Top
Begin typing your search above and press return to search.

ऊर्जाहीन होते निजी बिजलीघर-1

छत्तीसगढ़ के विद्युत संयंत्रों की वर्तमान स्थिति देखें तो पता चलता है कि यहां निजी क्षेत्र में 14 मंजूरी प्राप्त परियोजनाएं

ऊर्जाहीन होते निजी बिजलीघर-1
X

विद्युत संयंत्रों के लिए कोयले का संकट देश भर में है। जो स्थिति पूरे देश में है, वही छत्तीसगढ़ में भी है लेकिन यहां इसका असर इसलिए अधिक है क्योंकि यहां बिजली संयंत्र बड़ी संख्या में हैं और लगभग सारे थर्मल संयंत्र हैं अर्थात कोयला आधारित। प्रदेश की अर्थव्यवस्था और विकास इस पर बड़े पैमाने पर निर्भर है। भारत में ज्यादातर पॉवर प्लांट्स छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, गुजरात आदि राज्यों में हैं।

इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि देश का 18 फीसद कोयला प्रदेश की ही भूमि के नीचे दबा पड़ा है और काले हीरे की उपलब्धता के मामले में हमारा देश में दूसरा क्रमांक है, फिर भी हमारे सूबे के ज्यादातर निजी पॉवर प्लांट्स अपनी स्थापित क्षमता से बहुत कम विद्युत उत्पादित कर पा रहे हैं। कई तो बंद हो गये हैं और अनेक अपना उत्पादन स्थगित करने की फिराक में हैं। ज्यादातर क्षमता से बहुत कम बिजली बना रहे हैं। बंद होती कोई भी निजी परियोजना अपने साथ बैंकों से मिली टैक्स देने वालों की जमा राशि, शेयरहोल्डरों का पैसा व प्रदेश के प्रति भावी निवेशकों का विश्वास सब कुछ हर लेती है। बिजली का नुकसान तो हो ही रहा है, रोजगार व राजस्व का घाटा सहने के लिए भी राज्य अभिशप्त है। प्रदेश के निजी बिजली संयंत्रों की बदहाली पर अनेक औद्योगिक संगठन कोल इंडिया लिमिटेड, उसकी अधीनस्थ कंपनी साऊथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड, कोयला मंत्रालय, छत्तीसगढ़ व केंद्र सरकार सभी को पत्र लिख चुके हैं लेकिन खास कुछ सकारात्मक होता नहीं दिखाई दे रहा। निजी संयंत्र इस स्थिति में कब तक टिके रहते हैं, यह देखना होगा। निजी बिजली परियोजनाओं की यह समस्या के अनेक आयाम हैं। इसका समग्रता में आकलन करती सिलसिलेवार रिपोर्ट की प्रथम किश्त

बिजली परियोजनाएः क्षमता का दोहन नहीं, डिफाल्टर होने की स्थिति

डॉ. दीपक पाचपोर

छत्तीसगढ़ के विद्युत संयंत्रों की वर्तमान स्थिति देखें तो पता चलता है कि यहां निजी क्षेत्र में 14 मंजूरी प्राप्त परियोजनाएं हैं। पूरा बन जाने या पूर्ण क्षमता से चलने पर इनकी सम्मिलित नियोजित क्षमता लगभग 20000 मेगावाट होगी पर आज की परिस्थितियों में सिर्फ 5085 मेगावाट बिजली ही बन पएगी और इसमें इजाफा होने की गुंजाइश ही नहीं है क्योंकि ज्यादातर विद्युतघर व्यवसायिक उत्पादन के बाद भी बंद हो गए हैं या उन्हें इतना कम कोयला मिल रहा है कि वे अपनी क्षमता से बेहद कम बिजली बना पा रहे हैं। जो परियोजनाएं चल भी रही हैं उनसे केवल 6417 मे.वा. बिजली ही उत्पादित हो रही है जबकि उनकी 7488 मे.वा. की क्षमता का दोहन कोयले के अभाव में नहीं हो पा रहा है।

किसी समय कोल ब्लॉक पाने की उम्मीद में और बिजली निर्माण के अच्छे भविष्य की आशा में ये सारे विद्युत संयंत्र लग तो गये लेकिन कोयला वितरण की दोषपूर्ण नीति के चलते पैदा हुए अभाव के कारण उनका उत्पादन इतना कम रह गया है कि वे भारी वित्तीय नुकसान में चल रहे हैं। अनेक या तो डिफाल्टर हो गये हैं अथवा उनके मामले नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के समक्ष विचारार्थ लंबित हैं।

जो परियोजनाएं काफी कम उत्पादन कर रही हैं और नुकसान उठा रही हैं, उनमें प्रमुख हैं- जिंदल पॉवर लिमिटेड की तमनार-1 एवं 2, डीबी पॉवर लिमिटेड का बदर्था-1, आर्यन कोल का रायगढ़ टीआरएन, अडाणी पॉवर लिमिटेड का कोरबा वेस्ट-1, जीएमआर का रायखेड़ा, केएसके महानंदी पॉवर लिमिटेड का केएसके महानंदी, लेंको पॉवर के अमरकंटक-1 व 2, केआरएम पॉवरजेन प्रा. लि. का उचपिंडा और एथेना एनर्जी वेंचर्स का सिंघीतराई आदि। ये परियोजनाएं ऐसी हैं कि आवश्यकता का पर्याप्त कोयला मिले तो तत्काल उत्पादन कर सकती हैं।

स्वाभाविकतः प्रदेश में कोयले की उपलब्धता के आधार पर ही ये पॉवर प्लांट लगाए जाने की योजनाएं बनीं। ज्यादातर उद्योगपतियों ने कर्ज लिए व कई ने संयंत्र लगाए भी। किसीने कम, किसी ने ज्यादा का निवेश किया। अधिकतर ने राशि बैंक कर्जों के माध्यम से जुटाई, शेयरधारकों का पैसा लगाया यो अपने अन्य कारोबार का धन इधर मोड़ा। कोयला संकट व घटी उत्पादकता के कारण उन पर कर्ज व उसका ब्याज बढ़ता जा रहा है, जबकि उत्पादन न होने से या अधूरा होने से आय भी या तो अपेक्षित नहीं हो रही या बिलकुल ठप है। एक तरह से उद्यमकर्ता पूरी तरह से मकड़जाल में फंस चुके हैं। एक अनुमान के मुताबिक उद्योगपतियों पर प्रति मेगावाट करीब 6 करोड़ रु. का बैंक कर्ज है।

ठीक-ठीक राशि की जानकारी मिलनी तो लगभग असंभव है क्योंकि सभी ने विभिन्न स्रोतों से फंड का जुगाड़ किया है। फिर भी कुछ का मोटा अनुमान है कि उद्योगपतियों पर पॉवर प्लांट्स का सम्मिलित तौर पर 1.20 लाख करोड़ रु. तक का कर्ज हो सकता है। अगर कंपनियां राशि नहीं लौटा पातीं तो जनता का बड़ा धन डूब जाएगा। कुछ अरसा पूर्व कतिपय व्यवसायियों द्वारा बैंक ऋण की भारी-भरकम राशि लेकर देश भाग जाने की घटना ने सरकार के कान खड़े कर दिये हैं।

इसके कारण अब बैंकों द्वारा कर्ज उगाही के लिए खासी कड़ाई की जा रही है। इससे भी परियोजना मालिक परेशान हैं और आश्चर्य नहीं होगा अगर इनमें से कुछ खुद को दिवालिया घोषित कर दें अथवा हवाई जहाज पकड़कर निकल लें। पर्याप्त दोहन नहीं छत्तीसगढ़ में चिन्हित 48 कोल ब्लॉक्स हैं। इनमें से निजी क्षेत्र में 39 हैं। ये हैं- गारे सेक्टर के तीन ब्लॉक्स से करीब 415 मिलियन टन कोयला कोल इंडिया लिमिटेड की कंपनी साऊथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एससीसीएल) कस्टोडियन के रूप में कोयला निकालती है। लगभग 26 कोल ब्लॉक्स ऐसे हैं, जिनको बिडिंग के जरिये आवंटित कियाजाना है।

ये हैं- गारे सेक्टर की 3, मोर्गा की 4, नोकिया 2, मदनपुर 2, फतेहपुर 2, राजगमा 2, दुर्गापुर 2 (सरया व तरईमार) तारा, सोंधिया, भास्करपारा, शंकरपुर भटगांव व विस्तारित, केसला उत्तर, विजय मध्य, सयांग, दतिमा और पंछाहनी। इनमें 7100 मिलियन टन से ज्यादा का कोयला भंडारित है। इसके बड़े हिस्से का दोहन नहीं हो पा रहा है।

छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत उत्पादन कं. लि., गुजरात राज्य विद्युत निगम, महाराष्ट्र राज्य उत्पादन कंपनी लि., हिंडालको और अंबुजा सीमेंट को क्रमशः गारे पेलमा सेक्टर-3 (134 मि.टन), गारे पेलमा सेक्टर-1 (1500 मि.टन), गारे पेलमा सेक्टर-2 (655 मि.टन), गारे पेलमा सेक्टर-4/4टन(15 मि. ) व गारे पेलमा सेक्टर-4/8 (45.85 मि. टन) दिये जा चुके हैं। ऐसे ही एनटीपीसी को तिलईपल्ली (861 मि. टन), राजस्थान राज्य विद्युत निगम को परसा ईस्ट कांटा बसन (452.42) व परसा (184.4 मि. टन), सीएसपीजीसीएल को गिडमुरी व पतुरिया (257.83) और बालको को चोटिया (25.93) कोल ब्लॉक मिल चुके हैं।

कोलगेट से जुड़े हैं तार छत्तीसगढ़ के विद्युत संयंत्रों के समक्ष कोयले का जो संकट आन खड़ा है, उसके तार 2011-12 में हुए कुख्यात कोलगेट से भी जुड़े हैं, जिसके कारण तत्कालीन मनमोहन सरकार को 2014 के आम चुनावों में सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। (हालांकि कांग्रेस सरकार की पराजय का यही एकमात्र कारण नहीं था।) बाद में तो कोर्ट ने माना भी कि ऐसा कोई घोटाला ही नहीं हुआ, जिसकी राशि लगभग 1.80 लाख करोड़ रु. तक की आंकी गयी थी। बाद में वह एक तरह से ऐसा धारणात्मक घोटाला साबित हुआ कि सरकार जो कोयला 3800 रु. प्रति टन पर बेच रही थी, वह अगर खुले बाजार की तत्कालीन 6000 रु. प्रति टन की दर पर बिकता तो सरकार को 1.80 लाख करोड़ रु. की आय होती, जिससे वह वंचित रह गई।

दिलचस्प यह है कि पिछली सरकार द्वारा जो कोयला खदानें प्रति टन 3800 रु. की औसत दर पर नीलाम हो रही थीं, आज बदली परिस्थितियों में उसका रेट औसत 1800 से 2000 रु. प्रति टन भी नहीं मिल रहा है क्योंकि उद्योगपति कोल ब्लॉक्स लेने में आनाकानी कर रहे हैं। कुछ ही खदानों के कोयले के लिए ऊंचा भाव मिल पा रहा है। वैसे भी खुले बाजार में कोयला 1800 से 3800 रु प्रति टन के भाव में उपलब्ध हो रहा है। गुणवत्ता के मुताबिक इसकी दर कम-ज्यादा होती रहती है।

यह तथ्य भी निजी बिजली संयंत्रों की तकलीफ को बढ़ा रहा है कि पहले की व्यवस्था में भारत सरकार विद्युत संयंत्रों को लिंकेज के आधार पर आवश्यकता के अनुरूप कोयला मुहैया कराती थी, जो पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार द्वारा ब्लॉक्स आवंटित किये जाने की योजना में बदल गई लेकिन सीएजी द्वारा उठाई गई आपत्तियों के चलते जब मामला विवादास्पद हो गया और ‘कोलगेट’ के नाम से अस्तित्व में आए घोटाले ने देश व सरकार के साथ कोयला आधारित उद्योंगों की चूलें हिलाकर रख दीं, तो देश भर के बिजली संयंत्र भी इसके लपेटे में आ गये।

छत्तीसगढ़ के अछूते रहने का तो सवाल ही नहीं रह जाता था। औद्योगिक संगठन कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज़ (सीआईआई), एसोसिएटेड चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचेम), फेडरेशन ऑफ इंडियन चेंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) आदि ने संबंधित विभागों व उपक्रमों से कई माध्यमों व मंचों से कोयला सप्लाई बढ़ाकर निजी पॉवर प्लांटों को संकट से उबारने का आग्रह किया है लेकिन स्थितियां अब भी उनके अनुकूल नहीं हो पाई हैं। कोयला वितरण कंपनी एसईसीएल का कहना है कि वह कोयला उत्पादन बढ़ाने की कोशिश कर रही है वहीं प्रदेश सरकार के अनुसार निजी विद्युत परियोजनाओं के वर्तमान संकट का केंद्र सरकार व कोयला मंत्रालय के जरिये हल करने के लिए प्रयत्नशील है।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it