

देश की राजनीति को गहराई से समझने वाले जब कहें कि ममता और अखिलेश क्या कर रहे हैं इस पर कतई ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। सबकी अपनी-अपनी मजबूरियां हैं। सबको अलग-अलग लड़ने और जीतने दीजिये! ज़रूरी तो नहीं कि सभी विपक्षी दलों में एकता हो जाए। सभी दलों की प्राथमिकता इस समय भाजपा को कमज़ोर करने की है। विपक्षी दल इस बात को समझ रहे हैं कि मौजूदा संकट से बाहर निकलने का यही अंतिम मौका है। कांग्रेस यूं भी उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में अच्छी स्थिति में नहीं है। चिंता इसलिए भी नहीं करनी चाहिए कि केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ टीएमसी की महुआ मोइत्रा और समाजवादी पार्टी के सांसद रामगोपाल यादव बहुत तीखे तेवर रखते हैं। यादव तो साफ़ कह चुके हैं कि लोकसभा चुनाव से पहले तक ऐसा कोई विपक्ष का नेता नहीं बचेगा जिसके विरुद्ध ईडी और आईटी की जांच नहीं की जा रही होगी। महुआ के तीख़े नश्तर तो सीधे सरकार को हमेशा गहरे तक लगते हैं। कांग्रेस इन दोनों पार्टियों के रवैये को पचा नहीं पा रही है। कांग्रेस के एक नेता यह भी कह देते हैं कि अगर उन्हें पार्टी के नेतृत्व से भी दिक्कत है तो वह भी कहना चाहिए लेकिन कहें तो; और फिर इस बात पर भी विचार करें कि क्या उनके पास कोई नेता इस क़द के हैं? कांग्रेस के पास तो कई-कई नेता हैं और अब तो अध्यक्ष पद पर मल्लिकार्जुन खड़गे हैं।

बहरहाल संभव है कि एकता के प्रयास अभी बढ़ेंगे। शायद कांग्रेस ममता, अखिलेश, केजरीवाल और केसीआर के साथ बातचीत करेगी। क्या वाक़ई विपक्षी दल यह समझ रहे हैं कि अलग-अलग लड़ने की रणनीति उन्हें 2024 में सफलता का सूरज दिखाएगी? नरेंद्र मोदी की भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्ष इस रूप में कारगर साबित होगा? बेहतर होता कि मज़बूत भाजपा के सामने कांग्रेस के साथ मज़बूत विपक्ष सामने होता। तर्क हो सकता है कि 1977 में जब इंदिरा गांधी चुनाव हारी थीं तब भी विपक्ष पहले से एकजुट नहीं था और न ही 1989 में एक था। सब चुनाव जीतने के बाद एक हुए। सवाल फिर मतदाता के उसी मानस से जुड़ा है कि 77 की तरह क्या जनता का बड़ा हिस्सा सरकार को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता है? महंगाई, बेरोज़गारी, बात-बात पर लोगों को गिरफ़्तार करने की नीति और नफ़रत की सियासत उसे सत्ता परिवर्तन के लिए उकसा रही है?

पक्ष, विपक्ष और जनता किसी भी लोकतंत्र में यही बुनियादी सामंजस्य बनाते हैं। पिछले लगभग एक पखवाड़े से सत्ता का संसद और संसद के बाहर दोनों ही जगह यकीन डिगा हुआ नज़र आया है। संसद में सरकार के चार मंत्री राहुल गांधी पर विदेश में बयानबाज़ी को लेकर तीखा हमला करते हैं, फिर भी उन्हें बोलने नहीं देते। विपक्ष को अपनी बात कहने के लिए संसद की ऊपरी मंज़िल पर चढ़ना पड़ता है, जो इससे पहले कभी नहीं हुआ था। संसद के बजट का दूसरा सत्र सरकार के संसद न चलने के लिए दर्ज हो गया है। संसद को म्यूट कर दिया गया। चुने हुए नुमाइंदों की आवाज़ें दबा दी गईं। यह हताशा भी सरकार में पहली बार नज़र आई। क्या इसकी वजह कारोबारी गौतम अडानी है? आखिर क्यों सरकार अडानी मामले में अपनी साख को लगातार दांव पर लगा रही है। संयुक्त संसदीय समिति का गठन इससे पहले हर्षद मेहता, केतन पारीख के घोटालों में भी हुआ है। हर्षद के समय 1991 में जब कांग्रेस की सरकार थी और केतन पारीख के समय 2001 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। मेहता और पारीख पर जेपीसी हो सकती है तो फिर अडानी पर क्यों नहीं? भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि खुद मंत्रियों ने बजट सत्र को हंगामे की भेट चढ़ाया हो।

सरकार का भरोसा संसद के बाहर भी डिगा हुआ मालूम होता है। कुछ दिन पहले कानून मंत्री किरण रिजिजू ने सेवानिवृत्त जजों को 'एंटी इंडिया गैंग' का हिस्सा बता दिया। उन्होंने कहा 'कुछ रिटायर्ड जज ऐसे हैं जो एंटी इंडिया गैंग का हिस्सा हैं। ये लोग चाहते हैं कि भारतीय न्यायपालिका विपक्षी दल की तरह काम करे। कुछ लोग तो कोर्ट में जाकर यह तक कहते हैं कि सरकार की नीतियों को बदला जाए। वह सरकार पर रेड करने की मांग करते हैं।' कानून मंत्री का यह बयान बताता है कि सरकार अपने से असहमत लोगों को केवल एक ही चश्मे से देखती है- देशद्रोही का चश्मा। कानून मंत्री की निगाह में जज, विपक्षी दल आदि सब देशद्रोही हैं। 'मोदी हटाओ, देश बचाओ' का पोस्टर लगाने वाले भी जेल जाएं तो ट्वीट करने वाले भी।

कन्नड़ अभिनेता चेतन कुमार को हिंदुत्व पर उनके ट्वीट के लिए ग़िरफ़्तार कर लिया गया तो दिल्ली के इस पोस्टर मामले में 138 एफआईआर कर दी गईं। 'इंदिरा हटाओ देश बचाओ' का नारा जयप्रकाश ने दिया था और उससे पहले 'वाह रे नेहरू तेरी मौज, घर पर हमला बाहर फौज' का नारा खुद जनसंघ ने 1962 में दिया था। वह दौर था जब तीसरे लोकसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी थी और देश चीन के हमले के खतरों से जूझ रहा था और दूसरी ओर भारत के सैनिक संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति सेना में शामिल थे। हालांकि इस नारे का कुछ खास असर नहीं हुआ और जनसंघ नारे वाली सीट हार गया था। नेहरू जैसा भरोसा वर्तमान सरकार को भी होना चाहिए। इस कदर घबराहट तो तभी होती है जब हमेशा चुनाव जीतते रहने की मंशा हो लेकिन हार का डर भी सताने लगा हो।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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