बीमा निजीकरण के पीछे क्या है?
बीमा निजीकरण का सरकारी और उदारीकरण अभियान का मिशन पूरा होने को है

- अरविन्द मोहन
अब अनुभव या उपभोक्ताओं के हित या देश की अर्थव्यवस्था का लाभ घाटा देख समझकर यह कदम उठाया जा रहा है तो इसके अपने तर्क ज्यादा कमजोर नहीं हैं। असल में पूंजी/शेयर बाजार, बीमा और बैंकिंग प्रधानत: पूंजीवाद का सबसे मजबूत उपकरण बन गए हैं और इस अर्थव्यवस्था में पूंजी का इंतजाम करने में उनकी सबसे बड़ी भूमिका होती है।
बीमा निजीकरण का सरकारी और उदारीकरण अभियान का मिशन पूरा होने को है। इस बार बजट में सौ फीसदी विदेशी पूंजी वाली बीमा कंपनियों के लिए दरवाजे खोले जा चुके है और उम्मीद की जा रही है कि संसद के इसी सत्र में सरकार नया बीमा संशोधन विधेयक पास कराने का प्रयास करेगी और जो स्थिति है उसमे इसे पास कराने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। इस बार मजदूर संगठनों से और किसी अन्य संगठित से विरोध के लक्षण अभी तक नहीं दिखे हैं। चार साल पहले जब सरकार ने विदेशी भागीदारी की सीमा 74 फीसदी की थी तब देश की चारों आम बीमा कंपनियों के साथ बैंक अधिकारियों के संगठन ने साझा विरोध अभियान चलाया और कई मामलों में सरकार को कदम वापस खींचने पड़े। और पांच साल का अनुभव यही बताता है कि उससे खास बात बनी नहीं। न ज्यादा नई पूंजी आई ना ही देश में चल रही कंपनियों में खरीद या घुसपैठ में ज्यादा दिलचस्पी ली गई। एक ही बड़ी निजी कंपनी कोटक महिंद्रा में अदल-बदल हुई। इससे न तो ज्यादा पूंजी आई न उत्साह दिखा। इस बार यह कदम उठाने के पीछे यह अनुभव तो था ही उदारीकरण के बचे-खुचे मिशन को पूरा करने का उद्देश्य भी होगा। और माना जा रहा है कि जो बिल सदन में लाया जाएगा उसमें रोक-टोक और निवेश की शर्तों में 'बाधा' बनने वाले प्रावधानों को निपटाने की तैयारी है।
दो आर्थिक अखबारों को बजट के बाद दिए इंटरव्यू में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो कुछ कहा उसका शत-प्रतिशत विदेशी पूंजी वाली बीमा कंपनियों के निदेशक मण्डल में हिन्दुस्तानी सदस्यों और विशेषज्ञों को रखने की अनिवार्यता वाला अभी का प्रावधान उठा लिया जाएगा। प्रीमियम से वसूली रकम को देश में ही लगाने की शर्त रहेगी लेकिन ऐसी कंपनियों को मुनाफा बांटने और निवेश संबंधी फैसलों में पूरी आजादी दी जाएगी। आर्थिक मामलों के सचिव अजय सेठ का कहना है कि कई नियम और प्रावधान अप्रासंगिक बन गए हैं इसलिए उनको भी बदला जाएगा- हालांकि उन्होंने ऐसे प्रावधानों का जिक्र नहीं किया। इन कदमों से क्या नतीजा आएगा, इसके बारे में जानकार लोगों की राय अभी भी बंटी हुई है। कई लोगों को लगता है कि सौ फीसदी मिल्कियत होने से भारी मात्रा में पूंजी ही नहीं आएगी, बीमा का व्यवसाय भी बदलेगा और बहुत नए तथा आकर्षक प्रोडक्ट लांच होंगे। इससे भारतीय समाज लाभान्वित होगा। ऐसे लोग भी हैं जिनका मानना है कि उदारीकरण के पूरे दौर या उससे पहले से देशी बीमा कंपनियों का जैसा काम चलता रहा है उसमें विदेशी कंपनियों के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं है।
यह बात अभी तक के अनुभव से भी सही ठहरती है क्योंकि प्रीमियम जुटाने या क्लेम के निपटारे में पहले पांच स्थानों पर अभी भी देशी कंपनियां ही बनीई हुई हैं और ये सब की सब सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां हैं। उनके क्लेम निपटारे का रिकार्ड विदेशी भागीदारी वाली कंपनियों से बहुत अच्छा है और उनके यहां पॉलिसीज़ को लेकर विवाद(कानूनी भी) बहुत कम हैं। यह बात लगातार सबकी जानकारी में है कि उदारीकरण अभियान में शुरू से ही बैंकिंग, पूंजी बाजार और बीमा को खोलने का दबाव रहा है। यह काम लाख विरोध और विदेशी हिस्सेदारी बढ़ाने के खराब अनुभव के बावजूद लगातार आगे बढ़ा है। और इस बार उसे अंतिम नतीजे तक पहुंचाने का फैसला हुआ है। यह माना जाता है कि इस सरकार ने सिर्फ दो बीमा कंपनियों( जिनमें एक जीवन बीमा और दूसरी सामान्य बीमा) और पांच सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को ही अपने हाथ में रखकर बाकी सबको बाजार के हवाले करने का मन बनाया है। जब भारतीय मजदूर संघ समेत अन्य मजदूर संघों और राजनैतिक विरोध ज्यादा दिखा तो बात दबा ली गई, इस बार कहीं से कोई आवाज नहीं है तो शत-प्रतिशत विदेशी निवेश का फैसला कर लिया गया।
अब अनुभव या उपभोक्ताओं के हित या देश की अर्थव्यवस्था का लाभ घाटा देख समझकर यह कदम उठाया जा रहा है तो इसके अपने तर्क ज्यादा कमजोर नहीं हैं। असल में पूंजी/शेयर बाजार, बीमा और बैंकिंग प्रधानत: पूंजीवाद का सबसे मजबूत उपकरण बन गए हैं और इस अर्थव्यवस्था में पूंजी का इंतजाम करने में उनकी सबसे बड़ी भूमिका होती है। अपनी आर्थिक व्यवस्था के मजबूत पदों पर बैठे किसी व्यक्ति से बहस कीजिए तो वह आपके सारे तर्क मानकर भी आखिर में यही कहेगा कि यह कदम देश की उदार निवेश व्यवस्था में भरोसा पैदा करने के लिए जरूरी है और इन तीनों क्षेत्रों में उदारीकरण के लिए जिन कदमों को उठाया गया उसके लाभ या घाटा जो भी रहे हों बात आगे ही बढ़ती गई है तो बीमा क्षेत्र को शत-प्रतिशत खोलना रोका नहीं जा सकता था। यह एक तरह की पूर्णाहुति है।
लेकिन बीमा व्यवसाय से जुड़े लोग आपको ठीक-ठीक हिसाब बताकर यह समझा देंगे कि देसी कंपनियों का कारोबार विदेशी और नामधारी कंपनियों से बेहतर है। प्रीमियम जमा करने और दावे निपटाने का रिकार्ड भी बेहतर है-बल्कि पहले पांच स्थानों पर सार्वजनिक क्षेत्र वाली कंपनियां हैं। इस मामले में यह उल्लेख करना जरूरी है कि क्लेम के मामले में एक ओर बड़ी कंपनियों के चंट वकील और लीगल टीम होती है तो दूसरी तरफ अपनी बचत का पाई-पाई लगाने वाला अकेला ग्राहक। अपने यहां, विदेशी और निजी बीमा कंपनियों से यह शिकायत आम है कि उनके एजेंट जिस पॉलिसी के नाम पर स्वीकृति और पैसा लेते हैं बाद में वह किसी और पॉलिसी में बदल देते है-आम तौर पर बाजार में ज्यादा जोखिम वाली योजनाओं में पैसा लगाया जाता है।
लेकिन जिस चीज की असली चर्चा होनी चाहिए वह इन कंपनियों से मिलने वाले बीमा के दायरे का है। वह विदेशी नाम या बड़े ब्रांड का बीमा तो करेंगे लेकिन देसी और छोटे उद्यमियों के उत्पाद बीमा के दायरे से बाहर हो जाते हैं, इसे अभी सबसे अच्छी तरह बीमारी के इलाज के सिलसिले से समझा जा सकता है। कल को मकान, दूकान, फर्नीचर, बरतन-बासन और हर चीज के बीमा में यह भेद दिखेगा और लगेगा कि विदेशी बीमा कंपनियां कुछ खास संगी साथियों की मदद करने आई है-आम लोगों से उनका कोई मतलब नहीं है। इससे भी ज्यादा घातक बात निवेश वाली कंपनियों का चुनाव है जो बहुत स्पष्ट ढंग से पक्षपात बढ़ाती हैं। पैसा हमारा आपका और निवेश का फैसला इन कंपनियों के हाथ में जाने से कुछ कंपनियों की आश्चर्यजनक तेज वृद्धि का रहस्य समझा जा सकता है। सो वे तो शत-प्रतिशत विदेशी मिल्कियत के लिए बेचैन होंगी ही हमारी सरकारें क्यों निरंतर उनका मिशन आगे बढ़ाने में लगी रही हैं यह समझना खास मुश्किल नहीं होना चाहिए।


