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उमर खालिद को फिर नहीं मिली जमानत

2020 के दिल्ली दंगों में आरोपी बनाए गए उमर खालिद, शरज़ील इमाम, गुलफ़िशां फ़ातिमा, अतहर ख़ान, अब्दुल ख़ालिद सैफ़ी, मोहम्मद सलीम ख़ान, शिफ़ा-उर-रहमान, मीरान हैदर और शादाब अहमद की जमानत याचिका 2 सितंबर को दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दी

उमर खालिद को फिर नहीं मिली जमानत
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2020 के दिल्ली दंगों में आरोपी बनाए गए उमर खालिद, शरज़ील इमाम, गुलफ़िशां फ़ातिमा, अतहर ख़ान, अब्दुल ख़ालिद सैफ़ी, मोहम्मद सलीम ख़ान, शिफ़ा-उर-रहमान, मीरान हैदर और शादाब अहमद की जमानत याचिका 2 सितंबर को दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दी। जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शालिंदर कौर की बेंच ने यह फैसला लिया है। इन सब पर आरोप है कि ये सभी दिल्ली दंगे में किसी 'बड़ी साज़िश' का हिस्सा थे। अब ये साज़िश कौन सी थी, उसका सच क्या है। क्या वाकई इन्हीं लोगों ने दंगे भड़काए, जैसा कि दिल्ली पुलिस का आरोप है या असल गुनहगार कोई और है, ये सारे खुलासे तो तभी हो पाएंगे जब मुकदमा चलना शुरु होगा। आश्चर्य है कि पिछले पांच सालों से उमर खालिद जेल में बंद हैं, लेकिन उन पर अब तक कोई मुकदमा चलाया नहीं गया है, जहां सुनवाई हो तो आरोपी भी अपना पक्ष रखे, अपने बचाव में तर्क प्रस्तुत करे।

पांच सालों में देश और दुनिया में कितना, कुछ बदल गया है। एआई का इस वक्त ऐसा बोलबाला हो गया है कि स्क्रीन पर दिखने वाली कोई घटना, कोई किरदार असली है या नकली इसका पता ही नहीं चलता। सच और झूठ के बीच हमेशा से एक अदृश्य महीन रेखा होती है, जिसे अनुभवी लोग परख लेते हैं। लेकिन एआई ने इन अनुभवों को भी चुनौती दी है। ऐसे में दिल्ली दंगों का सच भी क्या पूरी तरह कभी सामने आ पाएगा, इसमें संदेह है। और जितना ज्यादा वक्त गुजरता जाएगा, सच पर झूठ की परतें चढ़ाना आसान हो जाएगा। इसलिए बेहतर तो यही होता कि इस मामले में मुकदमा चलना शुरु हो जाता।

दिल्ली दंगों में ही एक और आरोपी तस्लीम अहमद की ज़मानत याचिका भी मंगलवार को खारिज हुई है, जिसकी सुनवाई दिल्ली हाईकोर्ट में जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ कर रही थी। इस बेंच का कहना है कि दिल्ली दंगों की बड़ी साजिश के मामले में विभिन्न समय पर मुकदमे में देरी के लिए आरोपी स्वयं ज़िम्मेदार हैं, न कि दिल्ली पुलिस या निचली अदालत। गौरतलब है कि करीब छह महीने पहले पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी वाय चंद्रचूड़ ने पत्रकार बरखा दत्त को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि उमर ख़ालिद को जमानत इसलिए नहीं मिली क्योंकि उनके वकील बार बार समय मांगते थे। वे मुकदमा शुरु नहीं होने देते और केस स्थगन की मांग जजों से करते थे। इस साक्षात्कार में जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा था कि सोशल मीडिया पर एक खास नजरिया सामने लाया जाता है, जबकि जजों के पास अपने बचाव के लिए कोई मंच नहीं है। बता दें कि मुख्य न्यायाधीश रहते हुए डी वाय चंद्रचूड़ ने ही बयान दिया था कि जमानत कोई अपवाद नहीं है, बल्कि एक नियम है और निचली अदालतों में इसे लागू करने में झिझक नहीं होनी चाहिए। उन्होंने अपने कार्यकाल में कई लोगों को जमानत दी और इस बात पर ज़ोर दिया कि ज़मानत देने में उदारता बरती जानी चाहिए। लेकिन उनके मुताबिक दिल्ली दंगों में आरोपियों के वकील ही जमानत की राह में आड़े आ रहे हैं और यही विचार अब हाईकोर्ट के माननीय जजों ने व्यक्त किए।

इस लिहाज से तो अब उमर खालिद समेत तमाम आरोपियों का पक्ष रखने वाले वकीलों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए ताकि अगली बार जमानत की अर्जी लगे तो उसे खारिज करने के नौबत न आए। बिना सुनवाई या सजा के पांच साल का लंबा वक्त जेल में गुजारना न्यायिक व्यवस्था के लिए आदर्श स्थिति नहीं है। पिछले साल अमेरिका के अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने उमर खालिद को जेल पर पूरे पन्ने की स्टोरी प्रकाशित की थी, जिसमें मोदी सरकार पर तो गंभीर सवाल उठे ही थे, देश की न्यायिक व्यवस्था पर भी सवाल थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार के लिहाज से भारत की छवि कुछ खास अच्छी नहीं है और ऐसी घटनाएं इस दाग को और गहरा करती हैं।

जहां तक उमर खालिद की जमानत इस बार खारिज होने का सवाल है, तो उनके वकील त्रिदीप पैस ने अदालत में तर्क दिया कि उनके खिलाफ आरोप बिना सबूत के हैं और पुलिस ने विरोध प्रदर्शनों को दंगों के साथ जोड़ने की कोशिश की है। उन्होंने कहा कि खालिद ने कोई हिंसा नहीं भड़काई और न ही वह दंगों के दौरान दिल्ली में मौजूद थे। पैस ने यह भी बताया कि खालिद ने एक व्हाट्सएप ग्रुप में केवल पांच संदेश भेजे थे, जिनमें से तीन गूगल मैप्स लोकेशन थे, और एक संदेश में उन्होंने पुलिस की ओर से विरोध प्रदर्शन को रद्द करने की अपील की थी। वहीं दिल्ली पुलिस की दलील है कि खालिद ने 'दिल्ली प्रोटेस्ट सपोर्ट ग्रुप' व्हाट्सएप ग्रुप के जरिए साजिश रची और उनकी गतिविधियां सरकार को 'घुटनों पर लाने' की मंशा को दिखाती थीं। पुलिस ने उनके अमरावती में दिए गए भाषण में 'इंकलाबी सलाम' और 'क्रांतिकारी इस्तकबाल' जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने को हिंसा भड़काने के रूप में पेश किया।

यहां दिल्ली पुलिस से पूछा जा सकता है कि जब अनुराग ठाकुर भरी सभा में देश के गद्दारों को गोली मारो, जैसे नारे लगाते हैं, तब क्या हिंसा भड़काने का आह्वान नहीं होता? इंकलाबी सलाम और क्रांतिकारी इस्तकबाल ये जुमले उर्दू में हैं, क्या इस वजह से किसी को हिंसा भड़काने का आरोपी बनाया जा सकता है। देश में जो धार्मिक जुलूस निकाले जाते हैं, या धर्म संसदें लगाई जाती हैं, उनमें कहीं ज्यादा हिंसक शब्दों का इस्तेमाल होता है। लेकिन ऐसे लोगों को गिरफ्तार कर पांच साल बिना सुनवाई के जेल में नहीं रखा जाता। अगर किसी की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज होती भी है, तो जेल से पहले ही जमानत मिल जाती है।

कई हाईप्रोफाइल मामलों में भी पेशेवर अपराधी या तो जेल में ठाठ से रहते हैं या बाहर खुले घूमते हैं। जबकि उमर खालिद की तो कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं है। वे गांधी और अहिंसा की बात करते हैं, आदिवासियों के हक से जुड़े मुद्दे पर उन्होंने पीएचडी की है। जेएनयू में छात्र नेता रहते हुए वंचितों के लिए आवाज उठाई और मजहब से वे मुसलमान हैं, क्या उनकी इस लंबी गिरफ्तारी के लिए ये असल कारक हैं, इस पर भी विचार होना चाहिए।

वैसे याद दिला दें कि बलात्कार और हत्या का दोषी गुरमीत राम रहीम पांच अगस्त को 40 दिन की पैरोल पर फिर बाहर आया था। इससे पहले दिल्ली चुनाव के वक्त 30 दिन और हरियाणा चुनाव के वक्त 20 दिन की पैरोल उसे दी गई थी। पैरोल का यह सिलसिला बार-बार चलता ही रहता है। कानून के रक्षक इस पर भी विचार करे।


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