ऊर्जाहीन होते निजी बिजलीघर-2
देश में बड़े उद्योगों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज़ (सीआईआई) का छत्तीसगढ़ चेप्टर भी लंबे समय से भारत की कोयला नीति में बदलाव करने की मांग करता रहा

संकट से उबारने औद्योगिक संगठन लगाते रहे हैं गुहार
डॉ. दीपक पाचपोर
कोयले की कमी से बंद हो चुकी, बंद होती जा रही या क्षमता से काफी कम बिजली बना रही प्रदेश की विद्युत परियोजनाओं को संकट से उबारने के लिए विभिन्न औद्योगिक संगठनों ने कई बार विभिन्न अवसरों और मंचों से भारत सरकार, कोयला मंत्रालय, प्रदेश सरकार और छत्तीसगढ़ की कोयला वितरण कंपनी साऊथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड से आग्रह करते रहे हैं परंतु अभी तक उन्हें विशेष राहत नहीं मिली है। संगठनों ने बार-बार यह ध्यान में लाया है कि क्षमता से कम बिजली उत्पादन से जहां उन्हें वित्तीय घाटा हो रहा है, वहीं सरकार को भी राजस्व का नुकसान हो रहा है। घटी उत्पादकता के कारण वे लोगों को रोजगार नहीं दे पा रहे हैं तथा विकास में वे वांछनीय भागीदारी भी नहीं निभा पा रहे हैं। संगठनों के प्रतिनिधियों का यह भी मानना है कि जब तक परियोजनाएं पूरी क्षमता पर नहीं चलतीं, इसका पूरा लाभ नहीं मिल सकेगा।
जल्दी हल जरूरीः नरेन्द्र गोयल, सीआईआई अध्यक्ष
देश में बड़े उद्योगों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज़ (सीआईआई) का छत्तीसगढ़ चेप्टर भी लंबे समय से भारत की कोयला नीति में बदलाव करने की मांग करता रहा है ताकि पॉवर प्लांट्स को पर्याप्त मात्रा में कोयला सहज-सुगम रीति से उपलब्ध हो सके। सीआईआई-छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष नरेन्द्र गोयल ने ‘देशबन्धु’ से विशेष बातचीत में बताया कि 1990 तक भारत सरकार कोयला मंत्रालय के जरिये कोयले का आवंटन उत्खनन की लागत, रायल्टी भुगतान, खदानों का विकास, प्रशासनिक आदि संबंधी खर्च निकालकर और अल्प मुनाफा रखकर न्यूनतम दरों पर इसलिए स्वयं करती थी ताकि जनता के लिए बिजली, सीमेंट और स्टील महंगा न हो। इन तीनों ही उद्योगों के लिए कोयला आवश्यक कच्चा माल है। उस समय तक कोर सेक्टर के इन तीन उद्योगों को उनकी जरूरत का 90 फीसदी तक कोयला मिल जाता था।
शेष वे आयात के जरिये पूरा करते थे। तब तक पूरे देश में करीब 300 मिलीयन टन कोयला कोल इंडिया लि. (सीआईएल) की खदानों से होता था जबकि कोर सेक्टर की जरूरत 270 मिलीयन टन होती थी। पॉवर प्लांट्स की शेष ज़रूरत अब भी इंडोनेशिया के कोयले से हो रही है क्योंकि उसमें एनर्जी, कार्बन व वोलेटाईल के उच्चस्तरीय गुण होते हैं।
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गोयल बताते हैं कि नई अर्थव्यवस्था के कारण उद्यमियता के बने माहौल से उत्साहित होकर देश में बिजली परियोजनाओं की संख्या बढ़ती चली गई लेकिन सीआईएल समय के अनुसार अपनी क्षमता को बढ़ाने में नाकाम रहा। एक समय में जो सीआईएल विद्युत संयंत्रों की 90 प्रश तक की मांग को पूरा करता था, अब उन्हें आवश्यकता का केवल 60 फीसदी कोयला ही दे पा रहा है। वे कहते हैं कि आज इतने वर्षों बाद भी उसका उत्पादन 500 मिली. टन ही पहुंचा है जबकि जरूरत 800 मिलियन टन की हो गयी है। अतः उत्पादन बेहद कम है। वे बताते हैं कि देश में कोयला खदानों का सर्वे करने वाली कोल इंडिया लिमिटेड की अधीनस्थ संस्था केंद्रीय खान योजना एवं डिजाईन इंस्टीट्यूट (सीएमपीडीआई) द्वारा चिन्हित 59 खानों को विकसित किया जाए। इससे खपत और उत्पादन के अंतर को कम किया जा सके।
गोयल के अनुसार इसका प्रभाव यह पड़ा है कि देश भर में कोयले का संकट हो गया है। पूरे बन चुके या आधे-अधूरे विद्युत संयंत्र अपनी निर्धारित क्षमता का विद्युत उत्पादन नहीं कर रहे हैं पर उन उद्योगपतियों का खर्च व कर्ज बकाया है जो लगातार बढ़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक आज देश की विभिन्न बिजली परियोजनों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर 15 लाख करोड़ रु. फंसे हुए हैं। कोयले की कमी को पूरा करने के लिए शासन को कोयला आयात करने की आवश्यकता पड़ रही है। इससे राजस्व एवं विदेशी मुद्रा का भार पड़ रहा है। अतः उत्पादन लागत बढ़ रही है और समय पर आपूति नहीं होने की वजह से राजस्व हानि और बेरोजगारी बढ़ रही है।
उन्होंने कहा कि जब तक उद्योगपतियों को उनके विद्युत संयंत्रों के लिए पर्याप्त व सस्ता कोयला नहीं मिलता, उनका विकास संभव नहीं है। इससे राजस्व का लंबा घाटा भी राज्यों को हो रहा है। गोयल ने बताया कि उनके संगठन सीआईआई की ओर से कोयला मंत्रालय को कई बार यह स्थिति बतलाई गयी है लेकिन बहुत कुछ होता नज़र नहीं आ रहा है। कुछ अरसा पूर्व संगठन ने सरकार को सूचित किया था कि छत्तीसगढ़ का सिर्फ ऊर्जा क्षेत्र ही नहीं, अन्य वे सारे उद्योग भी कोयले की कमी का सामना कर रहे हैं जिनमें इसकी आवश्यकता होती है।
ऊर्जा क्षेत्र पर वित्तीय दबाव हैः एसोचेम
एसोसिएटेड चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचेम, दिल्ली) की ऊर्जा कौंसिल के एक प्रतिनिधि ने ‘देशबन्धु’ से चर्चा में कहा कि एसोचेम ने भारत सरकार को अनेक अवसरों पर ऊर्जा क्षेत्र में कोयले की कमी व उसके कारण होने वाली परिस्थिति से अवगत कराया है। कोयला मंत्रालय को करीब एक हफ्ता पूर्व पेश किए गये मांगपत्र में बताया है कि निजी ऊर्जा क्षेत्र में पिछले एक दशक में बड़ा निवेश तो हुआ है, लेकिन यह क्षेत्र प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के कारण जबर्दस्त वित्तीय दबाव में है तथा कोयला नीति के कारण बनी स्थिति के फलस्वरूप आय में बड़ी गिरावट को झेल रहा है। अपने मांगपत्र में एसोचेम ने कहा है कि लिंकेज के अनुसार आवंटित कोयले (एएलक्यू) की मात्रा का 75 प्रश ही प्राप्त होने से पॉवर प्लांट्स मुश्किल से 57 फीसदी पीएलएफ (प्लांट लोड फेक्टर) पर चल रहे हैं। कोयले की कमी से लागतकी प्राप्ति हेतु आवश्यक 85 प्रतिशत नार्मेटिव अवेलिबिलिटी फेक्टर पाना संभव नहीं रह गया है।
कुछ ही बिजली संयंत्र करीब 62 फीसद एएलक्यू प्राप्त कर रहे हैं जबकि कुछ को उनकी ज़रूरत का मुश्किल से 37 प्रश ही कोयला मिल रहा है। सरकार को चाहिए कि कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) के माध्यम से बिजली परियोजनाओं को आवश्यकता के अनुसार शत-प्रतिशत कोयला उपलब्ध कराए।
एसोचेम ने मांग की है कि आर्थिक संबंधों की केबिनेट कमिटी (सीसीईए) की बैठक में लिए गये निर्णय के अनुसार अल्प अवधि के लिए बेचे जाने वाली बिजली के लिए लिंकेज के कोयले का इस्तेमाल करने की अनुमति मिले और निजी ऊर्जा क्षेत्र को ई-ऑक्शन के अंतर्गत दी जाने वाली कोयले की मात्रा को बढ़ाया जाए। यह कोयला सप्लाई नियमित तो हो ही, इसकी ढुलाई सस्ती दरों पर तथा पर्यावरण संवेदी वातावरण में होनी चाहिए। कोयले की उपलब्धता सुगम व पर्याप्त कर विद्युत संयंत्रों को राहत देने हेतु राष्ट्रीय कोयला वितरण नीति (एनसीडीपी) में संशोधन कर उसे लागू करने की तारीख 31 मार्च, 2019 से आगे बढ़ाने, ई-नीलामी के मामले में भुगतान लेटर ऑफ क्रेडिट के जरिये मंजूर करने, रेक की अनुपलब्धता पर कोयले के विलंब से पहुंचने पर उद्योगों को आवश्यक छूट देने व बंद हो चुकी
कोयला खानों में फ्लाई ऐश डंप करने की अनुमति देने की भी सिफारिश की गई है।
छत्तीसगढ़ के ऊर्जा सेक्टर को केंद्र में रखकर एसोचेम ने कहा है कि गेवरा, कुसमुंडा व दीपका खानों में पिछले कुछ महीनों से कोयला उत्पादन में भारी गिरावट आई है। कोयला मंत्रालय से निवेदन किया गया है कि मांग के अनुरूप एसईसीएल को उत्पादन बढ़ाने तथा कोयला गेवरा व दीपका खानों से बिजली संयंत्रों को रेल मार्ग से सीधे भेजने के निर्देश जारी किये जाएं। एसोचेम प्रतिनिधि के अनुसार इन मांगों के पूरा होने से निश्चित ही कोयले की सप्लाई सुगम व पर्याप्त होगी जिससे पॉवर प्लांट्स की स्थिति में भी सुधार आएगा। इससे ऊर्जा क्षेत्र देश के विकास में बेहतर योगदान दे सकेगा। कुछ अरसा पूर्व शासन ने कुछ कदम उठाए हैं लेकिन अभी काफी कुछ किया जाना ज़रूरी है। संगठन को विश्वास है कि भारत शासन व कोयला मंत्रालय विद्युत क्षेत्र की समस्याओं का जल्दी निवारण करेंगे।
कोल ब्लॉक्स सुविधापूर्ण स्थानों पर होने चाहिएः फिक्की
फेडरेशन ऑफ इंडियन चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) की छत्तीसगढ़ राज्य कौंसिल को इस बात से ऐतराज है कि कोल ब्लॉक्स का आवंटन बेहद असुविधाजनक रूप से किया जा रहा है। कोयला मंत्रालय के समक्ष कौंसिल ने इस बात को उठाया है कि पॉवर प्लांट्स को कोयला सस्ता व नियमित मिलता रहे इसके लिए आवश्यक है कि वही कोल ब्लॉक्स मिलें जो संयंत्र के नजदीक हों। साथ ही रेल या सड़क मार्ग से ठीक से जुड़े होना भी ज़रूरी है। बिजलीघर से दूर होने या पहुंच मार्ग के अभाव में सस्ता कोयला व सस्ती विद्युत की प्राप्ति संभव नहीं है।
फिक्की के छत्तीसगढ़ कौंसिल के अध्यक्ष प्रदीप टंडन के अनुसार उत्पादन क्षमता के अनुसार प्रत्येक विद्युत संयंत्र को हर रोज 16000 से 60000 टन कोयले की आवश्यकता होती है। कई संयंत्रों को ऐसे भी कोल ब्लॉक्स मिले हैं जहां से कोयले की ढुलाई ही संभव नहीं हैं। कई तो प्रतिबंधित क्षेत्रों में आवंटित कर दिये गये हैं। वे कहते हैं कि कोल ब्लॉक्स का आवंटन भौगोलिक स्थिति, कंटूर, परिवहन की सुविधा, पहुंच मार्ग आदि को ध्यान में रखकर होना चाहिये वरना सस्ती बिजली का उत्पादन संभव नहीं रह जाएगा। कोयले की सप्लाई भी पर्याप्त व नियमित न रही तो निर्बाध विद्युत उत्पादन मुमकिन नहीं है। (जारी)


