Top
Begin typing your search above and press return to search.

क्या हाथ खींच रही है सरकार

आम तौर पर किसानों के गेहूं में टूटे या गीले दानों की मात्रा 6 फीसदी तक होने पर ही उसकी खरीद सरकारी केंद्रों पर होती थी

क्या हाथ खींच रही है सरकार
X

- अरविन्द मोहन

आम तौर पर किसानों के गेहूं में टूटे या गीले दानों की मात्रा 6 फीसदी तक होने पर ही उसकी खरीद सरकारी केंद्रों पर होती थी। इस बार यह सीमा सीधे 18 फीसदी कर दी गई है जबकि गेहूं की कटनी के समय फसल के भींगने और बर्बाद होने की खबर बहुत कम है। बल्कि इस बार फसल रहते हुई बरसात से जब काफी फसल गिर गई थी तब बर्बादी का अंदेशा जताया जा रहा था।

पहली जून को उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय के रिलीज में जब सरकार की तरफ से 30 मई तक गेहूं की 2.62 करोड़ टन अर्थात पिछले साल के 1.88 करोड़ टन से काफी अधिक खरीद की सूचना दी गई तो सभी आर्थिक ही नहीं सामान्य अखबारों ने भी इस खबर को प्रमुखता से छापा। टीवी वालों के लिए ऐसी खबर शायद खबर ही नहीं होती। इसी रिलीज में यह सूचना भी थी कि आनलाइन खरीद से 21 लाख किसानों के खाते में 47000 करोड़ रुपए पहुंच गए हैं।

निश्चित रूप से ये दोनों सूचनाएं महत्वपूर्ण हैं और इनको प्रमुख जगह मिलनी चाहिए थी। पर किसी भी अखबार ने यह समझने की कोशिश नहीं की कि अगर गेहूं उत्पादन और खरीद की स्थिति इतनी अच्छी है तो गेहूं की खुले बाजार की कीमतों में बेमौसम तेजी क्यों दिख रही है। मई के महीने में गेहूं की कीमतें हर साल गिरती ही हैं, चढ़ती नहीं। फिर यह समझने का प्रयास भी नहीं किया गया कि इसी समय चावल की कीमतों में तेजी क्यों दिखने लगी है जबकि पिछले साल फसल अच्छी हुई है और सरकार भी टूटे चावलों समेत लगभग हर किस्म के चावल के निर्यात पर सख्ती जारी रखे हुई है। साल भर में चावल के दाम औसत आठ फीसदी बढ़े हैं।

और धीरज रखें। इस आलेख का मतलब खाद्यान्न संकट या महंगाई के एक और दौर की सूचना देकर आपको आतंकित करना नहीं है। ऐसा हुआ तो सरकार बख्शने वाली नहीं है। उसने गेहूं के निर्यात में भी अभी कोई ढील नहीं दी है जबकि यूक्रेन संकट के बाद पहली बार खुले बाजार में हमारे गेहूं की कीमतें निर्यात लायक बन गई थीं। सरकार की मुस्तैदी में महंगाई की चिंता या आम उपभोक्ता की चिंता न हों यह कहना मुश्किल है लेकिन वह जरूर अगले साल होने वाले चुनाव को लेकर ज्यादा चिंतित है। इसलिए जैसे ही कीमतों में ऊपर-नीचे होता है वह सख्त हो जाती है। संभव है खाद्य तेलों में वैश्विक गिरावट के बाद अपने यहां भी कीमतें कम हों। दलहन में फर्क पड़ा है। हालांकि मामला सिर्फ चना दाल का ही है। अरहर और उड़द अभी भी परेशानी का कारण हैं। दूसरी ओर वह ऐसे आंकड़े खास तौर से प्रचारित करती है जो अर्थव्यवस्था और खास तौर से खेती की तस्वीर बहुत सुनहरी बताते हैं। पिछले साल की गड़बड़ मानसून और फिर बिन मौसम बरसात से बरबाद हुई फसलों के चलते अन्न उत्पादन, खासकर गेहूं के उत्पादन में गिरावट आई लेकिन जब सरकार ने दस तिमाही आंकड़ों में खेती में 4.6 फीसदी के विकास का दावा किया तो काफी लोगों की भौंहें तनी थीं।


इस बार भी गेहूं के उत्पादन और खरीद को लेकर जिस तरह से आंकड़े दिए गए हैं उस पर भी उंगली उठ रही है। आम तौर पर किसानों के गेहूं में टूटे या गीले दानों की मात्रा 6 फीसदी तक होने पर ही उसकी खरीद सरकारी केंद्रों पर होती थी। इस बार यह सीमा सीधे 18 फीसदी कर दी गई है जबकि गेहूं की कटनी के समय फसल के भींगने और बर्बाद होने की खबर बहुत कम है।

बल्कि इस बार फसल रहते हुई बरसात से जब काफी फसल गिर गई थी तब बर्बादी का अंदेशा जताया जा रहा था। लेकिन फसल काटने और दाने निकालने के बाद यह आशंका निर्मूल साबित हुई। पिछले साल फसल कुछ कम हुई लेकिन खराब दाने वाले नियम और खुले बाजार में गेहूं की ऊंची कीमतों के चलते सरकारी खरीद काफी काम हुई थी- 2007 के बाद इतनी कम खरीद नहीं हुई थी। कम खरीद के चलते सरकारी भंडार में भी गेहूं कम रहा। और कोढ़ में खाज की तरह यह भी हुआ कि जब यूक्रेन से आपूर्ति न होने की सूरत में आटा-गेहू का भाव बढ़ने की उम्मीद से आढ़तियों ने काफी गेहूं खरीदा और सीजन बीतने पर दाम बढ़ाना शुरू किया तो कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने अपने स्टाक से गेहूं बाजार में निकाला। कीमतों के मामले में इसका लाभ भी हुआ।

जैसा पहले कहा गया है, सरकारी चिंता का एक कारण चुनाव का पास होना था। फिर उसे कोरोना काल वाली मुफ़्त राशन योजना से भी बाहर निकलना था क्योंकि वह गले में फांस बनता जा रहा था। लेकिन उससे बड़े कारण की कोई चर्चा नहीं हुई जबकि साल भर से ज्यादा चले किसान आंदोलन और सरकार द्वारा तीनों विवादास्पद कानून वापस लेने के समय सरकार की सोच पर काफी चर्चा होती रही थी। बड़ा कारण यह है कि सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली और अनाज की सरकारी खरीद योजना से ही बाहर आना चाहती है। और विश्व बैंक-आईएमएफ जैसी संस्थाओं की यह सलाह भूमंडलीकरण अभियान की शुरुआत से पहले का है। सलाह ही नहीं उनका दबाव भी रहा है। और इसके चलते हमारे यहां बनी-बनाई दलहन और तेलहन विकास योजनाओं को जब सरकार ने ठंडे बस्ते में डाला था तब कुलदीप नैयर द्वारा दी गई इस सूचना पर काफी हंगामा मचा था। आज हम सब दलहन का संकट बार-बार झेल रहे हैं जबकि खाद्य तेल का आयात बिल पेट्रोलियम के बाद दूसरे नंबर पर बना हुआ है।

सरकार अगर चुनाव की चिंता से इतनी मुस्तैद है तो उसे बड़ी बातों का पता न होगा यह मानना बेवकूफी होगी। पिछले ही साल जब फसल खराब होने के नाम पर सरकारी खरीद में सुस्ती बरती गई, और यूक्रेन के नाम पर बाजार की सक्रियता बढ़ी तो सरकार के खाते में 76000 करोड़ रुपए बचाने का अनुमान है। खरीद और रख-रखाव का बजट 1.32 लाख करोड़ का था और खर्च हुए मात्र 55973 करोड़ रुपए। खरीद भी मात्र 1.88 करोड़ टन की हुई जिसके चलते गेहूं का स्टाक 5.25 करोड़ टन से गिरकर तीन करोड़ टन के आसपास आ गया। यह सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के लिए तो कम न था लेकिन कीमतें घटाने के लिए सरकार द्वारा बाजार में गेहूं उतारने की स्थिति के लिए कम था। इसलिए निर्यात आयात के मामले में बेवजह सख्ती हुई। इस बार भी स्टाक पहली जरूरत का है। दूसरे की नौबत आई तब क्या होगा कहना मुश्किल है।

इधर हर सरकार सरकारी खरीद, अनाज के रख-रखाव और राशन वितरण प्रणाली के खर्च को लेकर परेशान रही है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को तो काफी मांज दिया गया है और वह काफी हद तक 'टारगेटेड' बन चुकी है। लेकिन खरीद और रखरखाव के खर्च से हाथ खींचकर सरकार उस धन का क्या कर रही है यह साफ नहीं है। अगर यह खेती-पशुपालन के विकास और सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को बेहतर करने पर लगे तो बात बने। लेकिन खाद्य सुरक्षा प्राथमिकता होती तो सरकार हाथ खींचने का जतन क्यों करती।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it