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धार्मिक मुद्दे को तूल देते पीएम

इसे किसी भी देश के लिये सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा सकता है कि वहां की सरकार धार्मिक विवादों को शांत करने की बजाये उसे और भड़काये

धार्मिक मुद्दे को तूल देते पीएम
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इसे किसी भी देश के लिये सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा सकता है कि वहां की सरकार धार्मिक विवादों को शांत करने की बजाये उसे और भड़काये। इतना ही नहीं, ज्यादा दुखद तो यह होता है कि वह उस विवाद में बाकायदा एक पार्टी बन जाये और ऐसे विवादों का सियासी लाभ लेने की हर घड़ी जुगत बिठाये। भारत के साथ यह होता साफ दिख रहा है और वह भी अभी से नहीं बल्कि जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार केन्द्र में बनी है, इस प्रकार के मुद्दों का उपयोग वह अपनी सत्ता को बचाये रखने या फिर पाने के लिये करती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस खेल में दिन-ब-दिन सिद्धहस्त होते जा रहे हैं। ऐसा करने से उन्हें राजनैतिक लाभ तो मिल सकता है परन्तु ऐसा करना न देश के लिये उचित है और न ही समग्र लोकतंत्र के भले में है। संवैधानिक पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति के लिये मज़हबी मतभेदों को समाप्त करने की पहल करनी चाहिये, न कि उन्हें और भी तूल देने की।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पुत्र व मंत्री उदयनिधि का एक बयान इन दिनों सुर्खियों में है जिसमें उन्होंने सनातन धर्म को डेंगू व मलेरिया के वायरस जैसा बतलाते हुए कहा कि जितनी जल्दी उसका उन्मूलन हो उतना ही अच्छा। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक विधानसभा चुनाव हारने से बौखलाई भाजपा और स्वयं मोदी मुद्दों की तलाश में हैं। कांग्रेस की अगुवाई में बने विपक्षी गठबन्धन 'इंडिया' के लगातार मजबूत होने तथा अपने कारोबारी मित्र गौतम अदानी से उनकी कथित सांठ-गांठ के कारण मोदी की छवि काफी दरक चुकी है। ठीक एक साल पहले निकाली गई राहुल गांधी की बेहद सफल 'भारत जोड़ो यात्रा' का सीक्वल आ ही रहा है। इस बार राहुल पश्चिम से पूरब की तरफ देश को अपने कदमों से नापने जा रहे हैं।

कहा जा रहा है कि इससे रही-सही कसर भी पूरी हो जायेगी और पहले से नाज़ुक स्थिति में चल रही भाजपा की सांसें इसी वर्ष के अंत में होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पूरी तरह से उखड़ सकती हैं। 2024 के मध्य में होने जा रहे लोकसभा चुनावों के लिये उसे मुद्दों की सख़्त दरकार है क्योंकि उसका साम्प्रदायिक चेहरा मणिपुर, नूंह और जयपुर-मुंबई एक्सप्रेस में हुई घटनाओं से पूर्णत: बेनकाब हो गया है। जनता जान गई है कि देश इसका खामियाजा भुगत रहा है। भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी जान गई है कि मोदी और हिन्दुत्व के चेहरे पर अगले चुनाव की वैतरणी पार होने से रही। यह सरकार जन सरोकार के मामले में पहले ही नाकाम हो चुकी है जिसके कारण वह किसी भी मुद्दे को लेकर जनता को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रही। इसलिये उसके सामने ध्रुवीकरण के अलावा कोई चारा दिखाई नहीं देता।

अदानी का मुद्दा देश-विदेश दोनों जगहों पर छाया हुआ है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद हाल ही में वही कहानी दुनिया के दो प्रतिष्ठित अखबारों 'गार्डियन' एवं 'दी फाइनेंशियल टाइम्स' ने आगे बढ़ा दी है। इनमें छपी रपटें बताती हैं कि अदानी ने अनेक तरह की वित्तीय अनियमितताएं कीं और मोदी सरकार उन्हें प्रश्रय देती रही, बचाती भी रही। इसके साथ ही राहुल गांधी सच साबित होते चले गये जिन्होंने अदानी-मोदी रिश्तों की बात उठाई, जिसके कारण अपनी सांसदी खोई। यह अलग बात है कि उनकी लोकसभा सदस्यता छीनने का बहाना एक टुच्चा सा अवमानना का अदालती मामला था जिसके आधार पर उन्हें अधिकतम (दो साल) सजा सुनाई गई ताकि वे सदन से रुख़सत किये जा सकें। सुप्रीम कोर्ट ने सजा रद्द की जिससे राहुल को सदस्यता व शासकीय आवास लौटाया गया। अब राहुल फिर से अनेक यूरोपीय देश जा रहे हैं जहां वे कई जगहों पर भाषण देंगे। पहले की तरह मोदी की मुश्किलें बढ़नी तय हैं।

बहरहाल, विपक्षी गठबन्धन के नाम से परेशान मोदी सरकार ने देश का 'इंडिया' नाम ही हटा दिया और अब वह सरकारी दस्तावेजों से 'इंडिया' शब्द हटाकर 'भारत' लिख रही है। इसे राष्ट्रवाद का नया काढ़ा कहा जा सकता है जो उनके समर्थकों को अपने खेमे में बनाये रखने के लिये तैयार किया गया है क्योंकि भाजपा के चिर-परिचित फार्मूले बेकार साबित हो गये हैं। इनमें चीन को लाल आंखें दिखलाना, पाकिस्तान को घर में घुसकर मारना, 56 इंच आदि शामिल हैं। वैसे इंडिया बनाम भारत का मसला भी पार्टी में पर्याप्त ऊर्जा नहीं भर पा रहा है क्योंकि इसके पहले कि भाजपा के आईटी सेल की रचनात्मकता जोर मारती, केन्द्र के एक मंत्री ने ही कह दिया है कि 'इंडिया' भी रहेगा और 'भारत' भी।

ऐसे में उदयनिधि का बयान भाजपा के लिये अंधे को मिलने वाली दो आंखें साबित हुआ है। बुधवार को हुई केबिनेट की बैठक में मोदी ने अपने मंत्रियों को निर्देश दिये कि इंडिया-भारत के मुद्दे पर चुप रहें लेकिन सनातन वाले मुद्दे पर कसकर जवाब दे। यह इस बात की बानगी है कि मोदी राज में सरकार व भाजपा किस प्रकार से गड्ड-मड्ड हो चुके हैं। मोदी भूल गये कि वे पार्टी बैठक या चुनावी रैली में नहीं बल्कि शासकीय बैठक में बोल रहे हैं। वहां बैठकर उन्हें देश को इस गर्मा-गर्मी से बाहर निकालना चाहिये था जिससे देश में साम्प्रदायिक तनाव न बढ़े। संवैधानिक पद पर बैठे पीएम को मंत्रियों को निर्देशित करना चाहिये था कि इस मामले को सौहार्द्रपूर्ण ढंग से सुलटाया जाये। वैसे मोदी से ऐसी उम्मीद करना बेकार है क्योंकि वे स्वयं ही चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन कर आम सभाओं में गौमाता, राममंदिर, बजरंग बली आदि के नाम पर वोट मांगते हैं।


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