Top
Begin typing your search above and press return to search.

विदेशी मोर्चे पर भारत को दोहरा झटका

मोदी सरकार से घर तो संभल नहीं रहा, विदेश नीति में भी नरेन्द्र मोदी पूरी तरह नाकाम हो चुके हैं, यह बात कई तरह से सामने आई है

विदेशी मोर्चे पर भारत को दोहरा झटका
X

- सर्वमित्रा सुरजन

अगर चीन और पाकिस्तान कोई नया संगठन बनाते हैं और उसमें बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल और मालदीव जैसे देश शामिल हो जाते हैं, तो भारत को जरूर चिंता होगी। भूटान को छोड़ दें तो कोई भी दक्षिण एशियाई देश शायद भारत के साथ खड़ा नहीं होगा। यानी भारत के लिए बड़ी चुनौती खड़ी होने वाली है।

मोदी सरकार से घर तो संभल नहीं रहा, विदेश नीति में भी नरेन्द्र मोदी पूरी तरह नाकाम हो चुके हैं, यह बात कई तरह से सामने आई है। लेकिन हाल में दो ऐसे वाकए वैश्विक स्तर पर हुए हैं, जो भारत के लिए चिंताजनक हैं। हालांकि इस बात की पूरी उम्मीद है कि मोदी सरकार या भाजपा के कट्टर समर्थक इन चिंताओं को हवा में उड़ाकर कह दें कि मोदी है तो मुमकिन है और उसके बाद सब चंगा सी। लेकिन इस रवैये से न उनका भला होगा, न देश का। जुमलों से राजनीति चल सकती है, चुनाव जीते जा सकते हैं, जनता का ध्यान भी भटकाया जा सकता है, लेकिन वैश्विक मंच पर जुमले कारगर नहीं होते, खासकर ऐसे वक्त में जब भारत को नीचा दिखाने के लिए लोग बरसों से तैयार बैठे हों।

पहला प्रकरण यह है कि नाटो के प्रमुख मार्क रूट ने भारत को बाकायदा धमकी दी है कि अगर उसने रूस से व्यापार संबंध खत्म नहीं किए तो 100 प्रतिशत सैकेंडरी सेन्कशन्स यानी प्रतिबंध लग जाएंगे। दूसरा प्रकरण यह है कि चीन अब पाकिस्तान के साथ मिलकर दक्षिण एशियाई देशों के लिए कोई नया संगठन खड़ा करने की तैयारी में है। इस संगठन में भारत का कोई स्थान तो नहीं ही होगा, लेकिन नयी खतरनाक चुनौतियां रहेंगी, यह तय है। याद कीजिए राहुल गांधी ने संसद में कहा था कि मोदी सरकार की गलतियां चीन और पाकिस्तान को साथ ला रही हैं, अब वह आरोप सिद्ध होता दिख रहा है।

1947 में मिली आजादी के बाद ही भारत न केवल आर्थिक तौर पर अपने पैरों पर खड़ा होने के काम में जुट गया, बल्कि अपने जैसे कई और देशों का इकबाल बुलंद करने के लिए पं.नेहरू ने गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत दिया, जिसे तीसरी दुनिया के देशों ने हाथों-हाथ लिया। दूसरी तरफ पश्चिम का दबाव कम करने के लिए दक्षेस का गठन हुआ। दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी दक्षेस यानी सार्क जब 1985 में बना तब उद्देश्य यही था कि इसमें शामिल सभी देश एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए आगे बढ़ेंगे। 2014 के पहले की तमाम सरकारों ने सार्क के महत्व को बनाए रखा। पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध होने के बावजूद सार्क के खत्म होने की नौबत नहीं आई। 2014 में जब प्रधानमंत्री मोदी ने पहली बार पदभार ग्रहण किया तो सार्क देशों के प्रमुखों को न्यौता भेजकर यह जाहिर किया था कि वे भी अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की राह पर चलकर विदेश नीति को वैसे का वैसा बनाए रखेंगे। लेकिन साल बीतते न बीतते श्री मोदी की अलग पहचान बनाने की ख्वाहिश ने ऐसा जोर पकड़ा कि अब सार्क पूरी तरह अप्रासंगिक हो गया है और इस शून्य को भरने के लिए चीन और पाकिस्तान नयी चाल चल रहे हैं। हाल ही में चीन के कुनमिंग शहर में पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश के बीच त्रिपक्षीय बैठक हुई थी। बताया जा रहा है कि इस बैठक का उद्देश्य दक्षिण एशियाई देशों को इस नए संगठन में शामिल होने का आमंत्रण देना था।

हालांकि बांग्लादेश ने ऐसी किसी संभावना से इंकार किया है। लेकिन इस तथ्य को कैसे झुठलाया जा सकता है कि चीन के कारण पाकिस्तान और बांग्लादेश एक साथ बैठे, और भारत इसमें अलग-थलग रहा। शेख हसीना को अपदस्थ करने और मो.युनूस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार बनने के बाद से ढाका से भारत के रिश्ते खराब हो रहे हैं। इधर पाकिस्तान के साथ तो बात लगातार बिगड़ ही रही है। अभी ऑपरेशन सिंदूर में जब पाकिस्तान हार की कगार पर था, एक तरफ से अमेरिका ने सीजफायर का ऐलान कर दिया और दूसरी तरफ से पाक को आधुनिक हथियार देने के लिए चीन भी आगे आया। इस महीने की शुरुआत में फिक्की के एक कार्यक्रम में भारतीय सेना के उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर सिंह ने कहा था कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान अग्रिम मोर्चे पर था और चीन ने उसे हर संभव समर्थन दिया।

पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध हमेशा तनावपूर्ण रहे हैं, और चीन भी पाक के जरिए भारत को घेरने की कोशिश करता रहा है, लेकिन यह सब इतने खुलेआम इससे पहले कभी नहीं हुआ। कारगिल युद्ध या मुंबई हमलों के बाद भी भारत-पाक के बीच तनाव बढ़ा था, दोनों देशों के बीच कई बार मैच रद्द होने, कलाकारों को रोकने जैसी नाराजगी दिखाई गई है। लेकिन इन सबके साथ संवाद हमेशा चलता रहा, मोदी सरकार ने उसे भी बंद कर दिया है। अपने शपथग्रहण में पाक को दावत देने से लेकर नवाज शरीफ के घर खुद दावत में अचानक पहुंच जाने वाले श्री मोदी को शायद इस बात का डर है कि अगर उन्होंने पाक पर सख्ती दिखाने के साथ ही संवाद भी जारी रखा तो इससे उनकी राष्ट्रवादी छवि को धक्का लगेगा और देश का एक बड़ा तबका, जिसे भाजपा ने ही उग्रराष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाई है, वो नाराज हो जाएगा। इस तबके को खुश रखने के लिए भाजपा ने चुनाव में विरोधियों के वोट काटने के लिए पाकिस्तान विरोधी बातें कहते हैं। हालांकि मोदी सरकार के समझदार लोग भी यह जानते होंगे कि पाकिस्तान से अबोला रखकर समस्याएं और बढ़ेंगी, सुलझेंगी नहीं।

दक्षिण एशिया में एक नए क्षेत्रीय संगठन की स्थापना की हलचल ऐसी ही एक समस्या दिखाई दे रही है। पाकिस्तानी अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन और पाकिस्तान मिलकर ऐसा संगठन बना सकते हैं, जो अब लगभग निष्क्रिय हो चुके सार्क की जगह ले लेगा। इस पहल के जरिए शायद भारत को यह संदेश देने की कोशिश है कि क्षेत्रीय समूह भारत के बिना और चीन के नेतृत्व में भी बनाए जा सकते हैं। बता दें कि सार्क का आखिरी सम्मेलन 2014 में हुआ था, इसके बाद 2016 में इस्लामाबाद में प्रस्तावित शिखर सम्मेलन का भारत ने बहिष्कार कर दिया था। भारत ने उरी आतंकी हमले के बाद यह कदम उठाया था, इसके बाद बांग्लादेश, भूटान और अफगानिस्तान ने भी सम्मेलन से किनारा कर लिया था। लेकिन पाकिस्तान के बहिष्कार के बावजूद भारत बाकी दक्षेस देशों को इस बात के लिए राजी नहीं कर सका कि वे पाक को अलग-थलग कर दें। ये देश भारत और पाक दोनों के साथ अपने-अपने स्तरों पर दोस्ती निभाते रहे।

भारत चाहता है कि वह किसी भी क्षेत्रीय समूह में 'केंद्र शक्ति' के रूप में उसे स्वीकार किया जाए, लेकिन अन्य देश इसे विभिन्न कारणों से स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसे में मोदी सरकार को यह सोचना चाहिए कि क्यों उसकी बात को द.एशिया के देश सुनने तैयार नहीं हैं। भारत और पाकिस्तान का आपसी तनाव शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) जैसे बहुपक्षीय मंच पर भी दिख रहा है। इसमें भी चीन पाकिस्तान के साथ अपनी नजदीकी को नि:संकोच दिखा रहा है। अब अगर चीन और पाकिस्तान कोई नया संगठन बनाते हैं और उसमें बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल और मालदीव जैसे देश शामिल हो जाते हैं, तो भारत को जरूर चिंता होगी। भूटान को छोड़ दें तो कोई भी दक्षिण एशियाई देश शायद भारत के साथ खड़ा नहीं होगा। यानी भारत के लिए बड़ी चुनौती खड़ी होने वाली है, ऐसे में भारत को सार्क को पुनर्जीवित करने के लिए गंभीर प्रयास करने चाहिए और पाकिस्तान के साथ किसी न किसी रूप में संवाद शुरू करना चाहिए, ताकि अगली सार्क बैठक के समय प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान की यात्रा कर सकें। भारत को अपने अन्य सार्क पड़ोसी देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को भी बेहतर बनाने के लिए काम करना चाहिए। यह सब करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अब वैश्विक ताकतें फिर अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों को धमकी दे रही हैं। अभी रूस के साथ व्यापार संबंध रखने पर नाटो प्रमुख मार्क रूट ने सीधे तौर पर भारत, चीन और ब्राजील को धमकी दी है। उन्होंने दो टूक कहा कि अगर यह तीनों देश रूस से व्यापार जारी रखते हैं तो नतीजे भुगतने के लिए तैयार रहें।

नाटो प्रमुख मार्क रूट ने कहा, 'सुनिए.. अगर आप चीन के राष्ट्रपति हैं, या फिर भारत के प्रधानमंत्री हैं या फिर ब्राजील के राष्ट्रपति हैं और आप अभी भी रूसियों के साथ बिजनेस कर रहे हैं और उनका तेल और गैस खरीद रहे हैं, तो आप समझ लीजिए कि अगर मॉस्को में बैठा वो आदमी शांति वार्ता को गंभीरता से नहीं ले रहा है तो मैं 100 फीसदी का सेकेंडरी सैंक्शंस लगाने जा रहा हूं।'

उन्होंने कहा कि अगर यह तीनों देश रूस के साथ व्यापार करना जारी रखते हैं तो उन पर सेकेंडरी सैंक्शंस बहुत भारी पड़ सकते हैं। यह सैंक्शंस अमेरिका द्वारा इन देशों पर लगाया जा सकता है।

बता दूं कि नाटो प्रमुख ने यह बात बुधवार को अमेरिकी सीनेटरों के साथ बैठक के दौरान कही। खास बात यह है कि एक दिन पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यूक्रेन के लिए नए हथियारों की घोषणा की, साथ में रूस से सामान खरीदने वाले देशों पर कठोर टैरिफ लगाने की धमकी भी दी है। मार्क रूट ने कहा है कि व्लादिमीर पुतिन को फोन करें और उन्हें बताएं कि उन्हें शांति वार्ता के बारे में गंभीर होना होगा, वरना इसका ब्राजील, भारत और चीन पर व्यापक रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

विश्व राजनीति में धमकियों की अपनी भाषा और इतिहास रहा है। भारत ने भी इनका सामना किया है, लेकिन अब भारत क्या करेगा, यह देखना होगा। क्योंकि श्री मोदी से पहले कभी किसी प्रधानमंत्री ने विदेशी दौरों में लपक-लपक कर राष्ट्राध्यक्षों को गले लगाया, न उनसे निजी दोस्ती के ऐसे दावे किए कि हम तो तू तड़ाक की भाषा में बात करते हैं। बल्कि हर प्रधानमंत्री ने अपने पद की गरिमा बनाए रखते हुए अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक तकाजों के अनुरूप व्यवहार किया। इसलिए जब भी भारत को अलग-थलग करने की कोशिशें हुईं, तो वो नाकाम हो गईं। अब नाटो की धमकी पर चीन और ब्राजील क्या कहेंगे, यह पता नहीं, क्योंकि इन दोनों देशों ने कभी खुलकर डोनाल्ड ट्रंप के लिए वोट नहीं मांगे, न उन्हें अपना डियर फ्रेंड बताया। जबकि मोदी ऐसा करके खुद को फंसा चुके हैं।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it