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सब कुछ धुंधला है

सब कुछ धुंधला है, धुंधला है, मैं सारे ये गम भुला के घूम रहा, ये गीत पिछले साल आए एक अलबम का है और युवाओं के बीच खासा मशहूर है

सब कुछ धुंधला है
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- सर्वमित्रा सुरजन

पिछले 10 सालों से भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है। ये पूर्ण बहुमत भाजपा को 2014 में 31 प्रतिशत वोट के साथ मिला और 2019 में 38 प्रतिशत वोट के साथ। कांग्रेस समेत बाकी दल यही कहकर खुश होते रहे कि भाजपा को बहुमत मिलने के बावजूद बचे 60-70 प्रतिशत वोट हमारे पास रहे। लेकिन इन वोटों के बावजूद सत्ता क्यों नहीं मिली,इस पर कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया।

सब कुछ धुंधला है, धुंधला है, मैं सारे ये गम भुला के घूम रहा, ये गीत पिछले साल आए एक अलबम का है और युवाओं के बीच खासा मशहूर है। इस गीत की जो शुरुआती पंक्तियां हैं, वो देश की सियासत और देश के भविष्य की सटीक बयानी कर रही हैं। राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर हम क्या थे, क्या बनाए जा चुके हैं और अब आगे कैसे होंगे, इस बारे में विचार करें तो वाकई सब धुंधला ही नजर आएगा। आज से 20-30-50 साल पहले के भारत को देखें और आज से उसकी तुलना ईमानदारी से करें तो पता चलेगा कि कैसे संविधान में वर्णित मूल्यों को बड़े शातिराना तरीके से किनारे करते हुए हिंदुत्व की जड़ें गहरी की गईं, फिर देश में नफरत की अमर बेल फैलाई गई और अब समाज में जो स्पष्ट विभाजन हो चुका है, उसे सामान्य साबित किया जा रहा है। और इसका दोष अकेले भाजपा या संघ पर नहीं डाला जा सकता, इस देश के जितने राजनैतिक दल हैं, कांग्रेस समेत, वो सब इसमें भागीदार रहे हैं। क्योंकि अगर भाजपा ने 90 के दशक में ऐलान किया था कि मंदिर वहीं बनाएंगे, तो बाकी दलों ने भी अपनी कमियों और कमजोर फैसलों के कारण यह सुनिश्चित किया कि भाजपा मंदिर वहीं बनाए और केवल यहीं पर न रुके, बल्कि जम्मू-कश्मीर, मथुरा, काशी और इस तरह के तमाम मंसूबे जो नागपुर ने पाल रखे थे, उन्हें पूरा करके दिखाए।

देश में पिछले 10 सालों से भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है। ये पूर्ण बहुमत भाजपा को 2014 में 31 प्रतिशत वोट के साथ मिला और 2019 में 38 प्रतिशत वोट के साथ। कांग्रेस समेत बाकी दल यही कहकर खुश होते रहे कि भाजपा को बहुमत मिलने के बावजूद बचे 60-70 प्रतिशत वोट हमारे पास रहे। लेकिन इन वोटों के बावजूद सत्ता क्यों नहीं मिली, क्यों विधानसभा चुनावों में जीत नहीं मिली, इस पर कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया। ये विचारधारा और राजनैतिक प्रतिबद्धता का धुंधलापन है, जिसे केवल भाजपा को भला-बुरा कहकर दूर नहीं किया जा सकता। उसके लिए विपक्षी दलों के पास स्पष्ट नजरिया होना चाहिए। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल में मिली विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद अपने प्रदर्शन को लेकर कोई गंभीर मंथन कांग्रेस में दिखाई नहीं दे रहा है। अभी कांग्रेस इसी में खुश है कि भाजपा को मुख्यमंत्री तय करने में एक हफ्ते से अधिक वक्त लग गया। भाजपा ने तीनों राज्यों में एकदम से नए चेहरों को लाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया है, तो अब भाजपा में बगावत हो सकती है, इसी ख्याल से कांग्रेस प्रसन्न हो रही है। इसी को वैचारिक दिवालियापन या प्रतिबद्धता की कंगाली कहते हैं।

ये सही बात है कि धुंधलापन भाजपा के स्तर पर भी है। अगर दृष्टिकोण की स्पष्टता होती तो मुख्यमंत्री चयन में इतना वक्त नहीं लगता। जीते हुए विधायकों को यह तय करने दिया जाता कि उन्हें किसे विधायक दल का नेता चुनना है। मगर सत्ता के केन्द्रीकरण के आदी हो चुके प्रधानमंत्री मोदी और उनके सिपहसालार अमित शाह किसी भी तरह अपनी पकड़ कमजोर नहीं करना चाहते। इसलिए तीनों राज्यों में पूर्व मुख्यमंत्रियों और अन्य दिग्गजों को प्रतीक्षा की कतार में छोड़कर नए चेहरों को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। अब ये मुख्यमंत्री खुद को उपकृत मानते हुए आलाकमान के सामने वफादारी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसके बाद लोकसभा चुनाव की सभी सीटें अपनी पार्टी के खाते में करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगे।

2014 के बाद से ऐसा ही हुआ है कि लोकसभा के बाद विधानसभा चुनावों में जीत मिली, फिर विधानसभाओं के जरिए राज्यसभा में पार्टी की ताकत बढ़ी, उसके बाद मनमाने फैसले लेने में आसानी हुई, फिर दोबारा लोकसभा में जीत मिली और फिर से विधानसभा चुनावों में जीत मिली है। यही क्रम चला तो अगले चुनाव यानी 2024 में भाजपा की जीत के दावे खारिज नहीं किए जा सकते। और अगर ये दावे सही हुए तो फिर उसके बाद के विधानसभा चुनावों में जीत की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। यानी एक जीत से दूसरी जीत का मार्ग प्रशस्त होगा। उससे भाजपा की ताकत बढ़ेगी, लेकिन क्या देश ताकतवर बन पाएगा। क्या भाजपा की ताकत से डर कर चीन अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक अपने कब्जे के इरादे को छोड़ देगा, क्या भाजपा की ताकत रुपए की ताकत बढ़ा देगी, क्या हमारे देश के विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा के सम्मानजनक केंद्र बन जाएंगे, क्या खेतों में फसलें लहलहाने लगेंगी, क्या गंगा का मैल भाजपा की ताकत पाकर दूर हो जाएगा, क्या हिमालय की बर्फ इतनी सख्त हो जाएगी कि अपनी तराई में पल रहे गांवों की रक्षा कर सके, क्या हवा में घुला प्रदूषण भाजपा की आंधी से दूर हो जाएगा, क्या देश के युवाओं को नौकरी के लिए परीक्षा और नियुक्ति के इंतजार के जंजाल से आजादी मिल जाएगी। ऐसे सवालों की लंबी सूची है और जवाब तलाशने के लिए पिछले 10 सालों के भाजपा शासन को देखें तो निराशा ही होगी। जो काम 10 सालों में नहीं हुआ, वो अगले 10 सालों में भी कैसे हो पाएगा। कांग्रेस और बाकी सभी विपक्षी दलों को इन्हीं सवालों के साथ जनता के बीच जाना चाहिए।

मगर अभी फिर से विमर्श के मुद्दे भाजपा ही दे रही है, वही नैरेटिव सेट कर रही है। जैसे अभी संसद में केन्दीय गृहमंत्री अमित शाह ने पं.नेहरू की जम्मू-कश्मीर को लेकर गलतियां बताईं। एक उलझे हुए जटिल ऐतिहासिक मुद्दे का अति सरलीकरण करते हुए बताया कि केवल दो दिन नेहरू रुक जाते तो पीओके बनता ही नहीं। अमित शाह ने ये बात बिल्कुल मोदीजी की तर्ज पर कही। जैसे नोटबंदी के लिए श्री मोदी ने कह दिया था कि इससे भ्रष्टाचार दूर होगा, आतंकवाद खत्म हो जाएगा, काला धन मिट जाएगा। और जब कांग्रेस के सांसद के घर 3 सौ करोड़ से अधिक की नगदी मिलती है, तो श्री मोदी इसे कांग्रेस का भ्रष्टाचार बताते हुए ये बिल्कुल भूल जाते हैं कि इतनी नकदी मिलने का मतलब है नोटबंदी फेल हो गई है। कांग्रेस सांसद से पहले यूपी में इत्र के व्यापारी के घर भी ऐसे ही रकम पकड़ाई थी, मप्र में कुछ सरकारी अधिकारियों के घर ऐसे ही नोट निकले थे। यानी भ्रष्टाचार एक पार्टी तक सीमित नहीं है और इतनी आसानी से नहीं मिट सकता, जैसा प्रधानमंत्री मोदी दावा करते आए हैं। ऐसे ही जम्मू-कश्मीर की समस्या केवल पीओके बनने या अनुच्छेद 370 के कारण नहीं हुई, उसके लिए बहुत सारे अन्य कारक भी जिम्मेदार रहे, जिनका जिक्र अमित शाह ने अपनी राजनैतिक सुविधा के लिए नहीं किया।

राहुल गांधी ने कहा भी कि अमित शाह इतिहास से अनजान हैं। मैं उनसे इतिहास जानने की उम्मीद नहीं कर सकता, उन्हें इसे दोबारा लिखने की आदत है...। बिल्कुल सही कहा। लेकिन इससे आगे होना ये चाहिए कि अगर अमित शाह या भाजपा इतिहास को दोबारा लिखने की कोशिश में हैं, तो कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल उस कोशिश को रोकने में जुट जाएं। ये काम तथ्यों को जनता के बीच पहुंचाने से होगा। दस सालों में ये दिख गया कि मीडिया भाजपा के साथ है, सोशल मीडिया पर भी उसी का जोर है। तो फिर एक ही तरीका बचा है कि जनता तक सीधी पहुंच कायम की जाए। टीवी चैनल में दो-चार प्रवक्ता एंकरों को जवाब देते हैं और फिर उसकी वाहवाही सोशल मीडिया पर होती है, इससे कुछ हासिल नहीं होना है। इस समय पूरे इंडिया गठबंधन को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो जनता के बीच जाकर उन्हें तथ्यों के साथ इतिहास बताएं, संविधान में दिए गए उनके अधिकारों को आसान भाषा में समझाएं और ये भी बताएं कि मंदिर-मस्जिद की लड़ाई में उनका कितना नुकसान हो चुका है और कितना नुकसान होगा।

प्रो.मनोज झा, जवाहर सरकार, गौरव वल्लभ, आलोक शर्मा जैसे और लोग इंडिया को तलाशने होंगे, जो जनता को भाजपा की चालाकियां तथ्यों के साथ दिखा सकें। ये एक लंबी प्रक्रिया है, मगर राजनैतिक बदलाव जनता को साथ लिए बिना नहीं हो पाएगा। इसके अलावा कांग्रेस को सगों और ठगों का फर्क भी समझना होगा। क्या यह महज संयोग है कि कांग्रेस की हार के बाद ही शर्मिष्ठा मुखर्जी की अपने पिता प्रणव मुखर्जी पर लिखी किताब विमोचित होती है और उसके वही हिस्से मीडिया के जरिए चर्चा में आते हैं, जिन पर राहुल गांधी, सोनिया गांधी और राजीव गांधी की आलोचना की गई है। क्या शर्मिष्ठा मुखर्जी के साथ पी.चिदम्बरम की तस्वीर कांग्रेस आलाकमान सहज ढंग से लेंगे या इसमें छिपे संदेश को समझेंगे।

ये वक्त सारे गम भुलाकर घूमने का कतई नहीं है, कांग्रेस और इंडिया को देश में छाए धुंधलेपन को किसी न किसी तरह दूर करना ही होगा।


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