दिल्ली विश्वविद्यालय में गोबर विमर्श
परंपरा और संस्कृति के नाम पर भरा जा रहा है, जो हर किस्म की चेतना से घबराते हैं, नए विचारों से दूर भागते हैं

- सर्वमित्रा सुरजन
परंपरा और संस्कृति के नाम पर भरा जा रहा है, जो हर किस्म की चेतना से घबराते हैं, नए विचारों से दूर भागते हैं। अभी हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज की प्राचार्या ने कमरे की दीवारों पर गोबर लीपा ताकि ठंडक बनी रहे। जबकि इस कॉलेज की छात्राओं की शौचालय, पुस्तकालय, स्वच्छ पेयजल, कैंटीन या अन्य बुनियादी सुविधाओं को लेकर जो मांगें हैं, उसके समाधान की कोशिशें नहीं की जा रही हैं।
ऐसा लग रहा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पूरी दुनिया को अपने कदमों में झुकाने की हसरत पाले दूसरी बार सत्ता में आए हैं। जिस लोकतंत्र पर अमेरिका की जनता को इतना अभिमान रहा है, उसकी धज्जियां उड़ाने में ट्रंप कोई कसर नहीं छोड़ रहे। पाकिस्तानी शायरा फहमीदा रियाज़ याद आती है-ं
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले,
अब तक कहां छुपे थे भाई।
वो मूरखता वो घामड़-पन,
जिस में हम ने सदी गंवाई।
आख़िर पहुंची द्वार तुहारे,
अरे बधाई बहुत बधाई।।
फहमीदा रियाज़ ने ये नज़्म भारत और पाक में लोगों की एक जैसी सोच पर लिखी थी, लेकिन फिलहाल अमेरिका से हर बात में तुलना करने को आतुर भारतीय ये सोचकर खुश हो सकते हैं, जो हाल हमारे यहां लोकतंत्र का हो रहा है, वही अमेरिका में नजर आ रहा है। हालांकि वहां हार्वर्ड विश्वविद्यालय जैसी मजबूती लोकतंत्र के भविष्य को भी मजबूत करने के संकेत देती है। भारतीय विश्वविद्यालय इस मामले में कमजोर साबित हो रहे हैं। उनकी प्रतिष्ठा राजनीति का औजार बन कर खत्म होती जा रही है और समाज इस मामले में लगभग बेज़ार दिख रहा है। बस लक्ष्मीबाई कॉलेज में प्राचार्य कक्ष में गोबर लीपने जैसी कुछ घटनाएं बता रही है कि अभी पोंगापंथ के आगे वैज्ञानिक नजरिए ने पूरी तरह से घुटने नहीं टेके हैं।
डोनाल्ड ट्रंप अपने कई फैसलों को लेकर विवादों में रहे और उनके पूर्ववर्ती जो बाइडेन ने कह भी दिया कि सौ दिनों में काफी विनाशकारी फैसले ट्रंप ने लिए हैं। नए टैरिफ को लेकर पूरी दुनिया से अदावत, रूस-यूक्रेन के बीच मध्यस्थता के नाम पर अपनी टांग अड़ाना, प्रवासी नागरिकों के लिए नियमों को कठिन करना, ऐसे कई फैसले ट्रंप ने लिए जिससे उनकी मजबूती साबित हो। ट्रंप ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय को भी अपने आगे झुकाने के लिए दांव चला और अपनी मांगों की एक सूची विश्वविद्यालय को भेजी, जिसमें कहा गया कि-
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अमेरिकी मूल्यों के मुख़ालफ़त करने वाले छात्रों की सूचना सरकार को दी जाए
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यह सुनिश्चित किया जाए कि हर शैक्षणिक विभाग का दृष्टिकोण विविधतापूर्ण हो
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यूनिवर्सिटी के विभागों का ऑडिट करने के लिए सरकारी मान्यता प्राप्त बाहरी कंपनी को नियुक्त किया जाए
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यहूदी विरोधी उत्पीड़न को सबसे अधिक बढ़ावा देने वाले विभागों की सूचना दी जाए
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पिछले दो वर्षों में परिसर में विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुए 'उल्लंघनों' के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए
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विश्वविद्यालय की 'विविधता, समानता और समावेशन' की नीतियों और कार्यक्रमों को ख़त्म किया जाए।
ट्रंप प्रशासन की इन मांगों को पूरा करने पर ही हार्वर्ड विश्वविद्यालय को संघीय अनुदान मिलना जारी रहता। लेकिन विश्वविद्यालय ने अपनी स्वतंत्रता या अपने संवैधानिक अधिकारों को नहीं छोड़ने का ऐलान करते हुए इन मांगों को मानने से इंकार कर दिया। हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने साफ कर दिया कि व्हाइट हाउस उस पर नियंत्रण की तैयारी कर रहा है, इसलिए वह इन मांगों को नहीं मानेगा। इस तनातनी का परिणाम ये निकला कि ट्रंप प्रशासन ने करीब 2 अरब अमेरिकी डॉलर का वित्तीय अनुदान रोक दिया है।
इतनी बड़ी रकम से वंचित रहने पर विवि के कामकाज और प्रबंधन पर तात्कालिक असर तो पड़ेगा, लेकिन कम से कम भविष्य के लिए न झुकने का रास्ता तैयार हो चुका है। इस फैसले ने साबित कर दिया है कि क्यों हार्वर्ड दुनिया के नामचीन विश्वविद्यालयों में शुमार होता है, और ये भी समझ आ रहा है कि क्यों ट्रंप को इससे दिक्कतें हो रही हैं। आखिर मोदीजी को भी तो इसी तरह जेएनयू, एएमयू जैसे शिक्षा संस्थानों से दिक्कतें हुईं। वैसे अपनी हीनभावना की ग्रंथि के इलाज के लिए श्री मोदी एक बार हार्वर्ड को भी निशाने पर ले चुके हैं। याद कीजिए किस तरह नोटबंदी के फैसले पर डॉॅ.मनमोहन सिंह ने इसके दुष्परिणामों का अनुमान लगाया था तो मोदी ने कहा था कि बड़े विद्वान, कुछ हार्वर्ड से, कुछ ऑक्सफोर्ड से...कुछ ने कहा कि जीडीपी में 2 प्रतिशत की गिरावट आएगी, अन्य ने कहा कि (नोटबंदी के बाद) 4 प्रतिशत की गिरावट आएगी...लेकिन देश ने देखा है कि हार्वर्ड के लोग क्या सोचते हैं और कड़ी मेहनत करने वाले लोग क्या सोचते हैं।'
वहीं इससे पहले 2014 में भी नरेन्द्र मोदी ने यूपीए सरकार की अर्थव्यवस्था को लेकर कहा था कि 'वित्त मंत्री हार्वर्ड से हैं। प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री हैं और उनके पास भी एक बडे विश्वविद्यालय की डिग्री है। मेरे पास हार्ड वर्क (कठोर परिश्रम) है। हार्वर्ड जाने का कोई मतलब नहीं है। जो मायने रखता है, वह कठोर परिश्रम है। जो साधारण से स्कूल में पढ़ा हो, चाय बेची हो और हार्वर्ड के दरवाजे तक न देखे हो, उस एक आदमी ने दिखा दिया कि अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए क्या करना चाहिए।'
इस किस्म के बड़बोलेपन का कोई इलाज नहीं है, हालांकि अब देश देख रहा है कि बेतुके शब्दाडंबर करने का नुकसान देश को हुआ और आज तक अर्थव्यवस्था डांवाडोल है। वैसे 2017 में जब नरेन्द्र मोदी ने हार्वर्ड पर टिप्पणी की थी तो उस वक्त हार्वर्ड के छात्र प्रतीक कंवल ने बाकायदा चिठ्ठी लिखकर कहा था कि 'भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को विकसित करने के लिए, आपको ऐसे लोगों की मदद की आवश्यकता होगी जो अलग दृष्टिकोण लेकर आएं। अर्थशास्त्रियों और विश्वसनीय शैक्षणिक संस्थानों का मज़ाक उड़ाना हमें दुनिया से अलग-थलग कर देगा।'
पता नहीं उस चिठ्ठी का मर्म नरेन्द्र मोदी ने समझा या नहीं, लेकिन 2017 से 2025 तक हमने देश के शैक्षणिक संस्थानों में सिलसिलेवार गिरावट ही देखी है। 2016 में जेएनयू प्रसंग को अब भी भाजपा विपक्ष को निशाने पर लेने के लिए इस्तेमाल करती है और टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे शब्द उसके शब्दकोष में स्थायी जगह बना चुके हैं। शैक्षणिक संस्थाओं में दकियानूसी, कट्टर और रुढ़िवादी सोच के शिक्षकों को परंपरा और संस्कृति के नाम पर भरा जा रहा है, जो हर किस्म की चेतना से घबराते हैं, नए विचारों से दूर भागते हैं। अभी हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज की प्राचार्या ने कमरे की दीवारों पर गोबर लीपा ताकि ठंडक बनी रहे।
जबकि इस कॉलेज की छात्राओं की शौचालय, पुस्तकालय, स्वच्छ पेयजल, कैंटीन या अन्य बुनियादी सुविधाओं को लेकर जो मांगें हैं, उसके समाधान की कोशिशें नहीं की जा रही हैं। कक्षा की दीवार पर गोबर लीप कर प्राचार्या महोदया ने निश्चित ही भाजपा के सामने अपने अंकों को बढ़ाने की कोशिश की, हालांकि दिल्ली विवि छात्रसंघ के अध्यक्ष रौनक खत्री ने इसका तुरंत ही सही प्रतिवाद किया। पहले रौनक खत्री ने ऐलान किया था कि वे भी अब गोबर लीपने प्राचार्या के कक्ष में आएंगे और वहां के एसी को छात्रों के लिए दे देंगे और अगले दिन रौनक खत्री बाकायदा गोबर लेकर पहुंच भी गए। उनके आने से पहले प्राचार्या महोदया तो कहीं चली गई, लेकिन अन्य शिक्षिका ने उन्हें रोकने की पूरी कोशिश की, मगर वे सफल नहीं हुईं। रौनक खत्री ने इस दौरान कॉलेज की छात्राओं से मिलकर उनकी समस्याओं को सुना भी।
छात्रसंघ अध्यक्ष का यह विरोध सामयिक और सटीक है, क्योंकि अगर मुंहजबानी प्राचार्या के कृत्य का विरोध किया जाता तो उसका असर नजर नहीं आता, अब कम से कम छात्रों को ऐसे मूढ़तापूर्ण कार्यों पर आवाज उठाने और बिना बेहूदगी के विरोध करने का हौसला मिलेगा। यह देखकर अच्छा लगा कि रौनक खत्री या उनके साथियों ने न शिक्षकों से दुर्व्यवहार किया, न किसी किस्म के उपद्रव का माहौल बनाया। अन्यथा छात्रों के विरोध अक्सर जोश-जोश में गलत रास्ते पर चले जाते हैं और फिर सत्ता को दखलंदाजी का और मौका मिलता है।
जेएनयू, बीएचयू, एएमयू, जादवपुर विवि, हैदराबाद विवि, आईआईटी, आईआईएम ऐसे तमाम प्रतिष्ठित भारतीय शिक्षा संस्थान ऐसी ही दखलंदाजियों का शिकार होकर बर्बादी के रास्ते पर हैं। नरेन्द्र मोदी नालंदा की पुनर्प्रतिष्ठा की बात करते हैं, लेकिन ऐसे कई संस्थान जिनमें नालंदा जैसी ऊंचाइयों पर पहुंचने की क्षमता थी, उन्हें पिछले 10 सालों में सड़ी-गली राजनीति में कैद किया गया है। अच्छा है कि डीयू में रौनक खत्री ने एक जरूरी हस्तक्षेप किया है। जो तसल्ली हार्वर्ड के न झुकने के ऐलान से हुई है, वही रौनक खत्री के प्राचार्या कक्ष में गोबर लीपने से हुई है।


