बदला युद्ध है आपरेशन सिंदूर
पाकिस्तान में सरकार, आतंकवादी और सेना का मतलब एक ही है, यह बात साफ जाहिर हो जाना आपरेशन सिंदूर से सामने आया दूसरा सच है

- अरविन्द मोहन
पाकिस्तान में सरकार, आतंकवादी और सेना का मतलब एक ही है, यह बात साफ जाहिर हो जाना आपरेशन सिंदूर से सामने आया दूसरा सच है। फौजी अधिकारी मारे गए आतंकियों के जनाजे में शामिल हुए। सारे बड़े आतंकियों को, जिनमें कुछ संयुक्त राष्ट्र द्वारा चिह्नित भी हैं, पाकिस्तान सरकार और फौज ने छुपा लिया। भारत में यह राजनैतिक मुद्दा बना हुआ है।
मात्र तीन दिन चले युद्ध या सैनिक अभियान ने पारंपरिक अर्थ में निर्णायक जीत हार का फैसला नहीं किया लेकिन इसने भारत और पाकिस्तान के राजनेताओं में जीत और हार के दावे से लेकर दुनिया भर के सैन्य विशेषज्ञों के लिए आगे काम करने का काफी मसाला दे दिया है। अब टीवी की चर्चाओं और हमारे पक्ष-विपक्ष के राजनैतिक अभियानों से किसी को भ्रम हो सकता है कि हम युद्ध का तकनीक और वैज्ञानिक अध्ययन और फिर सुधार का प्रयास नहीं कर रहे हैं लेकिन ऐसा है नहीं। सबको इस सैन्य कार्रवाई में इतना साफ लगा कि लड़ाई का मैदान बदल गया है और अगर भारत ने साफ बढ़त ली या अपने उद्देश्य लगभग हासिल कर लिए तो इसलिए कि उसके पास बेहतर तकनीक वाले ड्रोन थे और उसकी क्रूज मिसाइलों का निशाना सटीक बैठा जबकि पाकिस्तान बदमाशी करते हुए सिर्फ तोप और विमानों के सहारे हमारे नागरिक ठिकानों पर बमबारी करता रहा। इस हमले को भी भारत ने तकनीक के सहारे काफी हद तक विफल किया क्योंकि हमारे एयर डिफेंस में बेहतर तकनीक वाले उपकरण थे। पाकिस्तान के ज्यादातर हमलों को हवा में ही उड़ा दिया गया। हमने उनके एयर डिफेंस सिस्टम को जैम करके उनके नौ सैनिक हवाई अड्डों को निशाना बनाया और उनकी ताकत खत्म की।
ज्यादातर काम बेहद मामूली खर्च से तैयार होने वाले ड्रोन और क्रूज मिसाइलों के सहारे हुआ। इसकी वजह उनका सस्ता होना न होकर उपयोगी होना है। वे पेड़ों और पहाड़ियों के बीच इतनी काम ऊंचाई पर उड़ते हुए लक्ष्य तक जाते हैं कि दुश्मन के राडार उनको जान ही नहीं पाते। और लक्ष्य भेदकर अगर वे खत्म हो भी जाते हैं तो सेना के बजट पर कोई फरक नहीं पड़ता। नौसेना के बड़े जहाजों और पनडुब्बियों के खर्च की बात ही छोड़िए एक एक सैन्य विमान और टैंक आज इतनी कीमत में आते हैं कि हजारों ड्रोन एक जहाज की कीमत में तैयार हो जाते हैं। आज अमेरिकी एफ-35 विमान दस करोड़ डालर का है। ड्रोनो को प्रयोग में लाना ही आसान नहीं, है, इनको बनाना भी आसान और किफायती है। सबसे अच्छे माने जाने वाले दरों भी एक हजार डालर तक के खर्च पर तैयार हों जाते हैं। अगर खाड़ी युद्ध ने तीस साल पहले यह संदेश दिया कि युद्ध अब तकनीक से लड़े जाते हैं तो रूस-यूक्रेन युद्ध और आपरेशन सिंदूर के भारत- पाकिस्तान टकराव ने यह साफ कर दिया है कि भविष्य की लड़ाई में ड्रोन और क्रूज मिसाइलों का युग ही आने वाला है। बड़े विमान और मजबूत सैन्य ठिकाने भी इनकी जद में आकर बेकार साबित हो रहे हैं। यूक्रेन पचास लाख ड्रोन हर साल बना रहा है और उसी से रूस का मुकाबला कर रहा है।
अब ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान के पास हथियार न हों या उसके पास ड्रोन की तकनीक न हों या उसने एयर डिफेंस सिस्टम पर खर्च नहीं किया है। असली दिक्कत यह हुई कि उसने सस्ते चीनी उपकरण लगाए और महंगे जहाज(अमेरिका से भी) खरीदे थे। एयर डिफेंस प्रणालियों के बारे में जानकार यह कह रहे हैं कि वे हमसे एक जेनरेशन पीछे के हैं और रिवर्स तकनीक से (अर्थात फ़ोटो कापी जैसा तैयार करना) बनाए गए हैं। चीन ने ऐसा क्यों किया या उसने सिर्फ अपने व्यावसायिक हितों की रखवाली के लिए इन्हें, लगाया था यह स्पष्ट नहीं है। हो सकता है कि पाकिस्तान में दलाली ज्यादा हों। वैसे उसके पास पैसे न होने की बात जगजाहिर है। वे एक ही झटके में फेल हुए और हमारी रक्षा प्रणाली ने उनके लगभग सारे हमलों को फेल कर दिया यह इस युद्ध की सच्चाई है। युद्ध विराम की गुहार इसी के चलते हुई और अमेरिकी दखल की मांग पाकिस्तान सदा से करता रहा है। इसलिए युद्ध विराम को लेकर हमारे नेतृत्व को जितनी सफाई देनी है उससे ज्यादा पाकिस्तान और अमेरिका को देनी चाहिए।
पाकिस्तान में सरकार, आतंकवादी और सेना का मतलब एक ही है, यह बात साफ जाहिर हो जाना आपरेशन सिंदूर से सामने आया दूसरा सच है। फौजी अधिकारी मारे गए आतंकियों के जनाजे में शामिल हुए। सारे बड़े आतंकियों को, जिनमें कुछ संयुक्त राष्ट्र द्वारा चिह्नित भी हैं, पाकिस्तान सरकार और फौज ने छुपा लिया। भारत में यह राजनैतिक मुद्दा बना हुआ है कि कार्रवाई के पहले पाकिस्तान को सूचित करने से उसे आतंकियों को छुपाने का अवसर मिल गया। यह राजनैतिक लड़ाई का मुद्दा हो सकता है लेकिन यह बात तो कोई भी समझ सकता था कि पहलगाम नरसंहार के भारत घुसकर मारेगा ही। मामला सिर्फ समय का था कि ऐक्शन में कितना समय लगेगा।
यह आपदा में अवसर बनकर आया था। आतंकी इस हत्याकांड से सरकार को जो संदेश देना चाहते थे वह सरकार ने लिया लेकिन वह जो हिन्दू-मुसलमान और कश्मीरी गैर कश्मीरी का बंटवारा चाहते थे, हमारे मुल्क के लोगों ने उसका करारा जबाब दिया। कई मायनों में यह फौजी जवाब से भी ज्यादा मजबूत और बड़ा था। सिर्फ पक्ष और विपक्ष ही एकजुट नहीं हुए, अगर कभी नरेंद्र मोदी का सरकता कार्टून कांग्रेस ने दिया तो उसे लोगों की प्रतिक्रिया देखकर वापस लेना पड़ा। भाजपा समर्थक यह पोस्ट सोशल मीडिया पर ढंग से चला नहीं कि वापस लेना पड़ा जिसमें कहा गया था कि आतंकियों ने धर्म पूछा था जाति नहीं।
अब आपरेशन सिंदूर की एक नायिका सोफिया कुरैशी को लेकर मध्य प्रदेश के एक मंत्री का बयान उनके साथ ही पार्टी के जान को आफत में डाले हुए है और अदालत काफी लानत मलामत कर रहा है। दूसरी ओर देश भर में रैलियों के जरिए जीत का जश्न मनाना, विदेश में प्रतिनिधिमंडल भेजकर भारत के पोजीशन को स्पष्ट करना और रेल टिकट तक पर विज्ञापन या मुफ़्त का लाइन डालकर आपरेशन सिंदूर को राजनैतिक रूप से भुनाने की तैयारी चल रही है। विपक्ष भी हमलावर है। अगर भाजपा के लोगों को युद्ध के बाद लगातार जीत मिलने का रिकार्ड दिख रहा है तो कांग्रेस को बासठ के युद्ध के बाद नेहरू के प्रताप में गिरावट का प्रसंग याद आ रहा है। ये दोनों बातें सही हैं पर याद रखना होगा कि आपरेशन सिंदूर बासठ का युद्ध नहीं है। क्या पहलगाम का बदला हों गया, क्या आतंकी ठिकाने नष्ट होने से आतंकवाद मिट गया जैसे?
सवाल का जवाब देना आसान नहीं है। पर सबसे मुश्किल सवाल है कि युद्धविराम क्यों और कैसे हुआ? द्विपक्षीय संधि होते हुए अमेरिका बीच में क्यों और कैसे आया? लेकिन इस सवालों की राजनीति के बीच सेना के बुनियादी सवाल को बिसारना नहीं होगा कि लड़ाई बदल गई है। इस अनुभव के आधार पर हमें तेजी से बदलाव करना होगा जो बहुत महंगा भले न हों पर मेहनत, शोध और विकास की मांग जरूर करता है।


