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जारी रहे भारत का जुड़ाव

राहुल गांधी द्वारा पिछले वर्ष निकाली गई ऐतिहासिक 'भारत जोड़ो यात्रा' का बुधवार को एक साल पूरा हो रहा है

जारी रहे भारत का जुड़ाव
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राहुल गांधी द्वारा पिछले वर्ष निकाली गई ऐतिहासिक 'भारत जोड़ो यात्रा' का बुधवार को एक साल पूरा हो रहा है। 'नफरत के बाजार में मोहब्बत की दूकान' के नाम पर निकली जिस यात्रा ने भारतीय राजनीति का परिदृश्य बदलकर रख दिया हो उसकी वर्षगांठ जोर-शोर से मनाने की तैयारी कांग्रेस कर चुकी है। उसका हक बनता भी है क्योंकि उपलब्धि बहुत बड़ी है और वह इतनी महत्वपूर्ण है कि उसने न केवल कांग्रेस को पुनर्जीवित कर दिया है वरन लोकतंत्र के अनिवार्य पक्ष यानी प्रतिरोध को जिंदा किया है।

फिर, यह सालाना जलसा ऐसे वक्त में मनाया जा रहा है जब देश दो-तीन महत्वपूर्ण घटनाक्रमों की दहलीज पर खड़ा है। एक तो है इसी 9 व 10 को राजधानी दिल्ली में होने जा रहा जी-20 का सम्मेलन। दूसरा है 18 से 22 तक होने जा रहा संसद का विशेष सत्र जिसके बारे में कोई नहीं जानता कि इसका प्रयोजन क्या है। तीसरा, इसी साल होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव; तथा चौथे, भारत जोड़ो यात्रा का दूसरा चरण जो अबकी पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ेगी। जिस यात्रा की वार्षिकी है वह दक्षिण भारत के कन्याकुमारी से चलकर श्रीनगर के लाल चौक पर राहुल द्वारा झंडा फहराने के साथ समाप्त हुई थी। इसके लिए राहुल गर्मी, उमस, बरसातों और ठंड का मुकाबला करते हुए करीब 4 हजार किलोमीटर चले थे। उनके साथ करोड़ों चले थे, कांग्रेस चली थी और पूरा भारत चला था। प्रेम का संदेश फैलाने के मकसद से निकली यह यात्रा कामयाब कही जा सकती है क्योंकि इसने लोगों को वाकई जोड़ा है।

घृणा के रास्ते पर चल पड़े देश का एक बड़ा वर्ग और समूह महसूस कर रहा है कि भारत अपने मार्ग से भटक चला था। यह भटकाव भारतीय जनता पार्टी की देन कही जा सकती है। देश के अंदर विभिन्न वर्गों, समुदायों और समूहों के बीच ऐसा विखंडन और विभाजन कभी भी देखने को नहीं मिला जैसा कि आज है। समावेशी समाज के बदले बहुसंख्यकवादी समाज रचने के पीछे का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का षड्यंत्र इस यात्रा के पूरा होते-होते ठीक-ठाक उजागर हो गया। यह इस यात्रा की बड़ी नेमत रही कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के पक्ष में बनाया गया पूंजीवाद और कार्पोरेट इंडिया का खेल लोगों के सामने साफ उजागर हो गया।

जब यात्रा प्रारम्भ हुई थी तब राहुल का विचार बोलने का नहीं, लोगों को सुनने का था, परन्तु मुद्दे इतने थे कि धीरे-धीरे राहुल ने बगैर भयभीत हुए उन तमाम विषयों पर और सारी शक्तियों के खिलाफ बोलना शुरू किया जिनके बारे में भारत के ज्यादातर नेता, सियासी दल, संगठन बोलने से डरते हैं। इस खौफ के कई कारण हैं। मसलन, इन तत्वों के खिलाफ बोलना देश के विरूद्ध होना बतला दिया गया है। फिर भी जो बोले, उन्हें जेलों का रास्ता दिखाया गया है। ऐसे लोगों के पीछे केन्द्रीय जांच एजेंसियां लगा दी गईं। प्रतिपक्ष की आवाज पहले मद्धम फिर अंतत: गुल हो गई।

भारत को कांग्रेस मुक्त और फिर विपक्ष विहीन बनाने की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बात लोगों को अच्छी लगने लगी थी। विधायकों को खरीदकर विपक्षी सरकारों को गिराना और भाजपा की सरकारें बनाने को 'ऑपरेशन लोटस' जैसा आकर्षक परन्तु निहायत अलोकतांत्रिक नाम लोगों को भाया। 2014 से जिस मोदी की छवि सतत चमकती रही और लोगों को उनके बुरे से बुरे काम भी मास्टर स्ट्रोक लगते रहे, उसका रंग राहुल ने अपने बेखौफ अंदाज से उतारकर रख दिया। स्वयं राहुल की छवि एक असफल व पार्ट टाइम नेता से बदलकर एक बेहद संजीदा, फौलादी इरादे रखने वाले तथा कुशाग्र नेता के रूप में उभरी और लोगों ने स्वीकार किया कि उन्होंने राहुल को पहचानने में भूल की।

वैसे यह भी जानना होगा कि इतना बड़ा पैदल मार्च छवियों के बनने-बिगड़ने तक सीमित नहीं था। वह घृणा बनाम प्रेम और तोड़ने व जोड़ने के बीच का संघर्ष था। इन दो मानवीय भावों की बुनियाद में जो दो विचारधाराएं टकरा रही थीं, यह उसकी लड़ाई थी। एक तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विभाजनकारी व बहुलतावादी विचारधारा है जिसका प्रतिनिधित्व भारतीय जनता पार्टी तथा मोदी करते हैं तो उसका प्रतिकार कांग्रेस करती है जिसके नुमाइंदे राहुल हैं। यह महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, बीआर अंबेडकर सम्प्रति महान मानवतावादियों द्वारा निर्मित दर्शन है जिसने आज का देश गढ़ा है, एक ऐसा हिन्दुस्तान जो संविधान के मार्ग पर चलता हुआ आया है। उसका विश्वास किसी एक वर्ग या वर्ण की श्रेष्ठता या आधिपत्य में नहीं है, जो समस्त संसाधनों व अवसरों के समान वितरण में यकीन करता है तथा वह कुछ लोगों का नहीं बल्कि सभी का सशक्तिकरण करना चाहता है। समतामूलक व न्यायपूर्ण समाज उसका लक्ष्य है तथा उसके लिए धर्मनिरपेक्षता व बन्धुत्व राज्य के अनिवार्य तत्व हैं।
यात्रा का यही सबसे बड़ा प्रदेय है कि समाज को उसकी खोई हुई राह मिल गई है। 'इंडिया' नामक विपक्षी गठबन्धन का कांग्रेस नेतृत्व करता है। यही मोदी व भाजपा की तकलीफों का सबब है। मोदी के 9 वर्षों में भारत में लोकतंत्र को जो पलीता लगा है, लोगों के बुनियादी हक जो मारे गये और देश की जो बड़ी बदहाली हुई है उसके कारण मोदी की छवि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मंच पर दरकी है। पांच राज्यों सहित आगामी लोकसभा चुनाव (2024) में भाजपा की बड़ी पराजय का खतरा मंडरा रहा है। आर्थिक संकटों के बाद भी जी-20 के खर्चीले आयोजन से मोदी की छवि के पुनर्निर्माण की कोशिश तथा विशेष सत्र बुलाकर कोई बड़ा दांव खेलने की तैयारी भाजपा कर रही है। मोदी-भाजपा को बैकफुट पर लाना भारत जोड़ो यात्रा का ही असर है।


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