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दुर्घटना के बाद शर्मनाक रवैया

2 जून को ओडिशा के बालासोर में हुई रेल दुर्घटना भारतीय रेलवे के इतिहास की भीषणतम दुर्घटनाओं में से एक है

दुर्घटना के बाद शर्मनाक रवैया
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2 जून को ओडिशा के बालासोर में हुई रेल दुर्घटना भारतीय रेलवे के इतिहास की भीषणतम दुर्घटनाओं में से एक है। अलग-अलग मार्ग से आ रही तीन ट्रेनों का एक-दूसरे से टकराना, माचिस की डिबियों की तरह रेल के डिब्बों का गिरना, लुढ़कना, पलटना कोई मामूली बात नहीं है। तकनीकी विकास के साथ दुर्घटनाओं की आशंकाएं क्षीण होनी चाहिए। आम जनता के लिए यातायात का यह सर्वसुलभ साधन पूरी तरह सुरक्षित भी होना चाहिए।

लेकिन अमृतकाल वाले भारत में ऐसा नहीं है। क्योंकि तकनीकों के होते हुए भी उन पर खर्च करने की जगह सरकारी विज्ञापनों में सरकार के प्रचार में खर्च किया जा रहा है। सरकार यह समझ गई है कि इस देश की जनता इसी बात पर खुश है कि प्रधानमंत्री ट्रेन को हरी झंडी दिखाने की काबिलियत रखते हैं, फिर ट्रेन के सफर को उच्च स्तरीय और सुरक्षित बनाने की क्या जरूरत। कभी कोई बड़ी दुर्घटना हो जाए, तो उसमें भी राष्ट्रवाद के तत्व मिलाकर सरकार के लिए कवच कैसे बनाया जाए, यह भी सरकार का प्रचार तंत्र अच्छे से जानता है। इस वक्त देश में यही हो रहा है।

बालासोर की दुर्घटना न भगवान की मर्जी थी, न प्राकृतिक हादसा थी, बल्कि यह विशुद्ध तौर पर मानवीय लापरवाही थी और इसकी सारी जवाबदेही सरकार की ही बनती है। गुजरात में जब मोरबी पुल टूटा, तब भी उसमें मानवीय लापरवाही ही सामने आई, लेकिन उस दुर्घटना पर भी लीपापोती कर दी गई। भाजपा उस दुर्घटना के बाद भी चुनाव जीत गई, तो फिर दोषियों को सजा और पीड़ितों को इंसाफ की उम्मीदें और मद्धम हो गईं। अब ओडिशा मामले में भी यही कहा जा रहा है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। मगर अभी जिस तरह का रवैया सरकार, भाजपा नेताओं, पिठ्टू मीडिया और भाजपा के प्रचार तंत्र का है, उसे देखकर नाउम्मीदी बढ़ती जा रही है और ऐसा लग नहीं रहा कि दोषियों को दंडित करने का कोई इरादा असल में है।

2 जून की रेल दुर्घटना के फौरन बाद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव से इस्तीफे की मांग विपक्ष की ओर से की जाने लगी। किसी भी हादसे या चूक के बाद ऐसी मांग स्वाभाविक है। हमेशा से भारत में ऐसा ही होता आया है। सरकारें या तो जिम्मेदार मंत्री का विभाग बदल देती हैं या उन्हें पद से हटने का इशारा कर देती हैं और अगर ऐसा नहीं हुआ तो कम से कम चुप्पी साध कर हालात संभालने में लग जाती हैं। लेकिन बालासोर प्रकरण में विपक्ष की इस्तीफे की मांग को अपराध की तरह खबरों में पेश किया जाने लगा। ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद आदि के काल में हुई रेल दुर्घटनाओं और हताहतों की गिनती के साथ ये कहा जाने लगा कि इन्होंने इस्तीफे नहीं दिए तो अब ये किस मुंह से इस्तीफे मांग रहे हैं।

हालांकि इसमें भी उंगलियां फिर से भाजपा शासन पर ही उठ गईं, क्योंकि ममता बनर्जी और नीतीश कुमार एनडीए शासन में ही रेल मंत्री थे। केवल लालू प्रसाद यूपीए सरकार में रेल मंत्री थे। वैसे भी विपक्ष के जो नेता संसद में चुनकर आए हैं, वे भी जनप्रतिनिधि ही हैं और उन्हें हक है कि वे जनता की ओर से आवाज उठाएं। विपक्ष में होने का ये मतलब कतई नहीं है कि वे सत्तारुढ़ दल के बहुमत के आगे चुप लगाकर बैठ जाएं। बहरहाल, अश्विनी वैष्णव ने इस्तीफा तो नहीं दिया, बल्कि दुर्घटना स्थल पर किस तरह वे डटे रहकर राहत और मरम्मत का काम करवा रहे हैं, दिन-रात कितनी मेहनत कर रहे हैं, इसकी तस्वीरें और खबरें थोक में आने लगीं। खुद को पत्रकार कहने वालों ने यह सवाल करना जरूरी नहीं समझा कि पहले इतनी मेहनत और जिम्मेदारी का व्यवहार क्यों नहीं दिखाया गया।

क्यों रेलवे की सुरक्षा मद में कटौती की गई, क्यों उन चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया, जिनमें दुर्घटनाओं की आशंकाएं जतलाई जा रही थीं। अश्विनी वैष्णव भी प्रचार और दृश्य में नाटकीयता का महत्व बखूबी पहचानते हैं। इसलिए हादसे के 51 घंटे बाद जब क्षतिग्रस्त मार्ग को सुधारकर वहां से पहली ट्रेन गुजारी गई, तो रेल मंत्री ने हाथ जोड़े, मीडिया और रेलवे अधिकारियों की मौजूदगी में भारत माता की जय और वंदेमातरम के नारे लगाए। क्या मातम के इस मौके पर जयकारे लगाना सही है। क्या जो लोग मारे गए, वे भारत माता की संतान नहीं थे। क्या किसी भी मां को अपने बच्चे की मौत के बाद अपनी जय-जयकार सुनकर अच्छा लग सकता है। हिंदू संस्कृति में तो मौत के बाद 13 दिन शोक का होता है। क्या मोदी सरकार इस संस्कृति को भी नहीं मानेगी।

सरकार के ऐसे काम पीड़ितों के जख्म पर नमक की बोरी उंड़ेलने जैसे हैं। हादसे के बाद मृतकों की सही संख्या का पता नहीं लग पाया है। कितने लोग अब भी लापता हैं। दुर्घटनास्थल से लाशों को कचरे की तरह उठाकर ट्रकों में लादने के वीडियो सामने आए हैं। लेकिन सरकार ऐसे वक्त में भी अपनी छवि निखारने के मौके ढूंढ रही है। आपदा में अवसर तलाशने के इस काम में मीडिया और भाजपा का प्रचार तंत्र पूरा सहयोग कर रहा है। प्रधानमंत्री भी दुर्घटना स्थल पहुंचे तो मीडिया बता रहा है कि वे कितनी कड़ी धूप में वहां गए हैं। ये है पिठ्टू मीडिया का जनसरोकार, जिसे जिंदा इंसानों को अकाल लाश बना दिए जाने का कोई अफसोस नहीं है, उसे सैकड़ों घरों के उजड़ने की कोई पीड़ा नहीं है।

सरकार के चहेते पत्रकार व्यथित हैं कि प्रधानमंत्री धूप में खड़े हैं। कुछ मीडिया घरानों को अंदेशा हो गया कि इस दुर्घटना से सरकार की छवि पर असर पड़ सकता है और चुनावों में भाजपा के लिए गलत संदेश जा सकता है, तो बिना देर किए पुरानी दुर्घटनाओं के बारे में याद दिलाया जाने लगा कि किस तरह पचास साल पहले, बीस साल पहले कोई रेल हादसा हुआ था।

लेकिन इसमें ये जानकारी नहीं दी गई कि पचास साल पहले और आज की तकनीकी में कितना अंतर आ गया है। ये नहीं बताया कि मोदी सरकार ने रेल बजट खत्म कर, उसे आम बजट में मिला दिया है। चंद व्यापारियों को फायदा हो, इसलिए रेलवे के निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। मीडिया की इस धूर्तता भरी चालाकी पर एक आईएएस अधिकारी ने बेशर्म मीडिया संज्ञा का बिल्कुल सही इस्तेमाल किया। लेकिन उन्हें भी ट्रोल किया जाने लगा। एक बड़े हादसे को चुनावी तमाशे में तब्दील करने के बाद कैसे मान लिया जाए कि दोषियों को सजा होगी।


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