पीएम केयर्स फंड : सरकार क्या छुपा रही है?
दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई जिसमें पीएम केयर्स फंड की वैधता पर सवाल खड़ा किया गया

- संदीप सिंह
दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई जिसमें पीएम केयर्स फंड की वैधता पर सवाल खड़ा किया गया और इसे आरटीआई के दायरे में लाने की मांग की गई। इसकी सुनवाई के दौरान कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर पीएम केयर्स ट्रस्ट ने कहा कि 'पीएम केयर्स फंड सरकारी फंड नहीं है इसीलिए यह आरटीआई के तहत सार्वजनिक प्राधिकार की परिभाषा में नहीं आता है।
हाल में मीडिया में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया कि पीएम केयर्स फंड में सरकार की हिस्सेदारी वाली कंपनियों ने कुल 2,913.60 करोड़ रुपए दान किए। यह जानकारी सरकार ने नहीं, बल्कि एक निजी फर्म प्राइमइन्फोबेस डॉटकॉम ने दी है जो नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध कंपनियों पर नजर रखती है। इस फर्म की रिपोर्ट कहती है कि पीएम केयर्स फंड में योगदान देने वाली 57 ऐसी कंपनियां हैं जिनमें सरकार की बड़ी हिस्सेदारी है यानी ये सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हैं। 247 प्राइवेट और 57 सरकारी कंपनियों ने कुल मिलाकर पीएम केयर्स फंड में 4,910.50 करोड़ रुपए दान किए, जिसका 60 प्रतिशत सिर्फ सरकारी कंपनियों ने दिया है।
इन 57 सरकारी कंपनियों में से टॉप 5 कंपनियां हैं- ओएनजीसी (370 करोड़ रुपए),एनटीपीसी (330 करोड़ रुपए), पावरग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (275 करोड़ रुपए), इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (265 करोड़ रुपए) और पावर फाइनैंस कॉरपोरेशन (222.4 करोड़ रुपए)।
कोरोना महामारी के बीच मार्च, 2020 में इस फंड की शुरुआत की गई थी। इस फंड के चेयरमैन खुद प्रधानमंत्री हैं और इसके सदस्यों में गृहमंत्री, रक्षामंत्री व वित्तमंत्री शामिल हैं। इस फंड में दान करने के लिए खुद प्रधानमंत्री ने देशवासियों से अपील की थी। उनकी अपील के बाद देश के लाखों लोगों ने यह सोचकर स्वेच्छा से दान किया कि देश के प्रधानमंत्री आपदा में नागरिकों से मदद मांग रहे हैं। इसमें पैसे जुटाने के लिए देश भर में सरकारी कर्मचारियों के वेतन में जबरन पैसे काटे गए। 2019-20 में इसमें 3,076.60 करोड़ रुपए जमा हुए। 2020-21 में यह रकम बढ़कर 10,990.20 करोड़ रुपए हुई और मार्च, 2022 में बढ़कर 13,000 करोड़ पहुंच गई।
महामारी बीत जाने के बाद यह सवाल उठने लगा कि पीएम केयर्स फंड में जुटे हजारों करोड़ रुपये कहां गए? कुछ लोगों ने आरटीआई के जरिये सूचनाएं मांगी, लेकिन उन्हें जवाब दिया गया कि यह सार्वजनिक फंड नहीं है इसलिए इसके बारे में जानकारियां नहीं दी जा सकतीं। आखिरकार यह मामला कोर्ट पहुंचा। दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल हुई जिसमें पीएम केयर्स फंड की वैधता पर सवाल खड़ा किया गया और इसे आरटीआई के दायरे में लाने की मांग की गई। इसकी सुनवाई के दौरान कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर पीएम केयर्स ट्रस्ट ने कहा कि 'पीएम केयर्स फंड सरकारी फंड नहीं है इसीलिए यह आरटीआई के तहत सार्वजनिक प्राधिकार की परिभाषा में नहीं आता है। पीएम केयर्स फंड पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में गठित किया गया है। इस पर न तो केंद्र सरकार का नियंत्रण है और न ही किसी राज्य सरकार का।'
सरकार के इस हलफनामे से कुछ गंभीर सवाल उठते हैं कि अगर यह सरकारी फंड नहीं है तो इसकी घोषणा देश के प्रधानमंत्री ने क्यों की? वे खुद इसके चेयरमैन क्यों हैं? उन्होंने इस फंड के साथ प्रधानमंत्री शब्द क्यों जोड़ा? इसके सदस्यों में सरकार के महत्वपूर्ण मंत्री क्यों हैं? इसकी वेबसाइट को सरकारी डोमेन कैसे मिला? इसके साथ प्रधानमंत्री का नाम क्यों इस्तेमाल हो रहा है? इसके लिए भारत के प्रधानमंत्री ने दान करने की अपील क्यों की? प्रधानमंत्री के नाम चल रही सरकारी वेबसाइट पर इसके बारे में सूचनाएं क्यों दी जाती हैं? क्या यही सारे नियम राज्य सरकारों पर भी लागू होंगे? क्या प्रधानमंत्री की तर्ज पर राज्यों के मुख्यमंत्री भी सीएम केयर्स फंड बना सकते हैं?
इस फंड को बढ़ाने के लिए विदेशों में भारतीय दूतावासों को शामिल किया गया। इस फंड की स्थापना के तुरंत बाद प्रधानमंत्री ने 30 मार्च, 2020 को विश्व के विभिन्न देशों में स्थित भारतीय राजदूतों से एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की और विदेश मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया था कि उन्होंने 'विदेश से दान जुटाने के लिए राजदूतों को सलाह दी है कि इस पीएम केयर्स फंड ट्रस्ट का प्रचार करें। इसे विदेशी अंशदान अधिनियम (एफसीआर)के तहत छूट दी गई है कि यह विदेशी चंदा ले सकता है। केंद्र सरकार की हैसियत से इस फंड ने कॉरपोरेट्स और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से दान लिया और बदले में उन्हें आयकर में छूट दी गई। कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ाई में सरकारी मशीनरी का उपयोग करके इस फंड को वेंटिलेटर, ऑक्सीजन, वैक्सीन आदि पर खर्च किया गया।
चूंकि इस फंड की स्थापना से लेकर इसके संचालन तक सब कुछ संदिग्ध है, उसके बारे में जो जानकारी दी रही है वह सही है, यह कैसे माना जाए? इसकी क्या विश्वसनीयता है कि जिस फंड में देश भर से लोगों ने दान किया, उसमें 2022 तक 13000 करोड़ रुपए ही जमा हुए?
इस फंड की स्थापना से लेकर संचालन तक सब कुछ जब देश के प्रधानमंत्री की अगुआई और निगरानी में हो रहा है, यहां तक कि इसके लिए देश की मशीनरी और दूतावासों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है, तब यह सरकारी फंड कैसे नहीं है? अगर प्रधानमंत्री खुद इसके चेयरमैन हैं तो इसमें वे पारदर्शिता सुनिश्चित क्यों नहीं करते, जैसा कि इसके पहले प्रधानमंत्री राहत कोष में होता रहा है। इसका कैग ऑडिट क्यों नहीं होने दिया गया? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को अपने पदनाम से हजारों करोड़ का निजी फंड चलाना वैधानिक हैं? क्या संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति संविधान के बाहर जाकर निजी कंपनी की तरह काम कर सकता है? जिस फंड को कार्यपालिका के चार अहम पदों पर व्यक्ति संभाल रहे हों, उसमें जमा हुए फंड का संवैधानिक आधार क्या है? क्या इसे संसद की मंजूरी मिली है? बिना संसद की मंजूरी के क्या यह फंड वैधानिक है?
सरकार की शत-प्रतिशत संलिप्तता और इतने सवालों के बाद भी, क्या इसे निजी फंड सिर्फ इसलिए कहा जा रहा है ताकि सरकार जवाबदेही, पारदर्शिता और जिम्मेदारी से बच सके? अगर इसमें कोई गड़बड़-घोटाला नहीं है तो सरकार क्या छुपा रही है?
(लेखक जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं और कांग्रेस से जुड़े हैं।)


