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राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बना रही है बीजेपी

बीजेपी अचानक राहुल गांधी को लेकर इतनी आक्रामक क्यों हो गई है, इसके कई कारण हो सकते हैं. लेकिन अपना पूरा ध्यान एक व्यक्ति पर केंद्रित कर बीजेपी राहुल गांधी की ही मदद कर रही है.

राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बना रही है बीजेपी
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लगातार बहुमत के साथ दो लोक सभा चुनाव जीतने वाली बीजेपी के नेताओं में हाल तक कहीं भी सरकार बना लेने की काबिलियत का दंभ नजर आता था. पार्टी केंद्र में ही नहीं बल्कि हर राज्य में भी एक के बाद चुनाव जीतती जा रही थी.

कई राज्यों में तो पार्टी ने चुनाव हारने के बाद भी सरकार बना ली और चुनावी हार और जीत के बीच के अंतर को खत्म ही कर दिया. मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के घटनाक्रम इसके बड़े उदाहरण हैं.

लेकिन इन दिनों जिस तरह पार्टी के नेताओं, सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों ने अपनी पूरी ऊर्जा विपक्ष के सिर्फ एक नेता की आलोचना में झोंक दी है, उससे बीजेपी में असुरक्षा के संकेत मिल रहे हैं.

मौजूदा बीजेपी सरकार के तहत भारत में लोकतंत्र का हाल इस समय पूरी दुनिया में चर्चा का विषय है. दूसरे देशों की सरकारें इस पर भले कुछ ना कहती हों, लेकिन दुनिया भर के कई प्रतिष्ठित संस्थान लगातार भारत की तरफ देख रहे हैं.

लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल

पत्रकारों की स्वतंत्रता हो या एक्टिविस्टों द्वारा आलोचना करने की आजादी, बढ़ती सांप्रदायिकता हो या इंटरनेट पर अंकुश, जांच एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल हो या विपक्ष के नेताओं की गैर कानूनी जासूसी, आए दिन किसी न किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था की इन विषयों पर रिपोर्ट आती रहती है और हर रिपोर्ट में भारत पर सवालिया निशान होता है.

भारत के अंदर सरकार का अंधा समर्थन करने वाले मीडिया संस्थानों के मायाजाल के परे जो लोग देख पा रहे हैं उन्हें भी जो हो रहा है वो साफ नजर आ रहा है. ऐसे में विपक्ष के किसी नेता ने विदेश जा कर यही बातें दोहरा दीं तो क्या गलत किया?

बीजेपी के इस ताजा अभियान की शुरुआत में एक केंद्रीय मंत्री ने राहुल गांधी के इन बयानों की आलोचना करते हुए उन्हें "पप्पू" कहा था. और अब अचानक वही "पप्पू" बीजेपी के लिए इतना खतरनाक हो गया है कि पार्टी चाहती है उसे संसद से निकाल बाहर किया जाए.

दिलचस्प यह है कि संसद से तो राहुल गांधी को जनता ने ही लगभग निकाल बाहर कर दिया था. उनके नेतृत्व में लड़े गए लगातार दो लोक सभा चुनावों में देश की जनता ने उनकी पार्टी को नहीं चुना. और 2019 में तो राहुल गांधी खुद भी वो सीट हार बैठे थे जहां से ना सिर्फ उनकी मां, उनके पिता और उनके चाचा दशकों तक बल्कि वो खुद 15 सालों तक सांसद रहे.

विपक्षी एकता की पहेली

उस साल अगर उन्होंने केरल के वायनाड से भी चुनाव ना लड़ा होता तो वो लोक सभा से बाहर ही होते. जिस राहुल गांधी को जनता ने इस हाल में पहुंचा दिया था उन पर इस तरह का संगठित हमला करके बीजेपी उन्हीं की मदद कर रही है.

2024 का लोक सभा चुनाव सर पर है और इस बार अपने अस्तित्व की लड़ाई का सामना करने वाली भारत की अनेकों विपक्षी पार्टियों को एकजुटता रास नहीं आ रही है. पश्चिम बंगाल में उपचुनाव होता है तो कांग्रेस और लेफ्ट मिल कर तृणमूल कांग्रेस को हरा देते हैं.

फिर दिल्ली में जब कांग्रेस सभी पार्टियों का साझा कार्यक्रम आयोजित करती है वो उसमें तृणमूल कांग्रेस शामिल नहीं होती. आम आदमी पार्टी के बड़े नेता को जेल हो जाती है तो खुद भी एजेंसियों की गर्मी झेल रही कांग्रेस इसका विरोध नहीं करती.

ममता बनर्जी हों या नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल हों या चंद्रशेखर राव, विपक्ष में कई कई नेता है जो बीच बीच में विपक्ष का चेहरा बनने की दावेदारी सामने रखते रहते हैं. ऐसे में बीजेपी का इन सब को छोड़ कर राहुल गांधी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर से अभियान शुरू कर देना राहुल को विपक्ष में एक विशेष स्थान देने का काम कर रहा है.

राहुल की पदयात्रा की भूमिका

कई समीक्षकों का कहना है कि यह 'भारत जोड़ो यात्रा' का असर हो सकता है. उनका कहना है कि दक्षिण से उत्तर भारत तक 4000 किलोमीटर पैदल चल कर राहुल ने अपनी छवि काफी मजबूत कर ली है और यही बीजेपी की चिंता का कारण बन गया है.

कांग्रेस पार्टी घोषणा कर चुकी है कि राहुल जल्द ही पश्चिम से पूर्वी भारत तक भी ऐसी ही एक और पदयात्रा करेंगे. समीक्षकों का कहना है कि ऐसे में बीजेपी उनकी छवि बिगाड़ने में अपना पूरा जोर लगा रही है.

कांग्रेस और राहुल की चुनावी संभावनाओं को मजबूत करने का काम यात्रा ने किया है या नहीं इसका जवाब तो चुनावों में ही मिलेगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि राहुल पर इस तरह संगठित हमला कर के बीजेपी उनका और उनकी पार्टी का भाव जरूर बढ़ा रही है. अब वो ऐसा जान बूझ कर कर रही है या नहीं, यह तो बीजेपी ही जाने.

लेकिन इस पूरी कवायद की वजह से कांग्रेस विपक्ष की सबसे वजनदार पार्टी और राहुल विपक्ष के सबसे आक्रामक छवि वाले नेता बन कर उभर सकते हैं. विपक्षी एकता की पहेली की कुछ गांठें इस घटनाक्रम से सुलझ सकती हैं.


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