ललित सुरजन की कलम से- स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्गति-1
कहीं कोई खेतिहर मजदूर अपनी मृत पत्नी का शव कंधे पर ढोकर पन्द्रह-बीस किलोमीटर पैदल गांव की ओर जा रहा है

'कहीं कोई खेतिहर मजदूर अपनी मृत पत्नी का शव कंधे पर ढोकर पन्द्रह-बीस किलोमीटर पैदल गांव की ओर जा रहा है, तो कोई हाथ ठेले में लाश ले जाने पर मजबूर है; किसी गर्भवती स्त्री को अस्पताल लाना हो तो एक नहीं, अनेक अड़चनें सामने आ जाती हैं।
ऐसे ही प्रसंग के चलते दशरथ मांझी पर फिल्म बन गई और उसके नाम की चर्चा विदेशों तक हो गई। ग्रामीण इलाकों से बार-बार सुनने में आता है कि वहां महिला चिकित्सकों की पदस्थापना ही नहीं होती और यदि होती है तो कोई वहां रहना नहीं चाहता है। यह स्थिति सिर्फ एलोपैथिक डॉक्टरों की नहीं है, ग्रामीण इलाकों के आयुर्वेदिक अस्पताल भी, अगर कहीं भगवान है तो उसके भरोसे हैं। कुछ वर्ष पूर्व आदिवासी ग्राम दुगली में (जहां राजीव गांधी एक बार स्वयं पधारे थे।) आयुर्वेदिक अस्पताल का सूना भवन मैंने देखा था। छह बिस्तर का अस्पताल, औषधि कक्ष, निरीक्षण कक्ष, डॉक्टर का निवास, सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से निर्मित, लेकिन वहां न डॉक्टर था, न कम्पाउंडर और न ड्रेसर। धमतरी से एक कम्पाउंडर बीच-बीच में आकर सेवाएं देता था।'
(देशबन्धु में 20 जुलाई 2017 को प्रकाशित)
https://lalitsurjan.blogspot.com/2017/07/1.html


