निर्वाचन आयोग का रवैया और चुनावों की स्थिति
भुवनेश्वर में 11 जुलाई को कांग्रेस द्वारा आयोजित 'संविधान बचाओ रैली' में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर 'चोरी' करने का आरोप लगाया

- डॉ.मलय मिश्रा
एडीआर के संस्थापक जगदीप छोकर ने अपने शोधपत्र, 'साइमलटेनियस इलेक्शन्स: स्ट्राकिंग एट द रूट्स ऑफ पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी' में तर्क दिया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के चुनावों का संयोजन त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इसके लिए संविधान में व्यापक संशोधन की आवश्यकता होगी तथा इससे केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्ति संतुलन बिगड़ जाएगा।
भुवनेश्वर में 11 जुलाई को कांग्रेस द्वारा आयोजित 'संविधान बचाओ रैली' में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर 'चोरी' करने का आरोप लगाया। राहुल इस साल नंवबर में बिहार में होने वाले चुनाव के सिलसिले में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (स्पेशल इंटेंसिव रिविज़न- एसआईआर) की आड़ में बिहार में बड़े पैमाने पर लोगों को मताधिकार से वंचित करने की कवायद का जिक्र कर रहे थे। एसआईआर का काम 2005 में ही पूरा हो चुका था।
इसके एक दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने एसआईआर की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए सुझाव दिया कि चुनाव आयोग तीन और दस्तावेजों- आधार कार्ड, मतदाता कार्ड और राशन कार्ड को पहले से ही सूचीबद्ध 11 दस्तावेजों के साथ जोड़ सकता है। चुनाव आयोग के अनुसार पंजीकरण अभ्यास 'संपूर्ण' नहीं था तथा आधार को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जा सकता है लेकिन पहचान वाले दस्तावेज के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। संयोग से, आधार का उपयोग सभी सहायक दस्तावेजों को बनाने के लिए किया जाता है इसलिए चुनाव आयोग द्वारा इसका बहिष्कार करना अतार्किक लगता है। चुनाव कानून (संशोधन) अधिनियम, 2021 ने मतदाता की पहचान स्थापित करने के लिये आधार को एक वैध दस्तावेज के रूप में शामिल करने के लिये जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 में संशोधन किया था। भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) की वेबसाइट के अनुसार बिहार में आधार कवरेज 94 प्रतिशत है इसलिए चुनाव आयोग द्वारा आधार को स्वीकार्य दस्तावेज के रूप में शामिल न करने का कोई कारण नहीं है।
चुनाव आयोग की ऐसी गतिविधि से मतदाता पंजीकरण प्रक्रिया की उसकी नीयत में खोट नजर आती है जिसका उद्देश्य वास्तविक मतदाताओं को शामिल करने की तुलना में उनका बहिष्कार करना अधिक है। यह ध्यान देने वाली बात है कि चुनाव आयोग ने 2003 में बिहार में इसी तरह की कवायद की थी और तब दो साल में संशोधित मतदाता सूची को अंतिम रूप दिया गया था। मतदाता सूचियों को एक महीने की अवधि के भीतर फिर से संशोधित करना, अभूतपूर्व और अव्यावहारिक है। अनुमान है कि आयोग द्वारा 'अचानक' लागू किए गए इस उपाय का संभावित कारण यह है कि सरकार मतदाताओं के एक निश्चित वर्ग को बाहर रखने का प्रयास करती रही है। इनमें ज्यादातर अल्पसंख्यक समूह और हाशिए पर रह रहे नागरिक हैं जो इतने कम समय में आवश्यक दस्तावेज प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो सकते। इन आवश्यक दस्तावेजों में जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, मैट्रिक प्रमाणपत्र, नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर, परिवार रजिस्टर, भूमि या घर आवंटन प्रमाणपत्र, पेंशन भुगतान आदेश अथवा 1 जुलाई, 1987 से पहले सरकार या स्थानीय अधिकारियों द्वारा जारी कोई भी पहचान पत्र शामिल हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि राजद के नेतृत्व में संयुक्त विपक्ष और कांग्रेस, वाम दलों और एआईएमआईएम (मुसलमानों का प्रतिनिधित्व) ने चुनाव आयोग के छल-कपट के खिलाफ जागरूकता पैदा करने के लिए पिछले हफ्ते चक्का जाम का आयोजन किया था।
चुनाव आयोग का कहना है कि एक अभ्यास के रूप में एसआईआर को यह सुनिश्चित करने के लिए शुरू किया है कि किसी भी पात्र मतदाता छोड़ा नहीं जाएगा जबकि कोई भी अयोग्य व्यक्ति मतदाता सूची में दर्ज नहीं किया जाएगा। हालांकि जैसा कि पर्यवेक्षक बताते हैं, यह एसआईआर का सारांश नहीं है (पीपुल्स रिप्रेजेंटेशन एक्ट, 1950 की धारा 21 चुनाव आयोग को यह निष्पादन करने के लिए बाध्य करती है) जो गलत है, लेकिन अपनाया गया तरीका और प्रक्रियाएं बड़े पैमाने पर समाज के अनपढ़, गरीब तथा अशिक्षित वर्गों व प्रवासी श्रमिकों का बड़ा हिस्सा, जिनके पास पंजीकरण के लिए ज्यादातर स्थायी पता नहीं है, उनके मन में संदेह के बादल छोड़ती है। यह चुनाव आयोग के इस दावे के विपरीत है कि उसने इस निर्णय पर पहुंचने में सभी विपक्षी दलों सहित भाजपा के साथ बड़े पैमाने पर विचार विमर्श किया है।
13 जुलाई को एक राष्ट्रीय समाचारपत्र के एक स्तंभकार ने कहा, 'चुनाव आयोग द्वारा मांगे गए दस्तावेजों की आवश्यकताएं न केवल उसकी अक्षमता को दर्शाती हैं बल्कि इससे कहीं अधिक परेशान करने वाली चीज है वह है गरीबों की अवमानना'। ग्रामीण बिहार में जहां लगभग 65.58 प्रतिशत लोग बेघर हैं वहां चुनाव आयोग नागरिकों से भूमि आवंटन प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने की उम्मीद करता है। जहां निरक्षरता व्याप्त है वहां वे स्कूल प्रमाणपत्र की मांग करते हैं। जहां गरीबी पलायन को मजबूर करती है उन लोगों से आयोग को 'स्थायी निवास प्रमाण' की आवश्यकता होती है'। और संभावित रूप से लाखों मतदाताओं के लिए इन अस्पष्ट दस्तावेजों को इक_ा करने के लिए दी गई समय सीमा एक महीने से भी कम है'। यहां तक कि अगर किसी चमत्कार से नागरिक नौकरशाही में खजाने की खोज का प्रबंधन करते हैं तो क्या चुनाव आयोग के पास उन सभी को सत्यापित करने के लिए जनशक्ति है?' चुनाव आयोग ने जवाब में कहा है कि उसने इस विशाल अभ्यास के लिए राजनीतिक दलों द्वारा नियुक्त 1 लाख से अधिक ब्लॉक स्तर के अधिकारियों, 4 लाख स्वयंसेवकों और 1.5 लाख से अधिक बूथ-स्तरीय एजेंटों को लगाया है और 80 फीसदी मतदाता पंजीकरण फॉर्म पहले ही एकत्र किए जा चुके हैं।
11 जुलाई को हुई सुनवाई में अदालत के लिए संक्षिप्त विवरण इस मुद्दे पर केंद्रित था कि इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए चुनाव आयोग की शक्ति (जो आरपी अधिनियम की धारा 21 द्वारा प्रदत्त है), जिस तरह से संशोधन अभ्यास आयोजित किया जाता है और उसका समय क्या है। बाद के दोनों आधारों में से दूसरे आधार के बारे में चुनाव आयोग के पास समझाने के लिए बहुत कुछ है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को 21 जुलाई तक जवाबी हलफनामा दायर करने के लिए कहा है। अंतिम सुनवाई 28 जुलाई को तय की गई है जो मतदाता सूची को अंतिम रूप देने से कुछ दिन पहले की तारीख है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता में गिरावट के मद्देनजर कार्यकर्ताओं और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा दायर कई जनहित याचिकाओं के साथ मतदाता (ईवीएम-वीवीपीएटी) में हेर-फेर एवं हाल में हुए राज्य चुनावों में डाले गए वोटों और प्राप्त वोटों के बीच महत्वपूर्ण विसंगति के संबंध में चुनाव आयोग ने जिस लचर तरीके से व्यवहार किया है, उसने और कई चिंताओं को जन्म दिया है। महाराष्ट्र के पिछले विधानसभा चुनावों में वोटिंग में धांधली के बारे में राहुल गांधी द्वारा लगाए आरोप हकीकत में नागरिकों के गुस्से व चिंता को संवैधानिक मानदंडों जैसे अनुच्छेद 326 के तहत सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के खुल्लमखुला उल्लंघन को व्यक्त करते हैं। इसके अलावा बिहार में एनआरसी का भूत पिछले दरवाजे से प्रवेश कर सकता है जिससे यह एक वास्तविक मताधिकार प्रक्रिया के बजाय मतदाता को मतदान से वंचित रखने के लिए एक तंत्र बन सकता है। एनआरसी को 11 दस्तावेजों में से एक के रूप में शामिल किया गया है। असम में इसका उपयोग 'विदेशियों' को वास्तविक नागरिकों से अलग करने के लिए किया गया है। एसआईआर को भविष्य में पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु से शुरू करके सभी राज्यों में लागू करने संबंधी गृह मंत्री अमित शाह की अशुभ घोषणा ने चुनाव प्रक्रियाओं के 'मानकीकरण' संबंधी सरकार के इरादे के बारे में संदेह बढ़ा दिया है।
इसे 'एक राष्ट्र एक चुनाव' के बड़े मुद्दे से जोड़ते हुए ठोस आकार दिया गया है। भाजपा के 2014 के चुनाव घोषणापत्र में पहली बार 'एक राष्ट्र एक चुनाव' का विचार पेश किया गया था और यह पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में पीएम की घोषणा में था जब उन्होंने कहा था कि 'मैं सभी से अनुरोध करता हूं कि समय की मांग है कि वे 'एक राष्ट्र एक चुनाव' के संकल्प को प्राप्त करने के लिए एक साथ आएं।' यह स्थिति गंभीर आत्मनिरीक्षण की मांग करती है। 'एक राष्ट्र एक चुनाव' के गुण और दोषों के अध्ययन के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 8 सदस्यीय उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया गया था। 'एक राष्ट्र एक चुनाव' के लिए संविधान के कई प्रावधानों (अनुच्छेद 83, 85,172,174, 356) में संशोधन की आवश्यकता होगी। समिति ने अब तक कई बैठकें की हैं जहां पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने 'एक राष्ट्र एक चुनाव' की स्वीकार्यता के बारे में अपने विचार रखे हैं। एडीआर के संस्थापक जगदीप छोकर ने अपने शोधपत्र, 'साइमलटेनियस इलेक्शन्स: स्ट्राकिंग एट द रूट्स ऑफ पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी' में तर्क दिया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के चुनावों का संयोजन त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इसके लिए संविधान में व्यापक संशोधन की आवश्यकता होगी तथा इससे केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्ति संतुलन बिगड़ जाएगा। कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने 'एक राष्ट्र एक चुनाव' के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। सरकार एक बार फिर बड़ा दांव खेल रही है। बिहार में एसआईआर की कवायद को फिर से शुरू करना, एक-दलीय शासन लाने के लिए एक जानबूझ कर सोची-समझी योजना है जो संविधान की नैतिकता के विपरीत है तथा देश भर में राजनीतिक संस्कृतियों की महत्वपूर्ण विविधताओं की अनदेखी करता है। लंबी अवधि में यह संवैधानिक लोकतंत्र की निरंतरता के लिए अच्छा नहीं है।
(लेखक सेवानिवृत्त राजनयिक हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


