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RSS के एजेंडे को बढ़ने देना कांग्रेस की ऐतिहासिक भूल - विष्णु नागर

जाने माने साहित्यकार विष्णु नागर कहते हैं कि मोदी सरकार ने सभी संस्थाओं पर कब्जा किया, देश में अघोषित इमरजेंसी, कथित हिन्दू या सनातन विमर्श पर किया करारा हमला


जाने माने साहित्यकार, कवि औऱ पत्रकार विष्णु नागर देश की राजनीति को बहुत गहराई से देखते रहे हैं। उनके तीखे राजनीतिक व्यंग्य असरदार होते हैं और टिप्पणियां खासी चर्चित रही हैं। अब तक करीब पचास से ज्यादा किताबें लिख चुके विष्णु नागर 75 साल के हो चुके हैं लेकिन उनका लेखन बदस्तूर जारी है। अपनी ताजा किताब ‘ऐसा मैं हिन्दू हूं’ में मोदी सरकार और कट्टर हिन्दूवादी सोच के खिलाफ उन्होंने बेहद व्यंग्यात्मक तरीके से कई कविताएं लिखी हैं। दक्षिणपंथी सोच और तानाशाही हुकूमत को बेनकाब करने वाला उनका लेखन समय समय पर सोशल मीडिया और तमाम मंचों पर सुनने पढ़ने को मिलता रहा है। मौजूदा दौर में विष्णु नागर देश को किस दिशा में जाते हुए देख रहे हैं, उनका राजनीतिक चिंतन क्या है और उनकी साहित्यिक यात्रा के साथ साथ उनका पत्रकारीय अनुभव कैसा रहा है, ऐसे तमाम सवालों पर देशबंधु ने उनसे विस्तार से बात की।


विष्णु जी, आज के दौर में अपने देश में जिस तरह की राजनीति चल रही है, आपको क्या लगता है कि पिछले 10-12 सालों में क्या क्या बदला है?

बहुत कुछ बदला है। इतना ज्यादा बदला है कि अब इस देश को पुरानी पटरी पर लाना किसी के लिए भी बहुत कठिन होगा। बहुत चुनौतीपूर्ण होगा। जो पिछली सरकारें थीं उनमें कहीं न कहीं एक न्यूनतम लोकतांत्रिक मूल्य थे। आप इमरजेंसी के उस पीरियड को छोड़ दीजिए। लेकिन उसमें भी आप देखिए कि जिनको राजनीतिक बंदी बनाया गया था उनको वहां सारी सुविधाएं दी गई थीं। पढ़ने लिखने, खाने पीने की सारी सुविधाएं उनके पास थीं। तो वो एक पीरियड है जो थोड़ा कलंकित पीरियड है। लेकिन एक जो बड़ा फर्क है वो ये है कि उस समय कांग्रेस की विचारधारा इस तरह की नहीं थी कि वो देश के लोगों में ज़हर बोए। बेशक उसने अपनी शासन और सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए इमरजेंसी जैसा कदम उठाया था, और वो भी संविधान की जो व्यवस्थाएं थी उसके अंतर्गत उठाया था। लेकिन अब तो जिस तरह की इमरजेंसी चल रही है उसका कोई कानूनी स्वरूप नहीं है।

दरअसल जिसके हाथ में सत्ता होती है और जिसके बारे में अधिकारियों को या पूरे तंत्र को लगता है कि ये लंबे समय तक रह सकता है, ऐसे में वह बिना किसी कानूनी अधिकार के हर चीज पर कब्जा कर सकता है। हम वही हाल अपने देश में भी देख रहे हैं। अपने देश में भी हर संस्था और सारी चीजों पर कब्जा हो चुका है। अब आम आदमी को तो अदालतों तक पर भरोसा नहीं रह गया कि वो आपको न्याय दे पाएंगी। खासतौर पर ऐसे मामलों में जिसमें सरकार से सीधा टकराव हो। आप देख ही रहे हैं कि दिल्ली दंगे के नाम पर तमाम लोगों को पिछले पांच साल से बंदी बनाया हुआ है। उनको ज़मानत तक नहीं दी जा रही है। और अदालतें कुछ नहीं कर रहीं। इस देश को इस तरह हर स्तर पर तबाह कर दिया गया है। आर्थिक रूप से हमारा देश जो है बहुत बहुत पीछे जा चुका है जो लोगों को दिखाई नहीं दे रहा क्योंकि अभी भी जो ऊपर का वर्ग है उसको अभी बहुत बड़ी चोट नहीं पहुंची है। तमाम लोग बेरोजगार हैं। लाखों युवाओं को नया रोजगार नहीं मिल रहा है। किसी नौकरी के लिए कुछ पोस्ट निकलती है और कई कई हजार युवा अप्लाई करते हैं। उसके बाद भी कोई ना कोई कानूनी पेंच या कोई न कोई विवाद पैदा कर दिया जाता है। जो प्रधानमंत्री हर साल दो करोड़ रोजगार देने का वादा करके आए थे वो 11 साल में भी 2 करोड़ रोजगार नहीं दे पाए। उनका उद्देश्य ही नहीं है लोगों को रोजगार देना। इस सरकार का उद्देश्य ही नहीं है कि शिक्षा का स्तर बेहतर हो। देश को बेहतर बनाना, अच्छे विश्वविद्यालय देना, अच्छे स्कूल देना, अच्छे अस्पताल देना ये इनकी प्राथमिकताओं में है ही नहीं। सच यह है कि जो सामान्य आदमी है वह इनकी प्राथमिकता में नहीं है। पता नहीं ये देश कब तक इन स्थितियों में रहेगा। जिस तरह सरकार पर पूंजीपतियों का कब्जा है, वो कभी नहीं चाहेंगे कि कोई और सरकार आए क्योंकि जिस तरह ये प्रधानमंत्री उनके हाथों में खेल रहे हैं, उनके गुलाम बने हुए हैं, वैसा कोई दूसरा प्रधानमंत्री उन्हें मिलेगा नहीं। मुझे लगता है कि हम एक अंधेरे में जी रहे हैं जहां हर संस्था पर कब्जा हो चुका है, चुनाव आयोग का हाल देश देख ही रहा है।

जिस तरह से चुनाव आयोग की भूमिका पिछले दिनों नजर आई और पिछले कई चुनावों में नजर आती रही। हरियाणा, महाराष्ट्र और हाल ही में बिहार में जो देखने को मिला, एसआईआर के नाम पर जिस तरह का खेल चल रहा है, उससे क्या लगता है कि आने वाले वक्त में क्या कभी देश में निष्पक्ष चुनाव हो पाएंगे।

इसके बारे में भविष्यवाणी करना मेरे लिए कठिन है क्योंकि जमीनी सच्चाई क्या है इसके बारे में बहुत ज्यादा मैं नहीं जानता लेकिन जो चीजें हमें नज़र आ रही हैं, वह बेहद तकलीफदेह हैं। जैसे बिहार में राहुल गांधी और विपक्ष के नेताओं ने जो यात्रा निकाली थी, उसे जो रिस्पांस मिला या तेजस्वी ने भी बाद में जिस तरह चुनावी अभियान चलाया औऱ जो रेस्पांस मिला, उससे ज़मीनी हकीकत कुछ और दिखती थी, लेकिन नतीजा किस तरह एकतरफा दिखा, सबके सामने है। ऐसे में क्या कहा जाए, कैसे चुनाव आयोग या इस व्यवस्था पर भरोसा किया जाए। चुनाव आयोग ने कई गड़बड़ियां की हैं जो लगातार उजागर होती जा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद तमाम लोगों को वोटर लिस्ट से हटा दिया गया, लोगों से वोट का अधिकार छीन लिया गया है। ये सवाल लगातार उठ रहा है कि कई लोग डुप्लीकेट वोटर्स हैं। तो कई तरह की समस्याएं अभी चुनाव आयोग पैदा कर रहा है और जो पारदर्शिता होनी चाहिए थी वो पारदर्शिता नहीं है। चुनाव आचार संहिता का कोई मतलब नहीं रह गया। 10-10 हजार रुपए देकर महिलाओं के वोट खरीदे गए। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। तो यह सीधे-सीधे रिश्वत देकर वोट खरीदने की कोशिश है। तो ये लोग कई तरह से खेल करने की क्षमता रखते हैं। ये लोग सरकार नहीं चलाते, किस किस तरह का षड्यंत्र करते हैं और लोग उसमें फंस जाते हैं। इन मामलों में ये बहुत कुशल लोग हैं। इतने षड्यंत्रकारी लोग इससे पहले किसी सरकार या पार्टी में नहीं आए। कोई प्राइम मिनिस्टर और कोई कोई गृह मंत्री इतना षड्यंत्रकारी होगा, किसी ने सोचा नहीं होगा।

अब थोड़ा पत्रकारिता के बारे में बात करते हैं विष्णु जी। लंबे समय तक आपने रिपोर्टिंग की, पत्रकारिता की, साहित्य तो आपका साथ-साथ चलता ही रहा... तब जो आप जर्नलिज्म करते थे, तब जिस तरह से लिखने पढ़ने की एक आजादी थी उसमें और आज के दौर में क्या फर्क आया है। आजकल मीडिया का जो हाल है, उसके बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे?

देखिए ये हमारा या हमारी पीढ़ी का सौभाग्य रहा कि हम लोग मीडिया में उस दौर में आए जब कुछ ऐसे संपादक थे जो कुछ बेहतर करना चाहते थे। बेहतर करने की गुंजाइश थी और सत्ता का उस तरह का दबाव नहीं था। आप जानते हैं कि मैं एक साप्ताहिक राजनीतिक पत्रिका का संपादक भी रहा। उसके पहले मैं नवभारत टाइम्स में था। सब जगह लिखता भी रहा। व्यंग्य भी लिखे। लेख भी लिखे। लेकिन मेरे पूरे पत्रकारिता के करियर में कभी कांग्रेस ने या किसी और पार्टी ने मेरे कुछ भी लिखने पर कोई आपत्ति नहीं की। कोई डर या धमकी नहीं आई। इस समय जो भी लिखता है या जो भी बोलता है उसके मन में एक डर समाया रहता है कि पता नहीं कब क्या हो जाए और हुआ भी है बहुत से पत्रकारों के साथ हुआ भी है। ये स्थिति पहली बार हिंदुस्तान के इतिहास में आई है कि कलम उठाने वाले या बोलने वाले को चार बार सोचना पड़े। लेकिन फिर भी मैं अपने पत्रकार साथियों का बहुत धन्यवाद देता हूं। बहुत से लोग हैं। बहुत से पत्रकार हैं जो बहुत साहस के साथ अपनी बात रख रहे हैं। कह रहे हैं और सत्ता के दमन के शिकार होने के बावजूद वो अपनी कलम को या अपनी आवाज को रोक नहीं रहे हैं। वो लगातार अपनी बातें कर रहे हैं। उनके साहस को सलाम है। इस सरकार को सलाम नहीं है। ये कोई फ्रीडम देने को तैयार नहीं है। जैसे मैं Facebook पर सक्रिय हूं तो वहां कई बार आपका लिखा दूसरों को पढ़ने नहीं दिया जाता। वो आपको ट्रोल करने लगते हैं। ट्रोल करना तो दूसरी बात है। आपको लोगों तक पहुंचने ही नहीं देते। इनके पास तो पूरी ट्रोल आर्मी है ही। लेकिन मुश्किल ये है कि आपको तीन चार सौ लोगों तक भी पहुंचने नहीं दिया जाता। जो विरोध की आवाज है वो इन्हें पसंद नहीं है और वह कब क्या कर बैठेंगे किसके साथ आपका चरित्र हनन किस तरह करने लगेंगे, ये किस किस बात पर आपको झूठे आरोपों में फंसा देंगे, कहा नहीं जा सकता। सारी दुनिया आश्चर्य करती है कि हमारे प्रधानमंत्री में इतना धैर्य नहीं है कि वो इंटरव्यूज दे सकें, वो प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सकें। वो प्रेस कॉन्फ्रेंस भी करते हैं तो जो अपनी गोदी मीडिया है उसके साथ करते हैं। किसी पीएम में प्रेस कॉन्फ्रेंस करने का साहस नहीं है ये तो पहली बार हुआ है और दुनिया में हमारी इस कारण हंसी उड़ती है। प्रधानमंत्री जी ये छवि बनाते हैं कि सारी दुनिया में आज हिंदुस्तान का नाम हो गया जबकि दूसरी दुनिया हमारी हंसी उड़ा रही है। हमें पूछ नहीं रही है। हमारे तमाम जो सोशल स्टैंडर्ड है उसमें हम पीछे हटते जा रहे हैं।

लेकिन विष्णु जी, ये स्थिति आई क्यों? इस पूरी स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? आरएसएस की जो एक विचारधारा रही वो इतनी फली-फूली कैसे? इसमें कहीं ना कहीं कांग्रेस की या दूसरी अन्य पार्टियों की कमजोरियां भी तो रही होंगी?

एक बात तो इनके बारे में सकारात्मक ये है कि यह लोग अपने मिशन में सफल हों या ना हों, लगे रहते हैं। जबकि जो दूसरी लोकतांत्रिक शक्तियां हैं उनमें अपनी चीजों को डिफेंड करने का, अपनी चीजों को संरक्षित करने का, अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने का वो उत्साह या वो तैयारी नहीं रही। इन लोगों ने अपने विकृत एजेंडा को लगातार आगे बढ़ाया। निश्चित रूप से खासतौर पर कांग्रेस की कमजोरी रही कि उसने इनके रास्ते को रोकने की कोशिश नहीं की, इन्हें अपना कम्युनल एजेंडा आगे बढ़ाने दिया। ये बहुत बड़ी गलती हुई और ये ऐतिहासिक भूल है। दूसरा यह है कि कांग्रेस या दूसरी पार्टियों के पास अपना कोई सांस्कृतिक एजेंडा नहीं रहा। आज तक नहीं है। एक ही मुख्यमंत्री मध्य प्रदेश के अर्जुन सिंह थे जिनके पास अपना एक सांस्कृतिक एजेंडा था। इंदिरा गांधी के पास भी वो दृष्टि थी। लेकिन बाकी किसी के पास नहीं रही। लेकिन जहां तक आरएसएस का सवाल है, इसका एक पूरा नेटवर्क है। हर राज्य में हर जिले में नेटवर्क है। इनके पास संस्कृति की जितनी भी विकृत समझ है उस संस्कृति को आगे बढ़ाने में ये लोग आगे रहे। कांग्रेस और दूसरी पार्टियां जो इसके पहले आईं वो समावेशी पार्टियां रहीं। अगर एक बीजेपी वाला भी है, सफेद कुर्ता पहन के चला जाएगा तो वो उसको भी पनाह देते हैं। जबकि इनका अपना एजेंडा होता है - अपने ही आदमी को हर जगह बैठा देना, चाहे उसकी वजह से विश्वविद्यालय बर्बाद हो जाए, कॉलेज बर्बाद हो जाए, तमाम संस्थाएं बर्बाद हो जाएं। लेकिन इनका ही आदमी हर जगह बैठेगा या इनके बहुत ही भरोसे का आदमी होना चाहिए। जबकि कांग्रेस या दूसरी पार्टियों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि अपना जो एक पॉलिटिकल और सांस्कृतिक एजेंडा है उस पर सख्ती से चलें। उन्होंने घालमेल होने दिया और इसका नतीजा है कि आज संघ जो है बहुत ताकतवर हो गया है। संघ की ही ताकत प्रधानमंत्री की ताकत है। संघ की ताकत भी बहुत बड़ी है और उसी ताकत का इन्होंने इस्तेमाल किया। दक्षिणपंथी विचारों के लिए हमेशा से धर्म अहम रहा, इसकी वजह है कि जो दक्षिणपथी एजेंडा है वह लोगों के दिमाग में आसानी से घुस जाता है। लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि आज भी हिंदुस्तान का आम आदमी सेकुलर एजेंडे पर चलता है या भरोसा करता है। आज भी 5 फीसदी से ज्यादा लोग भले ही सेकुलर शब्द का अर्थ न समझें लेकिन दूसरे धर्मों का आदर करना या दूसरों को बहुत सम्मान की दृष्टि से देखना उनके स्वभाव और संस्कार में शामिल है। इसलिए इनको लगता है कि हमारा एजेंडा कभी भी ढह सकता है क्योंकि यह भारत के लोगों के स्वभाव के अनुकूल नहीं है। ये प्रतिकूल है। तो भारत की लोकतांत्रिक परंपराएं अभी भी इनको चुनौती दे रही हैं। अभी भी इनको पीछे धकेलने की कोशिश कर रही हैं। और आप समझिए कि 11 साल में ही ये पूरी तरह एक्सपोज हो गए हैं अब प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि पहले लोग मुझे दो गालियां देते थे, अब 20 गालियां देने लगे हैं। अगर ऐसा है तो 20 गालियां देने का कोई कारण तो होगा ना? कोई पागल तो नहीं हो गए ये लोग? सत्ता तो पागल हो सकती है पर साधारण आदमी पागल नहीं हो सकता। आपने 11 साल में लोगों के लिए कुछ नहीं किया सिवाय झूठे वादे करने के तो लोग क्यों नहीं गालियां देंगे आपको।

विष्णु जी अब राजनीति से थोड़ा सा अलग हटकर चलते हैं आपके साहित्यिक सफर पर। शुरुआत कहां से हुई? कैसे हुई? आपने लिखना पढ़ना कब से और कैसे शुरू किया?

मैं दरअसल मध्य प्रदेश का एक कस्बा और जिला मुख्यालय भी है शाजापुर। वहां में जन्मा, बड़ा हुआ। यहां की दो चीजें मेरे लिए महत्वपूर्ण थीं। एक तो ये था कि बाल कृष्ण शर्मा नवीन जो आजादी की लड़ाई के एक बड़े सिपाही भी थे और अपने समय के प्रमुख कवि भी थे। उनका जन्म वहां हुआ था और 1960 में जहां तक मुझे याद आता है उनकी मृत्यु हो गई थी। तो उनकी स्मृति में उनकी एक मूर्ति बनाई गई जिसमें उनकी एक कविता की चार छह पंक्तियां लगाई गईं जो मुझे बहुत अपील करती थी।

हम अनिकेतन, हम अनिकेतन/हम तो रमते राम/हमारा क्या घर, क्या दर, कैसा वेतन/ठहरे अगर किसी के दर पर/कुछ शरमा कर कुछ सकुचा कर

कुछ इस तरह की कविता है। नवीन जी के बारे में भी जो जानते हैं वो ये कि जिन परिस्थितियों में मैं पला हूं कुछ कुछ उन्हीं परिस्थितियों में वे भी पले थे। मैं सोचता कि अगर यहां से एक मेरी तरह की बुरी परिस्थितियों में पला बड़ा आदमी कविता साहित्य लिख सकता है तो शायद मैं भी कुछ कर सकता हूं। फिर नरेश मेहता जिनको भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला वो भी वहीं के थे। तो ये दो प्रेरणा के कारण बने। तीसरा कारण ये रहा कि वहां एक तरह का साहित्यिक वातावरण भी था। बहुत अच्छे साहित्यकार वहां नहीं थे। लेकिन हम तीन चार लोग बहुत उत्साही लोग थे और कॉलेज के एक दो अध्यापक हमको बहुत अच्छे मिले जो थोड़े-थोड़े पढ़े लिखे थे या पढ़ने लिखने में रुचि रखते थे। विशेष तौर पर मैं दुर्गा प्रसाद झाला को याद करता हूं जो अभी भी शायद 93 वर्ष के हो चुके हैं तो वो भी काफी दिलचस्पी लेते थे उन्होंने कई किताबें हमें पढ़ने को दीं औऱ हमको पढ़ने लिखने की ओर प्रेरित किया। उस ज़माने में काफी पढ़ा भी खासतौर हिंदी साहित्य। लिखना भी वहीं शुरू किया। फिर दिल्ली जब भी जाता था तो झाला साहब को अपनी कविताएं दिखाता था। उन्होंने कहा कि तुम ये कविताएं अशोक वाजपेयी को क्यों नहीं भेजते। अशोक वाजपेय उस समय एक पहचान सीरीज निकाल रहे थे। मैंने झाला साहब से कहा, सर मेरी कविताएं वो कहां छापेंगे मैं कहां और वो कहां। तो उन्होंने कहा तुम भेज दो ना तुम्हारा गला तो नहीं काट लेंगे.. गला काटने का अधिकार तो उनको नहीं है। भेज दो, वापस हो जाएगी और क्या होगा। तो मैंने उनको भेज दी। दो-तीन महीने तक तो इसकी कोई सूचना नहीं मिली। बाद में अशोक जी के आने की सूचना मिली तो मैं उनसे मिलने गया। तब उन्होंने मुझसे कहा कि हम छापना चाहते हैं। और इस बीच जो भी मैंने लिखा वह वो आज से 51 साल पहले 1974 में पहचान सीरीज में छपी। उसी समय मेरी पहली कविता पुस्तिका प्रकाशित हुई। उससे मेरी एक पहचान हिंदी की दुनिया में बनी। फिर 1980 में जिसे कि कविता की वापसी का वर्ष भी कहा जाता है। जिस उस समय बहुत से कवियों के कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे तो मेरा भी इसमें संग्रह प्रकाशित हुआ था। उसके कारण भी एक एक नई पहचान मिली। हालांकि एक स्थिति ऐसी आ गई थी कि मुझे लगा था कि अब मुझे साहित्य में कोई पूछ नहीं रहा है तो छोड़ो अब पत्रकारिता ही करते हैं। नौकरी करते हैं।

आप जिस तरह का राजनीतिक व्यंग्य लिखते हैं, कहीं न कहीं परसाई जी की झलक उसमें मिलती है...लगता है आपको प्रेरणा उनसे मिली या फिर आप उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं आज के दौर में।

अब परसाई जी मेरे निश्चित रूप से सबसे प्रिय व्यंग्यकारों में रहे हैं। और जिसने भी उन्हें पढ़ा है तो निश्चित रूप से उनका प्रभाव हम सब पर है। पॉलिटिकल व्यंग्य जो मैं लिखता हूं उसका एक बड़ा कारण परसाई जी को पढ़ना तो है ही है। दूसरा ये है कि इतने साल तक पत्रकारिता की। अखबारों को ध्यान से पढ़ा। फिर मुझे फील्ड में जाने का काफी मौका मिला। संवाददाता और विशेष संवाददाता रहा। तो फील्ड में जाकर काफी चीजें समझने का मौका मिला। मेरी पत्रकारिता ने मेरी बहुत मदद की। मुझे राजनीति और समाज को समझने में उससे काफी फायदा हुआ। उसने भी मुझे एक तरह का पॉलिटिकल आदमी बनाया तो इसलिए पॉलिटिक्स पर मेरी बहुत शुरू से नजर रही तो इसी वजह से मैं राजनीतिक व्यंग्य लिखता हूं। लेकिन राजनीतिक व्यंग्य के अलावा भी मैंने बहुत सारे विषयों पर, सामाजिक व्यवस्था पर ढेर सारे व्यंग्य लिखे।

तो आज के दौर में राजनीतिक व्यंग्य लिखने और सीधे सीधे मोदी की तानाशाही पर लिखते हुए कभी आपको डर नहीं लगा, क्योंकि जिस तरह प्रतिरोध की ताकतों को सरकार निशाना बनाती है ऐसे में आप भी तो उनके निशाने पर आ सकते हैं

मुझे लगता है कि इसमें बहुत डरने की जरूरत नहीं है। अब मैं 75 साल से ऊपर का हो गया हूं। तो मुझे लगता है कि अब क्या कर लेंगे? बंद कर देंगे। बूढ़े आदमी को जो है 75 साल के आदमी को बंद करेंगे तो थोड़ा बहुत तो हल्ला कोई ना कोई मचाएगा ना। कोई ना कोई तो मदद करने के लिए आएगा ना। दूसरे ये कि मुझसे भी ज्यादा साहस के साथ बहुत से पत्रकार बोल रहे हैं। तो एक वो भी सहारा है। सब लोग कहते हैं कि कोई मोदी जी तो सुनेंगे नहीं। नहीं सुनेंगे। मैं जानता हूं। अगर मैं भी प्रधानमंत्री होता तो मेरे खिलाफ इतनी आवाजें उठतीं, मैं चाहूं भी तो नहीं सुन सकता। तो वो तो नहीं सुनते। अमित शाह भी नहीं सुनते। मुझे उसकी कोई चिंता भी नहीं है। ये है कि जो लोग हैं, हम जो इस इस निजाम को, इस सत्ता के नंगेपन को देख रहे हैं। हम वो देखना छोड़ें नहीं, भूले नहीं। हम और हम जैसे कुछ लोग साथ खड़े हैं और तो और वो लोग भी जो है हमारे साथ खड़े हुए दिखाई दें। हमारी आवाज शिखर तक पहुंचने से भी क्या हो जाएगा? उनका अपना एजेंडा है। वह तो उसी एजेंडे पे चलेंगे। लेकिन एक जो डेमोक्रेटिक हस्तक्षेप है वो बना रहना चाहिए। उस हस्तक्षेप में जो भी हमारा छोटा मोटा योगदान हो सकता है वो होना चाहिए और कल शर्म नहीं आनी चाहिए कि इस बुरे से बुरे समय में हम चुप रहे थे। कल मेरे बच्चों को या मेरे दोस्तों को या मेरे मित्रों को या जिन्होंने मुझे पढ़ा है उनको शर्म नहीं आनी चाहिए कि ये आदमी चुप रहता है।

विष्णु जी, अब बात करते हैं आपके हाल के कविता संग्रह पर – ऐसा मैं हिन्दू हूं। किताबें तो आपने 50 से ज्यादा लिखीं, जिनमें 10 तो कविता संग्रह ही हैं। ऐसा मैं हिंदू हूं कहने के पीछे आपकी क्या सोच है।

पिछले 10 साल में यानी 2014 से लेकर 2024 तक जो मैंने लिखा उसका एक संग्रह है तो जाहिर है कि इसका एक ही स्वर नहीं है। बहुत से स्वर हैं। क्योंकि जब आप कविता लिखते हैं तो बहुत तरह की बातें करते हैं। बहुत सी दुनियाओं में जाते हैं। तो मैं कई दुनिया में गया हूं। लेकिन हां, मेरा प्रधान स्वर राजनीतिक रहा है। इस समय जो तथाकथित हिंदू विमर्श चल रहा है जो सनातन विमर्श में बदल गया है। इसका चोला बदल गया है। मैं बचपन से इसके खिलाफ रहा हूं। मेरा सौभाग्य रहा कि मैं जब बड़ा हो रहा था तो थोड़े बहुत विचार बनने लगे थे तब जवाहरलाल नेहरू इस देश के प्रधानमंत्री थे। तो उनके सेकुलरिज्म की एक गहरी छाप मुझ पर भी है। मैं शुरू से ही इस हिंदूवादी विचार के खिलाफ रहा हूं तो इस कविता संग्रह में जो एक कविता है, उस कविता के माध्यम से मैं इस हिंदूवादी विमर्श का प्रतिरोध करना चाहता हूं। ये शीर्षक देने के पीछे मेरा इरादा ये था कि मैं बताऊं कि मैं तुम्हारे हिंदूवाद के खिलाफ हूं जो कि मनुष्य विरोधी है, जो लोगों के बीच में द्वेष और नफरत फैलाता है, जिसको साधारण लोगों की परवाह नहीं है। तो ऐसा हिंदुत्व मुझे स्वीकार नहीं है और मैं इस इस हिंदुत्व के खिलाफ हूं। मेरी कई कविताओं का स्वर इसमें आपको इस तरह का मिलेगा। और भी बहुत सी कविताएं हैं इसमें संग्रह में। 100 से अधिक कविताएं हैं।

आप आम तौर पर छोटी छोटी कविताएं लिखते हैं। व्यंग्य में भी आपके वाक्य छोटे छोटे और बहुत अपीलिंग होते हैं।

मैं बहुत शुरू से ही छोटी कविताएं लिखता रहा हूं क्योंकि मेरा मानना रहा है कि बहुत ज्यादा शब्दों की जरूरत नहीं क्योंकि कविता का काम ही है बहुत कम शब्दों में अपनी बहुत बात कह देना।

विष्णु जी, बेशक ये संग्रह लोगों को पढ़ना चाहिए। आने वाले वक्त में आप और किन किन किताबों पर काम कर रहे हैं?

देखिए, एक व्यंग्य संग्रह तो अगले साल पुस्तक मेले में आने की संभावना है। मेरी चुनी हुई कहानियों का एक संग्रह भी आ सकता है। उसके अलावा मेरे पास बहुत सी सामग्री है लेकिन बहुत जल्दी नहीं करनी चाहिए। धीरे-धीरे चलना चाहिए।


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