बिलकिस मामला: सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर सरकारें ध्यान दें
वर्ष 2002 में हुए गुजरात दंगों के दौरान मानवता को शर्मसार कर देने वाले बिलकिस बानो कांड के दो दशकों बाद भारत की शीर्ष कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियों से जहां एक ओर न्याय मिलने की किरण दिखाई दे रही है

वर्ष 2002 में हुए गुजरात दंगों के दौरान मानवता को शर्मसार कर देने वाले बिलकिस बानो कांड के दो दशकों बाद भारत की शीर्ष कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणियों से जहां एक ओर न्याय मिलने की किरण दिखाई दे रही है, वहीं प्रशासनिक व न्यायिक ताकतों का दुरुपयोग करने वाली व्यवस्था पर जो कहा गया है, उसकी गूंज लम्बे समय तक सुनाई पड़ेगी। इस वीभत्स घटना में तब की 21 वर्षीया बिलकिस के साथ गैंगरेप हुआ था। तब वह गर्भवती थी। परिवार की 2 अन्य महिलाओं के साथ भी दुष्कर्म हुआ था। इतना ही नहीं, परिवार के 7 सदस्यों को मार डाला गया था तथा 6 अन्य आज तक लापता हैं। दाहोद के रंधिकपुरा गांव की रहने वाली बिलकिस बानो और उसके परिवार के सदस्य दंगाइयों के हाथों में पड़ गये थे जब उपद्रव फैलने के बाद वे जान बचाने के लिए छिपते फिर रहे थे।
इस जघन्य कांड के 7 दोषियों को आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई थी। एक दोषी ने इस आधार पर रिहाई की याचिका लगाई थी कि उन्होंने सजा की अधिकतम अवधि (14 वर्ष) से अधिक का समय कारावास में काट लिया है। अत: उन्हें मुक्त किया जाये। पंचमहाल कलेक्टर की अगुवाई में एक कमेटी ने सभी को कैद-मुक्त करने की सिफारिश की थी जिसे पहले गुजरात सरकार और बाद में केन्द्र सरकार ने स्वीकार कर लिया था। इस आधार पर पिछले साल 15 अगस्त को उनकी रिहाई की घोषणा हुई थी। वैसे सजा के दौरान करीब 1000 दिन वे अलग-अलग अवधियों में पैरोल पर छूटते भी रहे थे।
जब उन्हें रिहा किया गया तो इस फैसले के खिलाफ नवम्बर के महीने में बिलकिस ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उनकी मांग है कि अपराध की गम्भीरता को देखते हुए दोषियों को फिर से जेल दाखिल किया जाये। इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस केएम जोसेफ एवं बीवी नागरत्ना ने जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें नज़ीर की तरह लिया जाना चाहिये। दोनों न्यायाधीशों ने जानना चाहा है कि दोषियों को किस आधार पर छोड़ा गया है। बचाव पक्ष के वकीलों की तमाम दलीलों को खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि किसी हत्या के साथ सामूहिक नरसंहार की तुलना वैसी ही है जैसी सेब के साथ संतरे की। यह एक समुदाय और समाज के खिलाफ किया गया जघन्य अपराध है। बेंच ने दोनों सरकारों को 1 मई तक अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत करने को कहा है। साथ ही स्पष्ट किया है कि कोर्ट इस मामले में 2 मई को अंतिम फैसला सुनाएगी।
फैसला जो भी हो, कोर्ट की टिप्पणियां बेहद महत्वपूर्ण हैं जो इस बात की ओर इशारा करती हैं कि गुजरात व केन्द्र की सरकार ने अपराध की गम्भीरता को ख्याल में रखे बिना ही एक समुदाय विशेष का पक्ष लिया है। यह किसी भी सरकार द्वारा की गई न्यायपूर्ण कार्रवाई नहीं कही जा सकती। इस रिहाई से कोर्ट की नाराजगी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा है-'दोषियों को क्यों छोड़ा? आज बिलकिस बानो हैं। कल आप और हम हो सकते हैं।' कोर्ट का गुस्सा इस बात से भी झलकता है जिसमें न्यायाधीशों ने कहा कि, 'शक्तियों का इस्तेमाल जनता की भलाई में करें। इनकी रिहाई से आप क्या संदेश दे रहे हैं।'
अगर पंक्तियों के बीच के लिखे को पढ़ें तो साफ है कि सुप्रीम कोर्ट की यह बेंच महसूस करती है कि यह निर्णय एकतरफा हुआ है और इसमें एक खास सम्प्रदाय के खिलाफ प्रशासन व कानून की मानसिकता दिखलाई पड़ती है। सामान्यत: आजीवन कारावास की अवधि 14 वर्षों की होती है। यह खत्म होने पर बंदी के कारावास के दौरान के व्यवहार और अपराध की गम्भीरता को ध्यान में रखते हुए ही उसे छोड़ने या ताउम्र जेल में ही रखने पर विचार किया जाता है। यह ऐसा जघन्य अपराध है कि राज्य का प्रश्रय प्राप्त न हो तो इसमें संलिप्त अपराधी को छोड़ना सम्भव ही नहीं होता। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री व वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की भूमिका भी हमेशा विवादित रही है।
देखना यह है कि 2 मई को याचिका पर होने वाली अंतिम सुनवाई में दोषियों को फिर से जेल दाखिल करने का आदेश दिया जाता है या नहीं? तथापि कोर्ट की टिप्पणियां व्यवस्था पर कई बड़े सवालिया निशान छोड़ जाती हैं। देखना यह भी है कि स्वयं गुजरात व केन्द्र की सरकार अपनी कार्यप्रणाली को सुधारने की कोई पहल करेगी या उसी ढर्रे पर चलती रहेगी जो ज्यादातर पक्षपातपूर्ण व दुर्भावनायुक्त होती है।


