साहित्यकारों और पत्रकारों के सामने आज बहुत बड़ी चुनौती - ममता कालिया
मशहूर साहित्यकार ममता कालिया मानती हैं, सियासत का असली उत्तराधिकारी राहुल गांधी। केवल जुमलेबाज़ी से नहीं चलता देश। आज अघोषित आपातकाल। साहित्य की आज बड़ी भूमिका

हिन्दी साहित्य में अहम मुकाम हासिल करने वाली जानी मानी लेखिका ममता कालिया बेशक 85 साल की हो चुकी हों, लेकिन उनके भीतर का साहित्यकार लगातार सक्रिय रहता है। ममता जी देश की सियासत को भी काफी करीब से देखती रही हैं और उनकी कहानियों, उपन्यासों और तमाम रचनाओं में आप समाज और सियासत की एक बेहद संवेदनशील लेकिन बारीक बुनावट देख सकते हैं। 2 नवंबर 1940 को वृंदावन में जन्मीं ममता जी ने अपना वक्त इंदौर, नागपुर, दिल्ली, मुंबई और इलाहाबाद जैसे शहरों में गुज़ारा और पिछले सात दशकों से लिख रही हैं। साहित्य की हर विधा में ममता जी की दखल है – कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, आलोचना, निबंध संस्मरण और अनुवाद तक। अबतक करीब 40 किताबें ममता जी ने लिखी हैं और उन्हें व्यास सम्मान से लेकर तमाम प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान मिल चुके हैं। ममता कालिया से देशबंधु की ओर से अतुल सिन्हा ने तमाम मुद्दों पर विस्तार से बात की।
ममता जी, शुरुआत हम करते हैं आपके रचना कर्म से। इतना समय हो गया करीब 60 साल हो गए। इतना लंबा सफर। कैसे लिखना पढ़ना शुरु हुआ आपका?
हां जी, 60 से भी ज्यादा साल हो गए क्योंकि मैंने तो बचपन में ही लिखना शुरू कर दिया था और मुश्किल से मैं 11- 12 साल की थी जब मैंने बच्चों की कहानियां लिखनी शुरू कर दी थी और मजेदार बात ये है कि वो सब धर्मयुग में छप गई थीं। तीन कहानियां लिखी थीं, तीनों छप गईं। हम बड़े खुश हुए। उसका पारिश्रमिक भी मिला था। हमने कहा ये तो बड़ी अच्छी बात है। क्योंकि मेरे पिता आकाशवाणी में थे तो हमारे घर में कलाकार साहित्यकार बहुत आते थे। कवि और संघर्ष करने वाले बुद्धिजीवी बहुत आते थे। मुझे बड़ा अच्छा लगता था। हमारे घर में उनकी बहुत इज्जत थी। पापा उनसे घंटों बातें किया करते थे। मेरे पापा एक तरह से मेरे नायक थे। तो मैं सोचती थी कि मुझे ऐसा काम करना चाहिए जिससे पापा की निगाहों में ऊंची रहूं। मेरे मन में बहुत पहले ये सपना बैठ गया था कि मुझे साहित्यकार बनना है। एक बार मुक्तिबोध जी हमारे घर आए थे। तो मुक्तिबोध जी को देखा मैंने। हमारे घर में बिस्तर एक जमीन पर बिछा रहता था चौड़ा सा। पापा बैठक कहते थे उस जगह को। वहां वो जाकर जब चादर पर बैठे मसनद के सहारे, तो उनका पैर बहुत लंबा था। उनका पंजा इतना लंबा था उनके पंजे की छाप बहुत लंबी पड़ी हुई बिस्तर के ऊपर तो मैंने कहा अरे बड़े लेखक का पंजा इतना लंबा होता है। मैं छोटी सी थी उस समय तो। मेरे अंदर आकर्षण लिखने का तब से ही था। फिर बीच में मैं अपनी पढ़ाई में लग गई। नहीं लिखा मैंने उसके बाद। फिर सन 57 में पापा के एक कवि मित्र राम बहादुर सिंह मुक्त जी आए। उन्होंने पुणे से थछछपने वाली पत्रिका राष्ट्रवाद का अंक दिखाया। उसमें मन्नू भंडारी की कहानी छपी थी। उन्होंने मुझसे कहा कि देखो कहानी ऐसे लिखते हैं, तुम क्या लिखती रहती हो। तो उनकी ये बात मुझे एक चुनौती लगी। दूसरा मेरे अंदर पढ़ने की इच्छा जागी। फिर मैंने वो कहानी पढ़ी। मुझे बहुत अच्छी लगी और मुझे लगा ऐसे लिखना चाहिए। तो मेरे मन में कई लोगों की परते बनीं और मुझे ये लगा कि मेरे लिए लिखना ही एक मात्र विकल्प है।
लेकिन उस दौर में जब आप लिखती थीं तब समाज की, परिवारों की और राजनीति की स्थितियां बहुत अलग होती थीं। तब और अब में बहुत साल गुजर गए। बहुत सारे दौर आपने देखे। कांग्रेस की सरकार देखी, बीजेपी की देखी, समाजवादियों की देखी, मिलीजुली सरकारें देखीं। उस दौरान जो रचना कर्म था और आज जो रचना कर्म है इसमें आप किस तरह का फर्क देखती हैं?
मैं ये कहूंगी कि उस दौर में रचना करना कहीं ज्यादा सरल था, सम्मानजनक था और संभव था। क्योंकि उस दौर में इस तरह की परेशानियां नहीं थीं या प्रतिबंध नहीं थे जो आज हम अपने अंदर महसूस करते हैं। लिख मैं आज भी रही हूं और लिखती मैं तब भी थी लेकिन मैं यह कहूंगी कि तब लिखने का मतलब यह होता था हम अपने जीवन के रस को ढूंढ रहे हैं और जीवन की समस्याओं से टकरा तो रहे हैं लेकिन हार नहीं रहे हैं। यह बात लगती थी मुझे जब भी लिखते थे मन में ये रहता था कि जीवन में लेखक जो है वो हमेशा विजेता रहता है। अब ऐसा लगता है कि लिखना ज्यादा जटिल हो गया है। क्योंकि जीवन भी जटिल हो गया है और समाज में इतनी परत हो गई है, अब हम जिसको भला समझते हैं कई बार वो बड़ा कुटिल निकलता है। मनुष्य के स्वभाव की आप गारंटी नहीं ले सकते। धीरे-धीरे क्या हो रहा है, देखिए अतुल जी, वस्तुओं की गारंटी बढ़ती जा रही है, पंखे की गारंटी लाइफ टाइम की हो गई, मिक्सी की गारंटी लाइफ टाइम की हो गई, लेकिन मनुष्य की गारंटी अगले पल की नहीं है कि वो शपथ लेते लेते कब वो दूसरी पार्टी में चला जाएगा। तो ये हालत है। वो नामांकन भरते भरते दूसरी पार्टी में चला जाएगा। आदमी आज जो आपसे कह रहा है कि मैं आपके प्रति वफादार हूं कल वो बेवफाई करके चला जाएगा। ये क्या मतलब है? कैसा समाज बनता जा रहा है? हालत ये हो गई है कि धीरे धीरे स्कूली बच्चों के स्तर पर भी आप देखिए। मैं क्योंकि शिक्षक रही हूं पूरे जन्म मैंने पढ़ाया है तो आज बच्चे जब कहते हैं कि उनका पेपर बहुत अच्छा हुआ है लेकिन पता चलता है कि पास होने को तरस गए। और जो बच्चा कुछ भी नहीं कर रहा है ठीक से काम उसको ज्यादा नंबर मिल गए। तो मुझे लगता है कि आज चीजों को समझना एक चुनौती बन गया है। जीवन को समझना भी एक चुनौती बन गया। राजनीति का जो स्तर है, पहले भी आपने देखा, कम से कम भाषा की एक मर्यादा होती थी। बातचीत में या फिर किसी भी पब्लिक प्लेटफॉर्म पर वो मर्यादाएं खत्म होती जा रही हैं। अब उसका स्तर लगातार इतना नीचे चला गया है कि उस पर बात करते हुए भी हमें उलझन सी होती है।
आपको क्या लगता है कि क्यों ऐसा हुआ ऐसी स्थिति क्यों हो गई
देखिए हमने वो दौर भी देखा है अपने समय में। मुझे अभी तक याद है कि हम पंडित नेहरू का भाषण सुनने के लिए कितने बड़े-बड़े मैदानों में जाते थे और खड़े रहते थे और उनका भाषण सुनते थे यहां तक कि हम अटल जी का भी भाषण सुनने जाया करते थे क्योंकि वो बहुत अच्छे वक्ता थे और हम उनसे प्रेरित होकर लौटते थे। मुझे याद है कि एक बार इंदौर के होलकर कॉलेज में ईएमएस नंबूदरीपाद भाषण देने वाले थे और हम गए। उन्होंने अर्थव्यवस्था पर इतना सारगर्भित भाषण दिया कि मैं बहुत प्रभावित हुई। मैंने उनसे कहा कि आई एंजॉयड योर लेक्चर तो उन्होंने मुझसे कहा व्हाट वाज एंजॉयबल अबाउट इट। तो मैं एकदम से हक्का बक्का रह गई। मैंने कहा कि एंजॉय कहना गलत शब्द था। मुझे इंस्ट्रक्ट कहना चाहिए था एनलाइटनिंग कहना चाहिए था। मैं बीए की स्टूडेंट थी जितना मुझे आता था उस हिसाब से। मुझे याद है प्रकाशवीर शास्त्री हों चाहे दिनकर जी हों हमने जब भी उन लोगों को सुना तो क्या धड़ल्ले से वो बोला करते थे और लाल बहादुर शास्त्री भी अपने तरीके से ओजस्वी भाषण देते थे और बड़ी ईमानदार तरीके से बोलते थे लेकिन आज तो मुझे लगता है कि कोई ऐसा नेता नहीं बचा है कि जिसको आप सुनना चाहेंगे। जो कभी कभी बोला करते थे वो अब चुप रहते हैं। प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी ये लोग बोलते थे फायर ब्रांड तरीके से बोलते थे। मुझे लगता है कि लोगों में मोहभंग की स्थिति आ गई है। इस समय अच्छे लोग ऐसा महसूस कर रहे हैं कि जब हमारे सोचने या हमारी बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है तो हम क्या करें। निरपेक्ष हो जाते हैं, बोलना बंद कर देते हैं। आज न जाने कितने अच्छे अच्छे लीडर्स हैं जो बिल्कुल पृष्ठभूमि में बैठे हुए हैं।
तो क्या यह हथियार डालने वाली स्थिति है? ऐसे में तो फिर आपका अस्तित्व ही क्या रह जाएगा?
हथियार डालने वाली स्थिति नहीं खिन्नता की स्थिति है। मैं तो कहूंगी कि राजनीति से वैराग्य होता जा रहा है लोगों का। विचारशील लोगों को वैराग्य होता जा रहा है क्योंकि राजनीति धीरे-धीरे एक नौटंकी का रूप ले रही है। एक एब्जर्ड नाटक जैसा लगता है मुझे तो रोज। कोई एक नई मुनादी कर दी जाती है। रोज कोई एक नया जुमला फेंक दिया जाता है। राजनीति केवल जुमलो पर नहीं टिकी रह सकती है। लोगों को विचार चाहिए। सबसे पहले तो लोगों को अनाज चाहिए खाने के लिए। आप केवल जुमलो के ऊपर नहीं टिका सकते हैं। मोदी जी अनाज बांट रहे हैं। आप एक मन की बोरी में 5 किलो गेहूं देकर जनता को प्रसन्न नहीं कर सकते हैं। तो आप ये देखिए कि धीरे-धीरे राजनीति में विचार का तो क्षरण हो रहा है और प्रचार का बाहुल्य हो रहा है। हम अखबार खोलते हैं अखबार में पढ़ने को कुछ नहीं होता है। एक जमाना था अखबार पढ़ने में दो घंटे लगते थे। आज हालत ये है 15 मिनट में अखबार चुक जाता है। क्योंकि अखबार में हमें सूचनाएं मिलती हैं, विज्ञापन मिलते हैं और बड़े बड़े चेहरे देखने को मिलते हैं राजनीतिक। हम उन चेहरों को कितनी बार देखें... एक चेहरे को हम कितनी बार देख सकते हैं... कितने पेपर में देख सकते हैं.. हिंदी में अंग्रेजी में.. गुजराती में.. मराठी में। तो मुझे यह लगता राजनीति बहुत तेजी से ढलान की तरफ है। इस समय राजनीति में थोड़ा सा विचार होना चाहिए, विचारवान लोग होने चाहिए जो ऐसी बात कहें कि लोगों को गाइडेंस मिले। हमारे देश में अभी भी सारी साक्षरता के बावजूद निरक्षरता बहुत है। तो वो बेचारे आपकी तरफ टकटकी लगाए देख रहे हैं कि आप कुछ कहेंगे। आप केवल तालीबजाऊ भाषण नहीं दे सकते हैं.. आप केवल ताली बजवा देंगे। लोग घर जाएंगे और घर जाते तक भूल जाएंगे किस बात पर ताली बजाई थी। उन्होंने ये कोई तमाशा नहीं लगाया है.. सरकस नहीं हो रहा.. राजनीति और सर्कस में फर्क होता है। मुझे लगता है कि बुद्धिजीवी के लिए इस समय बहुत चिंता का समय है।
पिछले 10-11 साल का जो दौर है, खास तौर से इस दौर में और 75 यानी इमरजेंसी के दौर में आपको क्या फर्क लगता है
देखा जाए तो 75 का दौर भी बहुत खराब था। जब हमारे देश में आपातकाल लगा था तब मैंने देखा कि लोगों के मनोविज्ञान पर बहुत बुरा असर पड़ा था। वो स्थिति तो थी ही कि आप बोल नहीं सकते थे और अनुशासन के प्रति एक ऐसा कड़ा रुख था कि जैसे मिलिट्री रूल होता है। ना आप किसी भी तरह से उससे बाहर नहीं निकल सकते। मुझे याद है, रेडियो पर कहा जाता था 9 बज गए दफ्तर चलिए। ये कहा जाता था कि अनुशासन ही देश को महान बनाता है। फिर नसबंदी की हालत ये थी कि माना जाता था कि पकड़ पकड़ बूढ़े लोगों की नसबंदी की जा रही है, बैचलर्स की भी नसबंदी की जा रही है। एक दहशत का माहौल बन गया था और इमरजेंसी में बेगुनाह लोगों को पकड़ पकड़ के अंदर डाला गया है। मुझे लगता है आज भी अलिखित किस्म की आपातस्थिति आई हुई है। अभी बोलने में डर लगने लगा है कि हम बोलेंगे तो हमें हो सकता है कि या तो घर में ही नजरबंद कर दिया जाए या हो सकता है कि हमें समझिए कि जेल में ठूंस दिया जाए। एक जीप आए और पकड़ के हमें ले जाए क्योंकि कितने ही बेगुनाह लोग इस समाज में इस समय जेल के अंदर हैं। तो यह बहुत चिंताजनक स्थिति है हमारे लिए।
तो यह जो दहशत की स्थिति अभी बनी है इसके पीछे आपको क्या लगता है कि हमारी जो सत्ताधारी पार्टी है, हमारे देश के जो महान नेता हैं, प्रधानमंत्री जी हैं, उनका क्या अप्रोच है? वो तो कहते हैं कि देश में लोकतंत्र है, मतलब ऐसा क्या हमने कर दिया जिससे लोग डर रहे हैं। तो क्या सचमुच ऐसा है लोग डरें नहीं? या फिर एक अघोषित सा डर है?
देखिए एक तरफ डर तो है ही क्योंकि बहुत सारे बेगुनाह लोग इस समय छोटे छोटे कारणों से जेल के अंदर हैं। लेकिन दूसरी बात जो मुझे बहुत चिंताजनक लगती है वो यह कि आज विपक्ष बहुत कमजोर हो गया है। अगर विपक्ष के पास वैचारिक शक्ति ज्यादा हो और विपक्ष के पास निर्भीकता ज्यादा हो, बेधड़कपना हो उनके अंदर, तो मुझे लगता है लोगों को एक तरह से विटामिन या टॉनिक की डोज मिल सकती है। लोगों को कहीं से तो ताकत मिले। अब हालत ये कि ताकत देने वाला कोई नहीं बचा है। लेखकों को भी जिन मुद्दों पर लिखना चाहिए जैसे परसाई जी थे, वो भिड़ जाते थे वो राजनीतिक मुद्दों पर लिखते थे, प्रतीक बना कर लिखते थे लेकिन होता राजनीतिक मुद्दा था। वो ऐसे अपना समय नष्ट नहीं करते थे। आज धीरे-धीरे हो ये गया है कि व्यंग्य लेखक हो या कोई और लेखक वह अन्य विषय ले लेता है, राजनीति को छोड़ देता है। यह सोच के कि इसके परिणाम मेरे लिए अच्छे नहीं होंगे। ज्यादातर लेखकों को हमने देखा कि वो जो धार्मिक और आध्यात्मिक पात्रों पर चले गए हैं। सारे का सारा लेखा देख लीजिए। वो एक जमात है बुद्धिजीवियों की, लेखकों की, रचनाकारों की जो सोची समझी रणनीति के अंतर्गत ऐसा कर रहे हैं। जैसे हरिश्चंद्र ने जो लिखा - वैदिक हिंसा हिंसा न भवती वही हालत है। वे मान के चलते हैं कि अगर दिखानी भी है हिंसा तो घटोत्कच को दिखाओ। वो यह मान के चलते हैं कि पुराण में चले जाओ सबसे अच्छी शरण वही है। हमने वो कभी स्वीकार नहीं किया। हम मौजूदा समय पर लिखते हैं जी ठीक है। क्योंकि चुनौती तो आज के समय की है भाई, हम पौराणिक काल में जाकर क्या करेंगे। वो भी एक तरह से रचना है आप उस रचना को यथार्थ बना रहे हैं। यानी आप मिथक में यथार्थ मिला रहे हैं। यथार्थ में मिथक मिला रहे हैं, इतिहास में गप्प मिला रहे हैं, गप्प में इतिहास मिला रहे हैं। अरे कर क्या रहे हैं आप। ये बाजीगरी है। मैं सोचती हूं कि आज साहित्यकार के सामने भी और पत्रकार के सामने भी यह बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन पत्रकार भी कहीं ना कहीं देखिए किसी जिम्मेदारी से बंधे हुए हैं, किसी नौकरी से बंधे हुए हैं जबतक इस समय का दौर ऐसा है, मुझे लगता सबसे अधिक आक्रमण की रेंज में अगर कोई है तो पत्रकार है। वह जाता है किसी जगह साक्षात्कार लेने या किसी जगह प्रश्न पूछने तो उसके पास तो एक अदना पुलिस सिपाही भी नहीं होता। आज मैंने देखा है कि काउंसिल का भी जो मेंबर होता है वो दो हथियारबंद आदमी लेकर चलता है साथ में। मुझे तो यह देख के बड़ा अजीब लगता है कि हम यह नहीं सोचते कि कल को इसका क्या परिणाम होगा। नहीं तो ये जो सत्ताधारी पार्टी का जो पूरा अप्रोच है, जिसे तमाम लोग कहते हैं कि तानाशाही की स्थिति आ गई है और पूरी तरह अघोषित सेंसरशिप है। मीडिया पर पूरी तरह कब्जा है सरकार का।
लेकिन आम लोगों के अंदर का यह गुस्सा चुनावों में क्यों निकल कर सामने नहीं आता। क्या आने वाले वक्त में ऐसा होगा, आपको ऐसा लगता है? साहित्यकारों या लेखकों की क्या भूमिका हो सकती है इस दौर में..
देखिए हमारे देश में क्या है कि ये जाति कार्ड और स्त्री कार्ड जैसी चीजें चुनाव के समय बहुत प्रबल हो जाती है। आपने देखा होगा। क्योंकि वो सोचते हैं कि इन लोगों को विभाजित रखो तो हमको वोट मिलेगा। यह माना जाता है चुनाव के समय में और मैं देखती हूं कि इसी की पड़ताल करते हुए कितनी रचनाएं लिखी गई हैं। आप ये देखिए कि उनकी संख्या भले कम हो लेकिन वो सीधी वार करती हैं आपके मनोविज्ञान पर और आपको चुनौती देती हैं कि सही तरीके से सोचो। अनिल यादव की कहानी है गौसेवक जिसमें साफसाफ पता चल रहा है कि बेगुनाह आदमी पर आप गौहत्या का आरोप लगा रहे हैं। इसी तरह उसका एक यात्रा संस्मरण है यह भी कोई देश है महाराज। इसी तरह से बहुत अच्छी कहानियां है दलित चेतना की। दलित शक्ति सामने आ रही है। लोग भले उसे दबाएं लेकिन वह शक्ति सामने आ रही है। दलित चेतना पर न जाने कितना लिखा गया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि, श्यौराज सिंह बेचैन से लेकर कई रचनाकार हैं। हाल रही मैंने एक बहुत अच्छी कहानी दलित चेतना पर मोहम्मद आरिफ की पढ़ी। आप ये देखिए कि लिखा तो बहुत जा रहा है। सब लोग जो है ये सवाल उठा रहे हैं। एक लेखक का काम क्या है। देखिए हमारे पास ऐसा समाधान नहीं क्योंकि हमारे पास राजनीतिक शक्ति नहीं है तो हम लोग यही कर सकते हैं कि जो समाज में असमानता हमें दिख रही है या जो हमें समाज में इस समय दुर्नीतियां दिख रही हैं, हम उनको रचनात्मक तरीके से दिखा सकते हैं। आप देखिए, यह समय भी बहुत जटिल है। हम सारा का सारा आरोप राजनीति के खाते में नहीं डाल सकते। इस बीच में कोरोना हुआ, महामारी के रूप में जो दो-ढाई साल हमारे बीते हैं यह भी मानवता के लिए बहुत ही जटिल समय रहा है। और इसकी वजह से भी मुझे लगता है कि मानवीय गुणों में भी पतन आया है, गिरावट आई है। इसका राजनीतिक इस्तेमाल बहुत हुआ है लेकिन यह जो स्थितियां हैं वो तो हैं ही।
लेकिन पिछले 10-11 सालों में जो हालत हुई है भारतीय लोकतंत्र की और आप बार-बार यह कह रही हैं कि विपक्ष से कोई उम्मीद नहीं है...
नहीं यह नहीं कहा मैंने कि उम्मीद नहीं है। मैं ये मानती हूं कि उनके अंदर अभी साहस की थोड़ी कमी है। हां, लेकिन अभी फिलहाल जो मौजूदा स्थिति है और इस कठिन समय में बिखरा हुआ विपक्ष जिस तरह से एकजुट हुआ है और जो कांग्रेस कमजोर हो गई थी उसमें जीवन फूंकने की फिर से कोशिश होती रही है और चुनाव में जिस तरह से तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद सब इकट्ठे नज़र आए, ऐसे में चुनौतियों से मुकाबला करने की ताकत भी बढ़ी ही है। लेकिन जिस तरह चुनाव आयोग का इस्तेमाल हो रहा है और संवैधानिक संस्थाएं उनके कब्ज़े में हैं, उससे जनता का भरोसा भी तो टूटा ही है। वोटिंग के दौरान चुनाव आयोग अगर सोया हुआ हो और उसे जगाना पड़े और ये बताना पड़े कि चुनाव में भी एक मिनिमम होता है उस मिनिमम की लाइन या ग्रेस लाइन को अगर मान लीजिए फिर भी आयोग को सोचना तो चाहिए न। इतना महंगा चुनाव, इतनी महंगी वोटिंग, एक एक वोट जाने कितने हजार की पड़ रहा है जितने स्टाफ को ड्यूटी पर लगाया हुआ है, फिर जितने सिक्योरिटी के लोग लगे हुए हैं। ये कोई तरीका नहीं है। लोकतंत्र अगर था तो किसानों की बात आप सुनते। भले ही आप ना करते आप बात तो सुनते। ये जो हालत है इस देश में इस समय कि किसी की सुनवाई भी नहीं हो रही है। अगर किसी के अंदर शिकायत है तो उसकी सुनवाई भी नहीं हो रही ये कैसा लोकतंत्र है। वही याद आता है ना बार-बार रघुवीर सहाय की कविता अधिनायक की याद आती है – राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य-विधाता है /फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है
विपक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद मोदी जी तीसरी बार आ गए। ऐसे दौर में आप क्या महसूस करती हैं
अगर मोदी जी तीसरी बार सत्ता में आ ही गए तो इसमें हम लोग तो कुछ कर नहीं सकते। ठीक है जो उनके तौर तरीके हैं और जो उनकी सीमाएं हैं, वो तो वही करेंगे। जाहिर है अब इस उम्र में हम उन्हें स्कूल तो नहीं भेज सकते हैं। लेकिन अब उनको थोड़ा संभल के काम करना पड़ेगा। क्योंकि देश का नागरिक काफी जागरूक होता जा रहा है। साक्षरता बढ़ती जा रही है। स्त्रियां सामने आ गई हैं। मैं तो कहती हूं ये एक किस्म की चाल है कि स्त्रियों को ज्यादा टिकट नहीं दी जाती चुनाव में। क्यों नहीं दी जाती? स्त्रिया आज बोलने के लिए सक्षम हैं, स्त्रियां अपना भला बुरा समझती हैं तो आप उन्हें पर्याप्त संख्या में टिकट क्यों नहीं देते भाई, जब आधी आबादी है तो आधी आबादी कहते आधी टिकट क्यों नहीं मिलती। उनको अभी तो 33 फीसदी पर आरक्षण ही नहीं मिल रहा है। उसी पर रुके बैठे हैं और जो स्त्रियां रखी जाती हैं वो शोभा का पौधा बन जाती हैं जो बोलने वाली है औरत, उनसे तो आप लोग बहुत घबराते हैं, उनको पदम देकर उनका मुंह बंद कर देते हैं। जैसे भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस का जो लंबा इतिहास रहा है। अब यह पिछले 10-11 सालों में जो एक प्रवृत्ति आई है कि मोदी और शाह के अलावा पार्टी के अंदर भी और संघ के अंदर भी किसी की कोई सुनवाई नहीं होती। मुझे लगता है कि उनके अपने दल में भी असंतोष है। उनके अपने दल में भी लगता है कि जैसे मुखिया को एक गिरोह के अंदर बंद कर दिया गया है। एक चौखट के अंदर। उससे बाहर के लोगों को वो देख नहीं पाते। यह तभी होता है जब आप अपनी आत्मप्रशंसा में फंसे होते हैं और आप अपनी प्रशंसा सुनने के इतने आदी हो जाते हैं। कमलेश्वर की एक बहुत अच्छी कहानी है। उसमें उन्होंने बताया कि एक राजा था। जब तक उसकी ‘जय हो जय हो’ ना करो, उसे नींद नहीं आती थी और ‘जय हो जय हो’ करते थे तभी वो सुबह उठता था, जागता था तो एक दिन वो जय हो जय हो करने वाले नहीं आए सवेरे और राजा सोता रहा दोपहर तक सोता रहा। तो किसी ने कहा लेकर आओ तो भाड़े के कुछ लोग लाए गए। कोई गुब्बारे वाला मिला तो उसको पकड़ लाए, कोई चाट वाला मिला तो उसे पकड़ लाए, पकौड़े वाला मिला तो उसे पकड़ लाए कि चलो, राजा की जय हो जय हो करो, तब जाके वो उठेगा। ऐसी नींद होती है।
सत्ता की नींद जो है ना बड़ी भयानक नींद होती है। गाढ़ी नींद होती है। मैंने तो कुछ समय एक पोस्ट भी लगाई थी और यही कहा था कि इस देश में अगर कोई व्यक्ति सही मायनों में उत्तराधिकारी है राजनीति का तो वो राहुल गांधी है। उसने अपने घर में मासूम उम्र में दो दो हत्याएं देखी हैं। राजनीतिक हत्याएं देखी हैं और वो भी विश्वास में की गई उसकी दादी की हत्या। उस समय इंदिरा गांधी अपने दो सिख रेजीमेंट के अंगरक्षकों के साथ लॉन में आ रही थीं जिस समय उनको गोली मार दी गई। उन्होंने उन्हें हटाया नहीं जब किसी ने कहा था कि ये लोग बदल दीजिए आप तो उन्होंने कहा क्यों बदल दूं मैं, मेरा तो उनसे कोई झगड़ा नहीं है। उन्होंने अपने सुरक्षा गार्ड नहीं बदले थे। यह लोकतंत्र था कि उन्होंने नहीं बदले थे और वो मारी गईं। राहुल की क्या उम्र थी उस समय। राहुल के पिता खुली आम सभा में श्रीपेरम्बदूर में भाषण दे रहे थे। एक छोटी सी लड़की आती है दुबली पतली और उनके चरणों में झुकती है। वो सोचते हैं कि यह मुझे प्रणाम कर रही है लेकिन वो नहीं जानते थे कि उसके अंदर बम बंधे हैं और वह सुसाइड स्क्वाड थी। जैसे हमारे महात्मा गांधी जी मारे गए थे। गांधी जी को भी प्रणाम करने के लिए गए थे लोग जब वो मारे गए तो। आप ये देखिए हमारे देश में इतनी हत्याएं हुई हैं और कांग्रेस ने तो बहुत झेला है इस चीज को। कांग्रेस अभी भी लगातार खतरे उठा रही है। आप देखिए, राहुल गांधी का तो मुझे इतना खतरा लगता है कि यह सब जानते हुए भी कि उनकी मां सोनिया गांधी ने अपना पति खोया, अपनी सास खोई, अपना देश छोड़ा इसके बाद भी उन्होंने अपने बच्चे को, राहुल गांधी को इतने खतरे में डाला हुआ है। राहुल गांधी कहीं भी जाते हैं, क्या सुरक्षा है उनकी? कोई नहीं। वो जाते हैं खुली जीप में जाते हैं। कोई भी ऊपर से उन्हे मार सकता है जैसे कैनेडी को मारा गया था। गगनचुंबी इमारत से उन्हें मारा गया था। नीचे कोई भी मार सकता है। मैं तो जब राहुल गांधी को बाहर देखती हूं तो मुझे लगता है भले ही ये आदमी हो सकता है कि वह बहुत इंटेलिजेंट न हो, हो सकता है कि वो बहुत राजनीतिक भी न हो, हो सकता है कि वो बहुत प्रखर भी न हो लेकिन वो एक शरीफ आदमी है। वो एक भला आदमी है। वो देश का भला सोचता है। वो गांवों में जाता है। आज हालत यह हो गई है कि बाकी जो कर्मचारी और और कार्यकर्ता हैं वो एसी कमरों में पड़े हुए ऐश करते हैं, वो मुर्गे की टांग चबाते हुए बड़े खुश होते हैं और वो सत्ता का सुख भोग रहे हैं लेकिन वो अकेला आदमी जो घूम घूम के गांव गांव में धूप में घूम रहा है। इस समय तो मैं तो कहती हूं भले ही राहुल गांधी चुनाव जीते, ना जीते पर जीता रहे।
बेशक, ममता जी। आपने बड़ी साफगोई से चीजें सामने रखीं, बेशक ये हमारे पाठकों के लिए बेहद उपयोगी होगा। आप लगातार लिखती रहें, स्वस्थ औऱ सक्रिय रहें। बहुत शुक्रिया हमारे साथ बात करने के लिए।
आपका भी शुक्रिया अतुल जी। आज के दौर में जब पत्रकारिता पर पहरा है, मीडिया सरकार के दबाव में है, देशबंधु निष्पक्ष और जनपक्षधर पत्रकारिता की अपनी परंपरा को आगे बढ़ा रहा है, यह उत्साहजनक बात है। बहुत शुभकामनाएं।


