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ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...

संदर्भ : 30 अक्टूबर, मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख्तर का स्मृति दिवस

ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...
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- ज़ाहिद ख़ान

वेवे सरापा ग़ज़ल थीं। उन जैसे ग़ज़लसरा न पहले कोई था और न आगे होगा। ग़ज़ल के बिना बेगम अख़्तर अधूरी हैं और बेगम अख़्तर बग़ैर ग़ज़ल। बेगम अख़्तर ने बतलाया कि ग़ज़ल सिफ़र् पढ़ी ही नहीं जाती, बल्कि इसे संगीत में ढालकर गाया भी जा सकता है। वे बेगम अख़्तर ही थीं, जिन्होंने सबसे पहले कहा, ग़ज़ल भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा का हिस्सा है। एक अहम बात और जो उन्हें अज़ीम बनाती है, उस दौर में जब महिलाएं साहित्य, संगीत और कला हर क्षेत्र में कम दिखलाई देती थीं, तब बेगम अख़्तर देश की उन चुनिंदा गायिकाओं सिद्धेश्वरी देवी, गौहरजान कर्नाटकी, गंगूबाई हंगल, अंजनीबाई मालपकर, मोगूबाई कुर्डीकर, रसूलन बाई में से एक थीं, जिन्होंने सार्वजनिक कॉन्सर्ट दिए। और भारतीय समाज को बतलाया कि महिलाएं भी भारतीय शास्त्रीय संगीत, उप-शास्त्रीय संगीत के गायन में किसी से कम नहीं। 1960 के दशक के मध्य में जब एलपीज चलन में आए, तो जो शुरुआती रिकॉर्डिंग आईं, उसमें भी बेगम अख़्तर के ग़ज़लों की रिकॉर्डिंग थीं। वे बड़े बेलौस अंदाज़ में, बिना किसी तनाव के महफ़िलों में खुलकर गाती थीं। हारमोनियम पर उनके हाथ पानी की तरह चलते थे। अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी बैठकी और खड़ी दोनों ही तरह की महफ़िलों में गायन के लिए पारंगत थीं।

एक दौर था, जब बेगम अख़्तर के अलावा ग़ज़ल गायन के मैदान में दूर-दूर तक कोई नहीं था। उन्होंने ही उप-शास्त्रीय संगीत में ग़ज़ल को सम्मानजनक मुक़ाम तक पहुंचाया। बेगम अख़्तर ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं। बावजूद इसके उर्दू और फ़ारसी अल्फ़ाज़ों से लबरेज ग़ज़लों के तलफ़्फुज़ को वे बड़े ही सरलता से पकड़ लेती थीं और इस अदायगी से गाती थीं कि सुनने वालों के मुंह से वाह-वाह ही निकलता था। उर्दू अदब से उन्हें मुहब्बत थी, ख़ास तौर पर बेहतरीन शायरी उनकी कमजोरी थी। जो कलाम उन्हें पसंद आ गया, अपनी बेहतरीन गायकी से उन ग़ज़लों में उन्होंने रूह डाल दी। बेगम अख़्तर ने जिस शायर का कलाम गा दिया, वह ज़िंदा जावेद हो गया। ग़ज़ल के अलावा बेगम अख़्तर ने भारतीय उप शास्त्रीय गायन की सभी विधाओं मसलन ठुमरी, दादरा, कहरवा, ख्याल, चैती, कजरी, बारामासा, सादरा वगैरह में भी उसी महारथ के साथ गाया। वे ठेठ देशी ढंग से ठुमरी गाती थीं। उनकी ठुमरी में कभी-कभी बनारस के लोक गीतों की शैली का असर भी दिखलाई देता था। बेगम अख़्तर ने ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायकी का लोहा मनवाया।

'उल्टी हो गईं सब तदबीरें', 'दिल की बात कही नहीं जाती (मीर तक़ी मीर), 'वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद...' (मोमिन ख़ान 'मोमिन'), 'ज़िक्र उस परीवश का और फ़िर....', 'वो न थी हमारी किस्मत..' (मिज़ार् ग़ालिब), 'ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया', 'मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवा..' (शकील बदायुनी), 'दीवाना बन जाना..' (ख़ुमार बाराबंकवी), 'आये कुछ अब्र कुछ शराब आए...' (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़), 'कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन, लाख बलाएं...(जिगर मुरादाबादी), 'इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े..' (कैफ़ी आज़मी), 'कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया' (सुदर्शन फ़ाकिर), 'दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे..' (बहजाद लख़नवी), 'सख़्त है इश्क़ की रहगुज़र..' (शमीम जयपुरी), 'अब छलकते हुए सागर नहीं देखे जाते' (अली अहमद जलीली) बेगम अख़्तर द्वारा गायी, वे ग़ज़लें हैं, जो उन्हीं के नाम और गायन से जानी जाती हैं। जिसमें भी उनकी ये ग़ज़ल 'ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया', उस ज़माने में नेशनल ऐन्थम की तरह मशहूर हुई। वे जहां जातीं, सामयीन उनसे इस ग़ज़ल की फ़रमाइश ज़रूर करते।

बेगम अख़्तर की आवाज़ में पुरबिया, अवधी और भोजपुरी बोलियों की मिठास थी। उन्होंने ग़ज़ल के अलावा लोक संगीत को भी अपनी आवाज़ दी। मिसाल के तौर पर उनकी कुछ उप शास्त्रीय बंदिशें जो उस समय ख़ूब मशहूर हुईं, वे इस तरह से हैं-'हमरी अटरिया पे आओ संवरिया..', 'कोयलिया मत कर पुकार करेजवा लागे..', 'छा रही काली घटा जिया मेरा लहराये', 'पपीहा धीरे-धीरे बोल', 'हमार कही मानो हो राजा जी', 'कौन तरह से तुम खेलत होरी', 'जब से श्याम सिधारे..'। बेगम अख़्तर ज़्यादातर ख़ुद ही अपनी ग़ज़लों और तमाम उप शास्त्रीय गायन की धुन तैयार करती थीं। यही नहीं गायन में वे कहन को ज़रूरी मानती थीं। उनका मानना था, जो भी गाओ खुलकर गाओ। बेगम अख़्तर की शख़्सियत और गायन में ग़ज़ब का जादू था। लाखों लोग उन पर फ़िदा थे और आज भी बेगम अख़्तर के गायन के जानिब उनकी चाहतें कम नहीं हुई हैं।


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