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चुनाव मशीन में बदली सरकार, पार्टी, विचारधारा और राजनीति

कांग्रेस भी चुनावी दल बन गई लगती है। कर्नाटक और उससे पहले हिमाचल की जीत ने उसके रणनीतिकारों को नई सीख दी है

चुनाव मशीन में बदली सरकार, पार्टी, विचारधारा और राजनीति
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- अरविन्द मोहन

कांग्रेस भी चुनावी दल बन गई लगती है। कर्नाटक और उससे पहले हिमाचल की जीत ने उसके रणनीतिकारों को नई सीख दी है और जाहिर तौर पर नई सरकारें आने से उसके पास भी संसाधनों का अकाल नहीं रहा। इस भाजपा से लड़ने में राजनैतिक मुस्तैदी के साथ संसाधन भी महत्वपूर्ण है। आज कारपोरेट चंदे का 90 फीसदी हिस्सा भाजपा को जाता है।

प्रियंका गांधी ने मध्य प्रदेश में चुनाव अभियान शुरू किया- आधिकारिक रूप से नहीं लेकिन जबलपुर में उन्होंने जो-जो कुछ किया उसे अभियान का हिस्सा ही मानना चाहिए और इसमें थोड़े समय तक मुख्यमंत्री रहे बुजुर्ग कमलनाथ जी हर फ्रेम में प्रियंका के साथ दिखने का प्रयास करना भी शामिल है। यह चीज बताने या कमलनाथ को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने का काम तो प्रियंका ने नहीं किया लेकिन उन्होंने कर्नाटक में कांग्रेस को चुनाव जिताने में बड़ी भूमिका निभाने वाले पांच वायदे-महिलाओं को भत्ता, मुफ़्त बस यात्रा, मुफ़्त बिजली, किसानों का कर्ज माफी, पुरानी पेंशन योजना की वापसी मध्यप्रदेश में भी करने के साथ हनुमान जी और नर्मदा मैया की पूजा तो बड़े धूम-धड़ाके से की। हनुमान जी का विशाल गदा प्रदर्शित हुआ, चर्चा में रहा। कर्नाटक में भी हनुमान जी की धूम रही, उनके मंदिर बनवाने के वायदे भी हुए। पता नहीं क्या होगा। पर कांग्रेस के हिन्दुत्व कार्ड खेलने से भाजपा बौखलाई है-मुसलमान तो आराम से कांग्रेस के पक्ष में गए ही। पर असदुद्दीन ओवैसी और उनके भाई अकबरुद्दीन जरूर बौखला गए हैं। महाराष्ट्र में उनको औरंगजेब के लिए फातिहा पढ़ने की सूझती है तो मध्य प्रदेश में पैसे देकर उम्मीदवार ढूंढने का अभियान चल रहा है।

जी हां, कांग्रेस भी चुनावी दल बन गई लगती है। कर्नाटक और उससे पहले हिमाचल की जीत ने उसके रणनीतिकारों को नई सीख दी है और जाहिर तौर पर नई सरकारें आने से उसके पास भी संसाधनों का अकाल नहीं रहा। इस भाजपा से लड़ने में राजनैतिक मुस्तैदी के साथ संसाधन भी महत्वपूर्ण है। आज कारपोरेट चंदे का 90 फीसदी हिस्सा भाजपा को जाता है। और भाजपा के पास संघ की फौज से लेकर क्या-क्या है यह गिनवाने का कोई मतलब नहीं है। पर यह रेखांकित करना जरूरी है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा एक अच्छी भली दक्षिणपंथी रुझान वाली राजनैतिक पार्टी(चाल, चरित्र चेहरे में अलग होने के दावे वाली) या अभियान की जगह चुनाव लड़ने के मशीन में बदल गई है। और यह बात भी रेखांकित करनी जरूरी है कि यह बदलाव अकेली भाजपा का नहीं हुआ है।

संघ भी सांस्कृतिक संगठन होने की जगह भाजपा का सहयोगी संगठन बन गया है(और इसी के माध्यम से वह अपने हिन्दू राष्ट्र का सपना साकार होता देखता है), स्वयंसेवक भाजपा की रैलियों में हाफ पैंट पहनकर ट्रैफिक चलाते हैं। सरकार भी बदल गई है। केंद्र की सरकार का मतलब भी काफी हद तक भाजपा को जिताने में सारा जोर लगाने वाली मजबूत संस्था है वरना विधानसभा चुनाव के बाद अब म्यूनिसिपालिटी के चुनाव में खुद नरेंद्र मोदी और अमित शाह क्यों डबल इंजन और ट्रिपल इंजन की बात करने लगते हैं। साफ मतलब है कि नीचे आप हमें जिताइए तो केंद्र आपको ज्यादा लाभ देगा।

अब गिनवाना हो तो यह भी कह सकते हैं कि इसी खेल में अर्थात शासन और राजनीति छोड़कर सिर्फ चुनाव जीतने का खेल खेलना, अरविन्द केजरीवाल, चंद्रशेखर राव जैसे लोगों से लेकर बहन मायावती तक शामिल हैं जो और कुछ नहीं तो सोते-सोते भी दलितों के वोट न बिखरें इसकी चौकीदारी तो करती ही हैं। कई 'विपक्षी' मुख्यमंत्री भी बीच-बीच में नरम पड़कर केंद्र के डबल इंजन के खेल में शामिल होते हैं और अपना उल्लू सीधा कर ले जाते हैं। शासन में अपेक्षाकृत बढ़िया रिकार्ड वाले नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी भी चुनावी खेल में कमजोर नहीं हैं-नीतीश तो संगठन की दृष्टि से काफी कमजोर होकर भी भाजपा, राजद और कांग्रेस से लाभ पाते रहे हैं बल्कि आज सारे भाजपा-विरोधी नेताओं के दुलारे बने हुए हैं। राव साहब तीसरा मोर्चा ही नहीं खेले हुए हैं चुनाव से पहले चालीस जातियों को ओबीसी का दर्जा दिलाने के लिए केंद्र के पाले में गेंद डाले हुए हैं। नवीन बाबू भी अचानक जाति जनगणना के पक्ष में ही नहीं आए हैं खुद को खंडायत बताने भी लगे हैं। और ऐसी पार्टियों की गिनती कराने का खास लाभ नहीं है जिनके लिए राजनीति का मतलब सत्ता या दलाली लायक जुगाड़ है। भाजपा के बाद कांग्रेस का सिर्फ चुनावी दल में बदलते जाना एक परिघटना है।

कांग्रेस को यह याद होगा ही कि उसे किस भाजपा या उसकी चुनाव कुशल जोड़ी से लड़ना है। ये दोनों सोते-जागते भी चुनावी रणनीति बनाते हैं, चुनावी संसाधन जुटाते हैं, चुनावी लाभ-घाटे के लिए जोड़-तोड़ और सरकारी कार्यक्रमों को भी चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल करने की सोचते हैं, एक से एक नया मसाला ढूंढ लाते हैं( जैसे संसद के नए भवन के उद्घाटन पर सेंगोल धारण करना) और सरकारी संसाधन भी प्रचार में लगाते हैं। एक बड़े अंग्रेजी अखबार की खबर है कि प्रकाशन विभाग, फिल्म डिवीजन, फील्ड पब्लिसिटी का विशाल सरकारी नेटवर्क रहते हुए भी मोदी सरकार अपने मन की बात कार्यक्रम के विस्तार और प्रचार में करोड़ों खर्च ही नहीं कर रही है, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की भी पूरी सेवा ले रही है। और फिर ये दोनों और पूरी भाजपा और संघ परिवार के लोग कितनी मेहनत करते हैं इसका हिसाब बहुत मुश्किल है. खर्चे का तो हिसाब ही न पूछें।

कर्नाटक चुनाव में प्रधानमंत्री की 19 रैलियां और आठ घंटे तक चले 26 किमी के 'ऐतिहासिक' रोड शो समेत कुल 6 रोड शो हुए तो भाजपा के धुरंधरों की 3116 रैलियां और 1377 रोड शो, 9125 जन सभाएं और 9077 नुक्कड़ सभाओं के बाद 311 मंदिरों और मठों में शीश नवाने का कार्यक्रम भी हुआ। प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार के आखिरी दस दिनों में मणिपुर की हिंसा, पाकिस्तान की पल-पल बदलती तस्वीर और जंतर-मंतर पर पहलवानों के धरने समेत अपनी सारी जिम्मेदारियां भुलाकर चुनाव प्रचार ही किया और बजरंग बाली के नारे लगवाने से लेकर ऐसे काफी सारे काम किए जो चुनाव प्रचार की सामान्य मर्यादाओं को तोड़ने वाला था। अकेले प्रधानमंत्री ही नहीं भाजपा ने 15 केन्द्रीय मंत्रियों समेत अपने 128 राष्ट्रीय नेताओं को कर्नाटक में कैंप कराया था। अमित शाह ने 10 रैलियां कीं तो 15 रोड शो भी निकाले।

स्मृति ईरानी ने 17 सभाएं और 2 रोड शो किए। भाजपा नेताओं में लोकप्रियता की होड़ में दूसरे नंबर पर माने जाने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 7 रैलियां और 3 रोड शो किए। इस होड़ में खुद को शामिल मानने वाले असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा ने 15 रैलियां और 1 रोड शो किया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 6 रैलियां और 1 रोड शो किया। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिंदे और उप मुख्यमंत्री फड़नवीस ने साझा 17 रैलियां कीं। अब यह अलग बात है कि चुनाव फिर भी हार गए। लेकिन पार्टी, राजनीति और सरकार को सिर्फ चुनावी मशीन में बदलने का काम बंद नहीं हुआ है। और अब तो कांग्रेस नए उत्साह से इसी काम में लगती जा रही है। उसके नरम हिन्दुत्व अपनाने भर का मसाला नहीं है।


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