प्रियंका की चुनावी सियासत का आगाज़
अपने बड़े भाई राहुल गांधी की केरल के वायनाड की छोड़ी लोकसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव के लिये प्रियंका गांधी-वाड्रा ने बुधवार को परचा भरकर अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत कर दी है

अपने बड़े भाई राहुल गांधी की केरल के वायनाड की छोड़ी लोकसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव के लिये प्रियंका गांधी-वाड्रा ने बुधवार को परचा भरकर अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत कर दी है। परिवारवाद को लेकर भारतीय जनता पार्टी को एक और हमले का अवसर देते हुए कांग्रेस ने प्रियंका को मैदान में उतारा तो है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक प्रियंका का पलड़ा इस कदर भारी बतला रहे हैं कि भारतीय संसद पहली बार एक नहीं, दो नहीं बल्कि गांधी-नेहरू परिवार के तीन सदस्यों को एक साथ देखने जा रही है। राहुल ने 2024 का आम चुनाव वायनाड के साथ रायबरेली से लड़ा था। दोनों सीटों पर जीतने के बाद उन्होंने वायनाड की सीट छोड़ दी जहां से वे 2019 में भी निर्वाचित हुए थे। उस बार भी वे दो जगहों से चुनाव लड़े थे। दूसरा लोकसभा क्षेत्र अमेठी था, जहां उन्हें स्मृति ईरानी ने हराया था। 1998 से रायबरेली का प्रतिनिधित्व कर रही उनकी मां सोनिया गांधी इस साल हुए चुनाव में खड़ी नहीं हुईं परन्तु उन्हें पार्टी ने राज्यसभा में भेजा है। यदि वायनाड में होने जा रहे उपचुनाव में प्रियंका जीत जाती हैं तो वे परिवार की तीसरी मौजूदा सांसद होंगी।
वे बेशक गांधी परिवार की सदस्य हैं, लेकिन उन्होंने पिछले कुछ वर्षों से चुनावी प्रबंधन में अपनी कुशलता का परिचय दिया है। आकर्षक व्यक्तित्व की धनी प्रियंका सड़कों पर संघर्ष करना जानती हैं, विमर्श रचती हैं, भाजपा के आरोपों का मुंहतोड़ जवाब देती हैं और मुद्दों को लेकर सरकार पर टूट पड़ती हैं। पिछले 5 वर्षों के दौरान पार्टी की बतौर महासचिव उन्होंने सबसे पहले उत्तर प्रदेश का जिम्मा सम्हाला।
हालांकि 2019 के लोकसभा और 2022 के विधानसभा चुनावों में उनके नेतृत्व में कांग्रेस को बहुत सफलता नहीं मिल सकी थी। इसके कारण काफी लोगों को लगने लगा था कि प्रियंका में वह बात नहीं है जिसकी उम्मीद थी। भाजपा के लिये यह विशेष संतोष की बात थी। नाकामी से विचलित हुए बिना प्रियंका ने अपनी लड़ाई का मुंह सड़कों की तरफ़ मोड़ दिया। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार के साथ महिला सुरक्षा और उनके साथ होने वाले अत्याचारों को लेकर वे मुखर रहीं। उप्र में 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' का नारा चाहे विशेष कामयाब न हो पाया परन्तु उन्होंने प्रदेश में होने वाले बलात्कारों तथा उत्पीड़न के खिलाफ जोरदार आवाज़ें उठाईं। प्रशासन ने कई जगहों पर उन्हें जाने से रोकने की कोशिशें की थीं, पर वे हाथरस, उन्नाव आदि गयीं और अपनी कटिबद्धता व साहस का परिचय देती रहीं।
ऐसा नहीं है कि उन्हें राजनीतिक समझ उनके पिता राजीव गांधी की तरह सक्रिय राजनीति में उतरने के बाद हुई। जब राजीव प्रधानमंत्री बने तो वे बहुत छोटी उम्र में उनके साथ पिता के चुनावी क्षेत्र अमेठी जाया करती थीं। उनके परिवार के प्रति लोगों के अनुराग को उन्होंने नज़दीक से देखा था और उनमें देश के प्रति दायित्व की समझ कम उम्र में विकसित हो गयी थी। उन्होंने अपने भाई के साथ-साथ पहले दादी इंदिरा गांधी और बाद में राजीव की शहादत को भी देखा था। निराशा व नाराज़गी के बावजूद उन्होंने देश के लिये परिवार के इन दो लोगों के त्याग का महत्व समझा।
देश के प्रथम राजनीतिक परिवार की सदस्य होने के नाते सियासत का प्रशिक्षण उन्हें स्वाभाविकत: बचपन से ही मिलता गया। इसका लाभ लेते और उसका प्रदर्शन करते हुए प्रियंका लगातार सक्रिय रहीं। कर्नाटक, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा आदि राज्यों में उन्होंने जमकर चुनाव प्रचार किया। यह अलग बात है कि उनकी पार्टी को कहीं सफलता मिली तो कहीं असफलता, लेकिन उनके करिश्माई व्यक्तित्व के ज्यादातर लोग मुरीद होते गये। मौजूदा लोकसभा में यदि कांग्रेस की सदस्य संख्या लगभग दोगुनी हुई है तो उसमें राहुल एवं कांग्रेसाध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के साथ प्रियंका के भी योगदान से कोई इंकार नहीं कर सकता। वैसे प्रियंका का चुनावी प्रबन्धन का 35 वर्षों का अनुभव है- कभी अपनी मां सोनिया तो कभी राहुल के लिये। इस बार उन्होंने अमेठी में किशोरीलाल शर्मा को जीत दिलाई थी।
पिछले दिनों राहुल द्वारा की गयी दो पदयात्राओं के दौरान जो विमर्श गढ़ा गया तथा जिसे लोकसभा में सांसद के तौर पर स्वयं राहुल व कांग्रेस ने बढ़ाया, उसे सड़कों पर प्रियंका ने मजबूती दी। राहुल जिस प्रकार महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, सामाजिक न्याय आदि की बातें उठाते रहे, उसमें अपना सशक्त स्वर प्रियंका ने मिलाया है। मोदी सरकार तथा देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों के खिलाफ भी बेखौफ होकर प्रियंका ने अपनी रैलियों में आवाज़ उठाई। वायनाड सीट पर राहुल दो बार चुनाव जीत चुके हैं।
उनका यहां अच्छा खासा प्रभाव है- बावजूद इसके कि वे यह सीट छोड़ चुके हैं। इसलिये प्रियंका जब यहां नामांकन भरने पहुंची तो उस मौके पर आयोजित रोड शो के रूप में जो जनसैलाब उमड़ा, उसने इस बात का आभास दे दिया है कि चुनावी परिणाम क्या होगा। प्रियंका की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों एक सभा में खुद राहुल ने कहा था कि 'यदि प्रियंका वाराणसी से चुनाव लड़तीं (2024 का), तो मोदी संसद में नहीं होते।' वायनाड में राहुल की ताकत तो उनके साथ होगी ही, जिन्होंने 2019 में 4.1 लाख और 2024 में 3.64 लाख वोट पाये थे। प्रियंका यदि 13 नवम्बर को होने वाले उपचुनाव में (परिणाम 23 नवम्बर को) जीतकर लोकसभा पहुंचती हैं तो यह भाजपा, विशेषकर मोदी के लिये नयी मुसीबत होगी। जो मोदी-भाजपा अकेले राहुल के संसद के भीतर हमलों से पहले ही हलाकान हैं, भाई-बहन का दोहरा हमला कैसे झेलेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।


