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नरेंद्र मोदी सरकार और चुनाव आयोग में अद्भूत तालमेल

बिहार में एसआईआर की पूरी प्रक्रिया संशोधित मतदाता सूची से बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटाने के लिए तैयार है

नरेंद्र मोदी सरकार और चुनाव आयोग में अद्भूत तालमेल
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- डॉ. ज्ञान पाठक

बिहार में एसआईआर की पूरी प्रक्रिया संशोधित मतदाता सूची से बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटाने के लिए तैयार है, क्योंकि लाखों लोग चुनाव आयोग द्वारा मांगे जा रहे दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं करा पायेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की इस कड़ी चेतावनी के बावजूद कि किसी व्यक्ति की नागरिकता का निर्धारण चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।

कांसभी परिस्थितियां और बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) करने का तरीका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) के बीच अद्भुत तालमेल की ओर संकेत कर रहे हैं। भाजपा लंबे समय से दावा करती रही है कि बड़ी संख्या में अवैध प्रवासियों और मतदाताओं के दोहरे नाम मतदाता सूची में हैं और इसलिए इसे साफ़ करने की ज़रूरत है। दूसरी ओर, इंडिया गठबंधन ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर आरोप लगाया है कि उसकी सरकार ने राज्य में सत्ता हासिल करने के लिए मतदाता सूची से बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटवाने के इरादे से यह प्रक्रिया शुरू की है। एक तीसरी राय यह है कि ये अल्पकालिक लक्ष्य हैं और इस कवायद का असली मकसद बिहार में सत्ता हासिल करने से कहीं आगे बढ़कर पूरे देश को अपने दायरे में लेना है, और अंतत: देश के लिए एनआरसी का एक खाका तैयार करना है, जो भारत के लोगों के कड़े प्रतिरोध के कारण रुका हुआ है।

आइए एक-एक करके तीनों दावों की जांच करें। भारत के चुनाव आयोग ने कहा है कि अब तक एसआईआर प्रक्रिया के दौरान उन्हें मतदाता सूची में बड़ी संख्या में अवैध नेपाली और बांग्लादेशी प्रवासियों के नाम मिले हैं। आयोग ने इस बारे में विस्तृत जानकारी नहीं दी है, लेकिन यह संकेत देता है कि संशोधित मतदाता सूची से बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटा दिये जायेंगे।

अब आते हैं इंडिया ब्लॉक के इस दावे पर कि बड़ी संख्या में मतदाताओं, जिन्हें वे अपना मतदाता मानते हैं, के नाम हटाये जाने हैं। उनका डर इस तथ्य से उपजा है कि बिहार के बड़ी संख्या में वंचित गरीब लोगों के पास उन 11 दस्तावेजों में से कोई भी नहीं है जिन्हें चुनाव आयोग ने उनकी नागरिकता के प्रमाण के रूप में वैध दस्तावेज के रूप में सूचीबद्ध किया है। पिछले चुनावों के नतीजों ने साफ़ तौर पर दिखाया है कि ये लोग भाजपा या एनडीए को नहीं बल्कि इंडिया ब्लॉक के घटक दलों का समर्थन करते रहे हैं।

जब हम दोनों दावों को मिलाते हैं, तो हमें बिहार के लिए एक भयावह राजनीतिक परिदृश्य दिखायी देता है। आरएसएस-भाजपा गठबंधन की तज़र् पर वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में दिया गया कि हर विधानसभा क्षेत्र में 8,000-10,000 अवैध, दोहरी और फज़़ीर् प्रविष्टियां हैं, तथा 2000-3000 मतदाताओं की मामूली विसंगतियां भी चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकती हैं।

आश्चर्यजनक रूप से यह आंकड़ा महागठबंधन नेता तेजस्वी यादव के दावे से लगभग मेल खाता है। उन्होंने दावा किया है कि मतदाता सूची से सिर्फ एक प्रतिशत मतदाताओं के बाहर होने से भी बिहार भर में लगभग 7.9 लाख मतदाता मताधिकार से वंचित हो सकते हैं। राज्य में 2020 में हुए पिछले चुनाव में, '52सीटों पर जीत का अंतर सिर्फ 5000 वोटों से कम का था। अगर यही स्थिति रही, तो हर निर्वाचन क्षेत्र में लगभग 3,200 वोट कट सकते हैं।'

अश्विनी और तेजस्वी दोनों के आकलन बताते हैं कि प्रति निर्वाचन क्षेत्र 3000 वोटों का कटना भी राज्य के राजनीतिक नतीजों को प्रभावित कर सकता है। अगर विपक्ष का यह आरोप कि वोटरों के नाम हटाये जाने हैं, चाहे वे वैध हों या अवैध, दोनों ही, जिनके इंडिया ब्लॉक का समर्थन आधार होने का संदेह है, सच साबित होता है, तो यह भाजपा के पक्ष में पलड़ा भारी कर देगा।

मतदाता सूची को साफ़ करने के प्रयास में बिहार में संशोधित मतदाता सूची से बड़ी संख्या में प्रवासी बिहारियों के नाम हटाये जाने की संभावना है। इसके अतिरिक्त, चुनाव आयोग ने अभी तक सर्वोच्च न्यायालय के उस सुझाव को स्वीकार नहीं किया है जिसमें उसने आधार कार्ड, राशन कार्ड या मतदाता फोटो पहचान पत्र (ईपीआईसी) को नागरिकता के पर्याप्त प्रमाण के रूप में स्वीकार करने पर विचार करने को कहा था।

इस प्रकार, बिहार में एसआईआर की पूरी प्रक्रिया संशोधित मतदाता सूची से बड़ी संख्या में मतदाताओं के नाम हटाने के लिए तैयार है, क्योंकि लाखों लोग चुनाव आयोग द्वारा मांगे जा रहे दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं करा पायेंगे। सर्वोच्च न्यायालय की इस कड़ी चेतावनी के बावजूद कि किसी व्यक्ति की नागरिकता का निर्धारण चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है, यह संभावना वास्तविक प्रतीत होती है कि आयोग नागरिकता निर्धारण कर मतदाता सूची बनायेगी।

चुनाव आयोग ने दस्तावेज़ जमा करने के लिए 25 जुलाई तक की समयसीमा दी थी, और अब कहा है कि वे दावे और आपत्तियों के दौरान भी दस्तावेज़ जमा कर सकते हैं। 1 सितंबर तक विंडो खुली रहेगी। मतदाता सूची का मसौदा 1 अगस्त को और अंतिम मतदाता सूची 30 सितंबर को प्रकाशित की जायेगी।

यहां पूरे देश के लिए एनआरसी का एक खाका तैयार करने के प्रयास की तीसरी सबसे भयावह राय सामने आती है, क्योंकि चुनाव आयोग पहले ही घोषित कर चुका है कि बिहार के लिए एसआईआर (विशेष जांच रिपोर्ट) शुरुआत है और यह प्रक्रिया अन्य राज्यों के लिए भी की जायेगी। नवीनतम रिपोर्ट यह है कि चुनाव आयोग ने अवैध विदेशी आप्रवासियों को हटाने के लिए मतदाता सूची की राष्ट्रव्यापी एसआईआर (विशेष जांच रिपोर्ट) तैयार करने के लिए अपनी क्षेत्रीय मशीनरी को सक्रिय कर दिया है।

यदि असम के अनुभव से कोई संकेत मिलता है, तो सरकार देश के लिए एनआरसी बनाने की अपनी कवायद में संशोधित मतदाता सूची को एनआरसी के एक खाके के रूप में इस्तेमाल करेगी। हटाये गये मतदाताओं या डी मतदाताओं के नाम, फिर किसी व्यक्ति की नागरिकता निर्धारित करने का अधिकार रखने वाले प्राधिकारी, जैसे कि विदेशी न्यायाधिकरण, को भेजे जायेंगे।

असम के अनुभव से पता चलता है कि जो लोग सक्षम प्राधिकारियों के समक्ष अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पायेंगे, उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है और उनके संबंधित देशों में निर्वासन के लिए हिरासत केंद्रों में भेजा जा सकता है।

देश भर से पकड़े गये अवैध प्रवासियों को बंदूक की नोक पर बांग्लादेश वापस भेजने की हालिया रिपोर्ट, उन्हें किसी सक्षम प्राधिकारी के समक्ष अपनी नागरिकता साबित करने का पर्याप्त समय दिये बिना, एक और ख़तरा पैदा करती है।

संक्षेप में, बिहार राजनीतिक और सामाजिक हितों के टकराव के एक कठिन दौर की ओर बढ़ रहा है, जो अंतत: 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले पूरे देश को अपनी चपेट में ले लेगा, जब मोदी सरकार 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' लागू करने और मार्च 2027 तक पूरी होने वाली जनगणना के बाद निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करने का इरादा रखती है। भारतीय एक ऐसे सामाजिक-राजनीतिक भंवर की ओर बढ़ रहे हैं जिससे पार पाना आसान नहीं होगा।


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