तब कोई नक्सलवाद नहीं बचेगा
आम तौर से खबरों से दूर रहने वाले छत्तीसगढ़ से आजकल दो तरह की खबरें आ रही हैं जो राष्ट्रव्यापी चर्चा में दिल्ली और बिहार की चुनावी चकल्लस वाली खबरों पर भारी पड़ रही हैं

- अरविन्द मोहन
अगर हम सरकार और नक्सलियों की ताकत पर नजर डालें तो यह कोई लड़ाई ही नहीं होनी चाहिए और ऐसा मुकाबला होने का दौर कब का समाप्त हों जाना चाहिए था। लेकिन बस्तर ही नहीं. देश के काफी सारे इलाकों में नक्सलियों की मौजूदगी और नेपाल से लेकर महाराष्ट्र तक के जंगल जैसे इलाकों(दंडकारण्य) को लेकर एक रेड कारीडोर बनाने का सपना पूरा करने की जिद अगर अभी भी जारी है।
आम तौर से खबरों से दूर रहने वाले छत्तीसगढ़ से आजकल दो तरह की खबरें आ रही हैं जो राष्ट्रव्यापी चर्चा में दिल्ली और बिहार की चुनावी चकल्लस वाली खबरों पर भारी पड़ रही हैं। युवा और जुनूनी पत्रकार मुकेश चंद्राकर की सरकारी दुलारे ठेकेदार सुरेश चंद्राकर और उसके लोगों द्वारा हत्या कराने का मामला अगर सबको झकझोर रहा है और शासन(जिसके समर्थन के बगैर सुरेश न तो इतना बड़ा बनाता और न ऐसा दुस्साहस करता) को भी सक्रिय होने के लिए मजबूर कर रहा है, तो बस्तर में छिड़ी सुरक्षा बलों और नक्सलियों की लड़ाई ने दर्जनों जानें ले ली हैं। अब नक्सलियों की तरफ से तो जवाबी कार्रवाई होने पर ही उनकी तैयारी और मंशा की खबर आती है लेकिन शासन की तरफ से केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह और प्रदेश सरकार के काफी सारे लोग तथा नेता इस बार की लड़ाई में नक्सलवाद की सफाई का संकल्प दोहरा चुके हैं।
बीजापुर में बारूदी सुरंगों में विस्फोट कराके नक्सलियों ने स्थानीय स्तर पर तैयार दो बालों के आठ लोगों को मार दिया तब अमित शाह ने कहा हम बस्तर से नक्सलवाद समाप्त करके रहेंगे। कुछ समय पहले उन्होंने कहा था कि हम 2026 तक पूरे देश से नक्सलवाद मिटा देंगे। बस्तर में भी अबूझमाद के एक हिस्से को छोड़कर बाकी सभी जगह नकसलियों से जुड़ा सर्वे चल रहा है और अभी के जारी टकराव में सुरक्षा बालों ने नक्सलियों का काफी नुकसान किया था। रविवार को ही तीन दिन की भिड़ंत के बाद पांच नक्सली मारे गए थे जबकि सुरक्षा बालों का एक जवान भी शहीद हुआ था। सोमवार की बीजापुर की घटना उसका जवाब थी।
गृह मंत्री के संकल्प को ठीक और जरूरी मानना चाहिए क्योंकि देश के अंदर किसी भी गैर सरकारी संगठन या व्यक्ति की हैसियत कानून और संविधान से ऊपर नहीं हो सकती। और जिस ताकत की भी जरूरत हो शासन को उसका इस्तेमाल करके ऐसी गैर संवैधानिक सत्ता को समाप्त करना चाहिए। अमित शाह लंबे समय से सरकार में हैं और उनके कार्यकाल तथा भाजपा के कुल कार्यकाल को देखें तो इस मामले में उनकी उपलब्धियां और दावों में अंतर दिखेगा। पिछले साल से बस्तर में निश्चित रूप से सरकारी प्रयास बढ़े हैं। स्थानीय लोगों को लेकर फौज बनाना और उनको सामने करके एक्शन लेना अभी तक प्रभावी रहा है और पिछले साल में 287 नक्सली मारे जा चुके हैं। दूसरी ओर सुरक्षा बलों को कम नुकसान हुआ है(92 जवान मारे गए हैं) तो सिविलियन कैजुआल्टी ( 241 मौत) बढ़ी है। इसका बढ़ना बताता है कि नक्सलियों में बौखलाहट बढ़ी है और वे निहत्थे लोगों पर अपना निशाना बना रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि अबूझमाड़ के पास की यह घटना बारूदी सुरंगों में विस्फोट कराके अंजाम दी गई जो नक्सलियों का पुराना तरीका रहा है।
अगर हम सरकार और नक्सलियों की ताकत पर नजर डालें तो यह कोई लड़ाई ही नहीं होनी चाहिए और ऐसा मुकाबला होने का दौर कब का समाप्त हों जाना चाहिए था। लेकिन बस्तर ही नहीं. देश के काफी सारे इलाकों में नक्सलियों की मौजूदगी और नेपाल से लेकर महाराष्ट्र तक के जंगल जैसे इलाकों(दंडकारण्य) को लेकर एक रेड कारीडोर बनाने का सपना पूरा करने की जिद अगर अभी भी जारी है तो इसके पीछे नक्सलवाद का राजनैतिक दर्शन जितना बड़ा कारण नहीं है उससे बड़ा कारण इन इलाकों का पिछड़ा होना है। बेरोजगारी बहुत है और आर्थिक पिछड़ापन जीवन को नरक बनाता है। फिर अगर सरकार फौज बनाती है तब और नक्सली फौज बनाते हैं तो नौजवानों की कमी नहीं रहती। मरने वाले दोनों तरफ के लोग यही बनाते हैं। सरकार की राष्ट्रभक्ति के पाठ में भी दम होता है तो नक्सली वर्ग संघर्ष और क्रांति के सपने का भी अपना नशा होता है और फिर हाथ में हथियार हो और चलाने की आजादी हो तो खुद को बादशाह समझना आसान बन जाता है। इस आधार पर इसे सिर्फ लॉ एंड आर्डर की समस्या मानना भी गलत होगा और मौजूदा नीति का यह दोष है कि इसमें डायलाग वाली जगह रखी ही नहीं गई है।
ग्यारह साल के मोदी राज या उससे पहले के मनमोहन राज को देखें तो देश में नक्सली समस्या काफी काम हुई है। झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र, ऑडिशा, बंगाल, आंध्र के ज्यादातर नक्सली इलाके आज शांत हो चुके हैं। बस्तर छोड़कर कहीं-कहीं उनका असर है। और यह समेटना सरकारी प्रयास के साथ संवाद या चुनावी लोकतंत्र में बढ़ती आस्था के साथ जुड़ा है। जब समस्याओं का निपटारा शांतिपूर्ण ढंग से हो जाए तो जान जोखिम में डालने की जरूरत नहीं लगती। दूसरी ओर नेपाल के प्रचंड से लेकर देश के नक्सली नेताओं का आचरण भी ऐसा हुआ है कि सामान्य बुद्धि वाले नौजवान को झूठा स्वर्ग दिखाना संभव नहीं रहा है। नक्सल आंदोलन की अपनी कमजोरियां भी साफ दिखी हैं। हिंसा के अलावा बहुत कुछ ऐसा है जिसे समझना किसी नौजवान के लिए संभव है-जैसे बड़े व्यावसायिक घरानों से याराना और पैसा वसूली। कहीं भी आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था पर चोट न करके पुराने सत्ता प्रतीकों(जिसमें बड़ी जाति और जमींदारी शामिल है) को निशाना बनाना सवाल पैदा करता है कि गरीबी, बदहाली, पिछड़ेपन और अशिक्षा के लिए आज मुख्य दोषी कौन है। तब बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां और सरकारों में बैठे उनके एजेंट ज्यादा दोषी दिखेंगे।
कायदे से सैनिक कार्रवाई या सख्ती के साथ शिक्षा और संवाद का कार्यक्रम भी चलना चाहिए, भटके नौजवानों की वापसी और पुनर्वास का काम भी होना चाहिए। यह याद रखना होगा कि नक्सली नेताओं में सिफ प्रचंड जैसे लोग ही नहीं हुए हैं(जो सत्ता पाते ही बदल जाएं) बल्कि त्याग तपस्या वाले भी है। वे वैचारिक रूप से भटके हो सकते हैं, हिंसा के सहारे राजनैतिक-सामाजिक बदलाव का भ्रम पाले हो सकते हैं पर उनका निजी आचरण और जीवन काफी लोगों को प्रेरक भी लगा सकता है और सबसे बढ़ाकर जिन स्थितियों में नक्सलवाद जन्म लेता और पनपता है, जमीन बनाता है उसको भी समाप्त करना लक्ष्य होना चाहिए। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी बस्तर, पलामू, कालाहांडी और गढ़चिरौली जैसे पिछड़े ठिकाने होना देश के कथित विकास और भारत के विश्व शक्ति बन जाने का मुंह ही चिढ़ाते हैं। उन पर शर्म करना भी हमें और गृह मंत्री को सीखना होगा। जैसे ही इन सब मोर्चों पर फौजी मुहिम जैसी तत्परता दिखेगी, कोई नक्सलवाद नहीं बचेगा।


