न्यायपालिका को सरकार की बांदी बनाने की मुहिम
इस समय केन्द्र सरकार के कुछ मंत्रियों और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट को जिस तरह गाली-गलौज की भाषा में धमकाया जा रहा है

- अनिल जैन
यह सही है कि संविधान में इस बात का जिक्र नहीं है कि विधानसभा में पारित किसी विधेयक को राज्यपाल को कितने समय के अंदर मंजूरी देनी है। इसका यह मतलब भी नहीं है कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयक को बिना मंजूरी दिए अपने पास रख सकते हैं। अगर कोई राज्यपाल ऐसा करता है तो जाहिर है कि वह अपनी सरकार को काम नहीं करने देना चाहता है।
इस समय केन्द्र सरकार के कुछ मंत्रियों और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट को जिस तरह गाली-गलौज की भाषा में धमकाया जा रहा है, उसे देखते हुए करीब चार दशक पुराना वाकया याद आ रहा है। उस समय राजीव गांधी की सरकार में एक मंत्री हुआ करते थे- बिहार के कमलाकांत तिवारी उर्फ के.के. तिवारी। वे अपने नाम के साथ 'प्रोफेसर' भी लिखते थे, जिससे ऐसा लगता था कि वे पढ़े-लिखे और शालीन व्यक्ति हैं, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं था। उनकी काबिलियत यह थी कि वे अव्वल दर्जे के चापलूस, बदतमीज, बदजुबान थे।
राजीव गांधी और उनकी सरकार के खिलाफ बोलने-लिखने वाले किसी भी विपक्षी नेता या किसी बड़े पत्रकार के खिलाफ़ गाली-गलौज करने और उसका रिश्ता सीआईए या केजीबी से जोड़ने में के.के. तिवारी बिलकुल देर नहीं लगाते थे। इस सिलसिले में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह तक को नहीं बख़्शा था। उन्होंने जैल सिंह के संबंध पंजाब के आतंकवादियों से जोड़ते हुए राष्ट्रपति भवन को साजिशों का अड्डा तक बता दिया था। हालांकि तिवारी को अपनी बदजुबानी की कीमत मंत्री पद से इस्तीफा देकर चुकानी पड़ी थी। उसके कुछ समय बाद हुए चुनाव में कांग्रेस भी सत्ता से बाहर हो गई थी। के.के. तिवारी का क्या हुआ, वे कहां हैं या नहीं हैं, किसी को नहीं मालूम।
बहरहाल नरेन्द्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के साथ टकराव के हालात बना रखे हैं। राजीव गांधी के पास तो एक ही के.के. तिवारी थे, लेकिन आज हम देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के पास के.के. तिवारीनुमा मंत्रियों और सांसदों की एक बड़ी फौज है जिसने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। हैरानी की बात यह है कि उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ इस फौज की अगुवाई करते दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले टकराव का मुद्दा बने हुए हैं। एक फैसले में राज्यपालों की मनमानी पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य विधानसभा में पारित विधेयक को राज्यपाल अनंतकाल तक बिना मंजूरी दिए अपने पास नहीं रख सकेंगे। अगर राज्यपाल किसी विधेयक को खुद मंजूरी न देते हुए उसे राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो राष्ट्रपति को भी उस पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा।
यह सही है कि संविधान में इस बात का जिक्र नहीं है कि विधानसभा में पारित किसी विधेयक को राज्यपाल को कितने समय के अंदर मंजूरी देनी है। इसका यह मतलब भी नहीं है कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयक को बिना मंजूरी दिए अपने पास रख सकते हैं। अगर कोई राज्यपाल ऐसा करता है तो जाहिर है कि वह अपनी सरकार को काम नहीं करने देना चाहता है। आजादी के बाद लंबे समय तक इस मामले मे सुधार की जरूरत महसूस नहीं हुई या सुप्रीम कोर्ट को दखल देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, तो उसका कारण यह था कि किसी भी राज्यपाल ने महीनों और सालों तक विधेयक लटका कर नहीं रखे। यह समस्या अभी हाल के वर्षों में ही पैदा हुई है।
हालांकि जिन राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं, वहां इस तरह की कोई समस्या नहीं है, परन्तु गैर भाजपा शासित लगभग सभी राज्यों में राज्यपालों ने अघोषित रूप से यह रवायत बना ली है कि वे सरकार को परेशान करने की नीयत से विधेयकों को लटकाए रखते हैं और कभी-कभी विधेयक को विवादास्पद बताकर उसे राष्ट्रपति के पास भेज देते हैं। राष्ट्रपति के पास भी वह विधेयक महीनों तक पड़ा रहता है। ऐसी ही समस्या का निदान करने के लिए ही तमिलनाडु सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा और विधेयकों की मंजूरी के लिए एक समय सीमा निश्चित करनी पड़ी।
यह फैसला आते ही उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और केंद्र सरकार के मंत्री बिफर पड़े और अमर्यादित भाषा में सुप्रीम कोर्ट को अपनी मर्यादा में रहने की नसीहत देने लगे। ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाराज लोगों को यह नहीं मालूम है कि सुप्रीम कोर्ट को यह दखल क्यों देना पड़ा। उपराष्ट्रपति धनखड़ तो संवैधानिक मामलों के जानकार बताए जाते हैं। जाहिर है कि उन्हें राज्यपालों की बदनीयती और मनमानी पर संवैधानिक अंकुश मंजूर नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट से सरकार के टकराव का दूसरा मामला तो और भी ज्यादा संगीन स्थिति में पहुंच गया है। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए वक्फ़ संशोधन के प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाकर सरकार से कुछ स्पष्टीकरण मांगे हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह अंतरिम आदेश आते ही भाजपा नेताओं की ओर से सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पर हमले शुरू हो गए हैं। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने कहा, 'भारत में चल रहे गृह युद्धों के लिए प्रधान न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना जिम्मेदार हैं।' इस सिलसिले में दुबे ने अपनी जहरीली जुबान से देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी को भी निशाना बनाया। वक्फ़ संशोधन कानून को लेकर कुरैशी की एक पोस्ट के जवाब में दुबे ने कहा कि 'आप मुख्य चुनाव आयुक्त नहीं, मुस्लिम आयुक्त थे।'
देश के प्रधान न्यायाधीश पर दुबे के आपत्तिजनक और खतरनाक बयान के बाद भाजपा के दूसरे कई सांसदों और नेताओं ने भी सुप्रीम कोर्ट को अपनी हदों में रहने की नसीहत दी। हालांकि भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने निशिकांत दुबे और अन्य नेताओं के बयान से पल्ला झाड़ते हुए कहा कि उनके बयानों से पार्टी सहमत नहीं है, ये उनके निजी बयान हैं। भाजपा अध्यक्ष ने यह भी कहा कि उनकी पार्टी न्यायपालिका के खिलाफ ऐसी बातों को नापसंद करती है। उनकी इस सफाई से समझा गया कि भाजपा ने इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। मगर इसके बाद भाजपा के अंदर से जैसी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, उनसे विवाद में नया पहलू जुड़ा है। दो प्रतिनिधि बयान खास तौर पर गौरतलब हैं: पश्चिम बंगाल की भाजपा नेता अग्निमित्रा पॉल ने निशिकांत दुबे की बातों को दोहराते हुए कहा कि- 'उन्होंने सही बात कही है।' भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव और मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने दुबे को 'सार्वजनिक रूप' से ऐसी बातें न बोलने की सलाह देते हुए कहा-'कभी-कभी सच बोलने से बचना पड़ता है।'
सत्ताधारी जमात के इकोसिस्टम के एक हिस्से ने तो सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ नड्डा को भी निशाने पर ले लिया। उनके खिलाफ अपमानजनक हैशटैग ट्रैंड कराया गया, जिसके तहत कुछ लोगों ने उनसे इस्तीफ़े की मांग भी की। इससे विपक्ष के इस आरोप को वजन मिला कि दुबे ने जो कहा, वह सत्ताधारी जमात की असल मंशा को जाहिर करता है और नड्डा की सफाई महज रस्म अदायगी है। वक्फ़ संशोधन विधेयक का पारित कराना, उस पर सुप्रीम कोर्ट की अंतरिम रोक को लेकर निशिकांत दुबे का बयान तथा राज्यपालों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर उपराष्ट्रपति धनखड़ सहित तमाम भाजपा नेताओं के बयान भाजपा एवं उसकी सरकार की एक सोची-समझी रणनीति के हिस्से हैं।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट को ऐसी नसीहतें देने और सरकार व संसद को उससे ऊपर बताने का सिलसिला बहुत पहले से जारी है। कानून मंत्री रहते हुए रविशंकर प्रसाद कई मौकों पर ऐसी नसीहत दे चुके हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने तो केरल के सबरीमाला मंदिर के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर 27 अक्टूबर 2018 को साफ शब्दों में कहा था- 'अदालतें किसी मामले में फैसला देते वक्त व्यावहारिक रुख अपनाएं और वैसे ही फैसले दें, जिन पर अमल किया जा सके।'
दरअसल संसद, चुनाव आयोग, जांच एजेंसियां और मीडिया को अपने अनुकूल बनाने के बाद अब न्यायपालिका ही ऐसी संस्था बची है जो पूरी तरह सरकार के काबू में नहीं आ पाई है। सो, उसे काबू में करने का अभियान छेड़ दिया गया है। सहयोगी दलों की बैसाखियों पर टिकी 240 लोकसभा सीटों वाली सरकार का यह दुस्साहस देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लोकसभा चुनाव में 400 सीटें क्यों चाहिए थीं और अगर वे मिल जातीं तो क्या होता!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


