कैसे जीवन से बचेगा पर्यावरण
जोबीज हमारे पुरखों ने बोये हैं, उनकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज़ देखने में नहीं आई

- महात्मा गांधी
गांधी ने जिस वक्त 'हिन्द स्वराज' लिखी तब एक औसत हिन्दुस्तानी के जीवन में नीतियां, ध्येय, नैतिकता, स्वतंत्रता, अभिमान, शिक्षा, सुख-दुख, अमीरी-गरीबी, ज्ञान-अज्ञान, फर्ज, अनुभव, शारीरिक श्रम आदि के कुछ दूसरे ही अर्थ थे। यह अर्थ आजादी के आते-आते और गांधी के जाने तक बदल चुके थे। आज उनके द्वारा बताई सभ्यता से हम वहां तक आगे बढ़ चुके हैं जहां से लौटना संभव नहीं है।
जोबीज हमारे पुरखों ने बोये हैं, उनकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज़ देखने में नहीं आई। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का सिर्फ नाम ही रह गया, मिस्र की बादशाही चली गई, जापान पश्चिम के शिकंजे में फंस गया और चीन का कुछ भी कहा नहीं जा सकता, लेकिन गिरा-टूटा जैसा भी हो, हिन्दुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मज़बूत है।'
'हिन्दुस्तान पर आरोप लगाया जाता है कि वह ऐसा जंगली, ऐसा अज्ञानी है कि उससे जीवन में कुछ फेरबदल कराये ही नहीं जा सकते। यह आरोप हमारा गुण है, दोष नहीं। अनुभव से जो हमें ठीक लगा है, उसे हम क्यों बदलेंगे? बहुत से अकल देने वाले आते-जाते रहते हैं, पर हिन्दुस्तान अडिग रहता है। यह उसकी खूबी है, यह उसकी आशाओं का शरण-स्थल है।'
'सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फज़र् अदा करता है। फज़र् अदा करने के मानी हैं नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इन्द्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को पहचानते हैं। यही सभ्यता है। इससे जो उलटा है वह बिगाड़ करने वाला है। इसलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बाँध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख-दु:ख तो मन के कारण हैं। अमीर अपनी अमीरी की वजह से सुखी नहीं है, गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं हैं। अमीर दुखी देखने में आता है और गरीब सुखी देखने में आता है। करोड़ों लोग तो गरीब ही रहेंगे। ऐसा देखकर उन्होंने भोग की वासना छुड़वाई।'
'हजारों साल पहले जो हल काम में लिया जाता था, उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोपड़े थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी। सब अपना-अपना धंधा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक दाम लिए। ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरा की खोज करना ही नहीं आता था, लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझकर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तन्दुरूस्ती है।'
'उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें धूर्तों की टोलियां और वेश्याओं की गलियां पैदा होंगी। गरीब अमीरों से लूटे जायेंगे। इसलिए उन्होंने छोटे देहातों से संतोष माना। उन्होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलवार के बनिस्बत नीति का बल ज्यादा बलवान है। इसलिए उन्होंने राजाओं को नीतिवान पुरूषों-ऋ षियों और फकीरों से कम दर्जे का माना। ऐसा जिस राष्ट्र की गठन है वह राष्ट्र दूसरों को सिखाने लायक है, दूसरों से सीखने लायक नहीं।'
'इस राष्ट्र में अदालतें थीं, वकील थे, डॉक्टर-वैद्य थे, लेकिन वे सब ठीक ढंग से, नियम के मुताबिक चलते थे। सब जानते थे कि ये धन्धे बड़े नहीं हैं और वकील, डॉक्टर वगैरा लोगों में लूट नहीं चलाते थे। वे तो लोगों के आश्रित थे। वे लोगों के मालिक बनकर नहीं रहते थे। इन्साफ काफी अच्छा होता था। अदालतों में न जाना, यह लोगों का ध्येय था। उन्हें भरमाने वाले स्वार्थी लोग नहीं थे।'
'सड़न भी सिर्फ राजा और राजधानी के आसपास ही थी। यों (आम) प्रजा तो उससे स्वतंत्र रहकर अपने खेत का मालिकी हक भोगती थी। उसके पास सच्चा स्वराज था। जहां यह चांडाल सभ्यता नहीं पहुंची है, वहां हिन्दुस्तान आज भी वैसा ही है। उसके सामने आप अपने नए ढोंगों की बात करेंगे, तो वह आपकी हँसी उड़ायेगा। उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं, न आप कर सकेंगे।'
'किसी भी देश में किसी भी सभ्यता के मातहत सभी लोग संपूर्णता तक नहीं पहुंच पाये हैं। हिन्दुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मज़बूत करने की ओर है, पश्चिम की सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है। इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा है। पश्चिम की सभ्यता निरीश्वरवादी है, हिन्दुस्तान की सभ्यता ईश्वर को मानने वाली है। यों समझकर ऐसी श्रद्धा रखकर, हिन्दुस्तान के हितचिंतकों को चाहिए कि वे हिन्दुस्तान की सभ्यता से, बच्चा जैसे मां से चिपटा रहा है वैसे, चिपटे रहें।'
रघुराज सिंह की टिप्पणी
जिस सभ्यता की बात की गई है, सिर्फ गांधी ही उसकी पैरवी कर सकते हैं। वक्त की तेज धार के सामने गांधी ही दीवार बनकर प्रतिरोध कर सकते हैं। वे उस हिन्दुस्तान की बात करते हैं जिसमें मालिक होने जैसा कुछ है ही नहीं। जहां राजा पूरे तंत्र में शिखर से एक सीढ़ी नीचे है। जब नागरिकों ने सच्ची सभ्यता को परे धकेलकर सभ्यता का नया आधुनिक संस्करण अपनाया तो हिन्दुस्तान में अदालत, वकील, डाक्टर, किसान और ईश्वर सभी के मायने बदल गए। सबके सब नए तरीकों से परिभाषित हुए।
गांधी जिस 'चांडाल सभ्यता' का उल्लेख कर रहे हैं, उसने पूरे समाज को बाजार में बदल दिया है। अब तो बाजार हमारी शिक्षा का केन्द्र बिन्दु है, यहां तक कि शिक्षा खुद एक बाजार है। अब अगर कोई नागरिक गांधी की सभ्यता को उच्चारित करेगा तो लोग उसे ही ढोंगी कहेंगे और हँसी उड़ायेंगे।
गांधी ने जिस वक्त 'हिन्द स्वराज' लिखी तब एक औसत हिन्दुस्तानी के जीवन में नीतियां, ध्येय, नैतिकता, स्वतंत्रता, अभिमान, शिक्षा, सुख-दुख, अमीरी-गरीबी, ज्ञान-अज्ञान, फर्ज, अनुभव, शारीरिक श्रम आदि के कुछ दूसरे ही अर्थ थे। यह अर्थ आजादी के आते-आते और गांधी के जाने तक बदल चुके थे। आज उनके द्वारा बताई सभ्यता से हम वहां तक आगे बढ़ चुके हैं जहां से लौटना संभव नहीं है।
यंत्र अर्थात मशीन पर समाज की निर्भरता जितनी व्यापक है, उससे मालिक बहुत कम और गुलाम बहुत ज्यादा हो रहे हैं। अब तो कृत्रिम बुद्धि मनुष्य के दिमाग की जगह ले रही है। अब अकल देने वाले भी कृत्रिम उत्पाद के रूप में मनुष्य की जगह ले रहे हैं।
'हिन्द स्वराज' राजा, राजधानी और सड़न की बात करता है। अब तो इस सड़न का विस्तार इतना है कि वह देहातों तक पहुंच गई है। लोकतंत्र में देहातों में भी नए राजा उग आए हैं। 'हिन्द स्वराज' में सभ्यता तब तक थी जब तक बड़े शहर खड़े करने को झंझट माना जाता था। पिचहत्तर साल में सभ्यता का पैमाना इस तरह बदला कि नीति निर्धारक अब देहातों के शहरीकरण के समयबद्ध लक्ष्य तय कर रहे हैं। कुल जमा अब फर्ज का आचरण नहीं बचा, जो है, उसे 'हिन्द स्वराज' में 'चांडाल सभ्यता' कहा गया है।


