उलटी दिशा में घूमता न्यायिक सक्रियता का पहिया
राहुल गांधी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह की अजीबो-गरीब टिप्पणियां कीं, उसी तरह की टिप्पणी कुछ रोज पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी की थी

- अनिल जैन
राहुल गांधी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह की अजीबो-गरीब टिप्पणियां कीं, उसी तरह की टिप्पणी कुछ रोज पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी की थी। उसने भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को देशप्रेम की भावना दिखाने की नसीहत दी थी। मामला यह था कि दोनों पार्टियां गज़ा में हो रहे मानव संहार के खिलाफ मुंबई में प्रदर्शन करना चाहती थीं। प्रशासन ने इजाजत नहीं दी तो दोनों पार्टियों ने हाई कोर्ट में गुहार लगाई।
देश में एक दौर था जब सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न राज्यों के हाई कोर्ट संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या के जरिए नागरिक अधिकारों का विस्तार करती थीं। पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों और एनकाउंटर के नाम पर पुलिस द्वारा किसी को भी मार दिए जाने और महानगरों व बड़े शहरों में सर्दी से ठिठुरकर होने वाली मौतों से संबंधित खबरों का स्वत: संज्ञान लेकर सरकार और अन्य संबंधित निकायों से जवाब तलब किया करती थीं और उन्हें उचित निर्देश देती थीं। देश की शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सरकारी सेवाओं को लेकर भी अदालतें जब-तब सरकारों के कान उमेठा करती थीं। उस दौर को 'न्यायिक सक्रियता का दौर' कहा जाता था। अदालतों की टिप्पणियां और आदेश मीडिया की सुर्खियां बटोरते थे। उस न्यायिक सक्रियता से जहां सरकारें कई बार असहज हो जाया करती थीं, वहीं आम लोगों में अदालतों की वाह-वाही होती थी। मगर अब स्थिति बदल गई लगती है, क्योंकि न्यायिक सोच और सक्रियता की दिशा पलट गई है। उसका पहिया उल्टी दिशा में घूम रहा है।
हालांकि न्यायिक सक्रियता के दौर में ऐसा नहीं था कि लोगों के साथ पुलिस का अमानुषिक व्यवहार बंद हो गया था या सरकारों की निष्ठुरता के चलते सर्दी, गर्मी और बारिश के प्रकोप से लोगों के मरने की घटनाएं बंद या कम हो गई थीं अथवा सरकारी स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से सुधर गई थी। फिर भी अदालतें लोगों की उम्मीदों का सहारा बनी हुई थीं। मगर अब अदालतों का रवैया लोगों की उम्मीदों को बेरहमी से कुचल रहा है, लोगों को डरा रहा है। अब तो लोगों का सरकार से सवाल पूछना भी अदालतों को रास नहीं आ रहा है।
हाल ही में कुछ मामले ऐसे हुए हैं जिनमें लोगों का या विपक्षी दलों का सरकार की जनविरोधी और देशविरोधी कारगुजारियों पर सवाल उठाने पर अदालतों ने न सिर्फ नाराजगी जताई है बल्कि उनकी देशभक्ति पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। ताजा बड़ा मामला कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी का है। तीन साल पहले राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान एक ट्वीट किया था कि चीन ने भारत की 2000 वर्ग मीटर जमीन पर कब्जा कर लिया है, चीनी सेना के साथ झड़प में 20 भारतीय सैनिक मारे गए हैं और अरुणाचल प्रदेश में हमारे सैनिकों को पीटा जा रहा है। उनके इस बयान पर लखनऊ की एक अदालत में आपराधिक मानहानि का मुकदमा चल रहा था जो हाई कोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है।
सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई कर रही दो सदस्यीय पीठ ने हालांकि राहुल के बयान को लेकर दायर मुकदमे पर तो स्टे लगाते हुए साफ कर दिया कि इस बयान पर आपराधिक मामला नहीं बनता है, लेकिन इसी के साथ पीठ ने राहुल पर सवालिया अंदाज में कुछ ऐसी टिप्पणियां की हैं जो भारतीय जनता पार्टी और उसका इकोसिस्टम लंबे समय से मीडिया और सोशल मीडिया में राहुल पर करता आ रहा है। पीठ की अगुवाई कर रहे जस्टिस दीपांकर दत्ता ने कहा कि 'राहुल गांधी ने जो बयान दिया, वैसी बात कोई 'सच्चा भारतीय' नहीं कहेगा।' उन्होंने यह भी पूछा कि राहुल गांधी ऐसी बातें सोशल मीडिया पर क्यों कहते हैं? उन्हें बोलना ही है, तो संसद में बोलें।
सवाल है कि राहुल गांधी ने बोला क्या था! दरअसल उन्होंने वही कहा था, जो देशी और विदेशी मीडिया की अनगिनत रिपोर्टों में आ चुका है। इन रिपोर्टों में कहा गया है कि भारत की सेना गश्त की पुरानी जगह से पीछे हटी है और गश्त का जो इलाका होता था वह बफर ज़ोन बन गया है। देश के जाने-माने सामरिक विशेषज्ञों ने भी चीन के भारतीय सीमा में घुसने की बात कही थी। राष्ट्रपति के मनोनीत कोटे से राज्यसभा के सदस्य रहे नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे भाजपा नेता तो कई बार कह चुके हैं कि चीन ने भारत की जमीन कब्जा कर हड़प ली है। यहां तक कि पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन में पेश लद्दाख पुलिस की रिपोर्ट में भी इस बात का ज़िक्र हो चुका है। लद्दाख के सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक लगातार कह रहे हैं कि चीन भारतीय सीमा में घुसपैठ कर रहा है। उधर अरुणाचल प्रदेश से भाजपा के ही सांसद तापिर गावो तो एक से ज्यादा बार संसद में और संसद के बाहर कह चुके हैं कि भारतीय सीमा में चीन ने अपने ठिकाने बना लिए हैं। इसके लिए इन सभी के द्वारा भारतीय सेना को नहीं बल्कि राजनीतिक नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसलिए राहुल गांधी के बयान में ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी वजह से उनकी देशभक्ति या उनकी सच्ची भारतीयता पर सवाल उठाया जाए।
जस्टिस दत्ता ने एक और हास्यास्पद सवाल यह किया कि, 'राहुल गांधी को यह कैसे मालूम हुआ कि चीन ने भारत की जमीन पर कब्जा कर लिया है, क्या वे वहां होकर आए हैं?' यह सवाल अगर भाजपा का कोई प्रवक्ता या टीवी चैनल का कोई एंकर या ट्रोल आर्मी पूछे, जो कि वे पूछते ही हैं, तो उसकी उपेक्षा की जा सकती है लेकिन शीर्ष अदालत के जज की ओर से ऐसा सवाल उठना न सिर्फ हैरानी पैदा करता है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की साख और सर्वोच्च अदालत की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े करता है। सब जानते हैं कि यह सेटेलाइट का युग है जिसमें दुनिया का चप्पा-चप्पा सेटेलाइट्स के दायरे में है। इसलिए सीमा का हाल जानने के लिए सीमा पर जाने की जरूरत नहीं है। सेेटेलाइट तस्वीरों के जरिये भी बता दिया गया है कि चीन ने भारत की सीमा के अंदर कहां तक अपने सैनिक ठिकाने बनाए हैं।
सवाल यह भी है कि अगर नेता प्रतिपक्ष का यह कहना कि चीन ने भारत की दो हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़प ली है, सेना का अपमान है, तो सेना का ऐसा अपमान तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद और उनकी पार्टी के तमाम नेता दशकों से करते आ रहे हैं, यह कह कर कि '1962 के युद्ध में चीन ने भारत की जमीन हड़प ली थी।' दरअसल मोदी और उनकी पार्टी के निशाने पर सेना नहीं बल्कि उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रहते हैं और राहुल गांधी के निशाने पर देश का राजनीतिक नेतृत्व यानी मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राहुल को ऐसी बातें संसद में ही करनी चाहिए। इस पर पहला सवाल तो यही उठता है कि जो बात संसद में कही जा सकती है, वह संसद के बाहर क्यों नहीं? क्या संसद की कार्यवाही गोपनीय होती है? संसद की कार्यवाही का तो सीधा प्रसारण होता है, जिसे देश के कई लोग देखते हैं। सवाल यह भी है कि अगर संसद के बाहर कही गई कोई बात देशहित में नहीं है या सेना के लिए अपमानजनक है, तो वही बात संसद में कहने से उसका अर्थ कैसे बदल जाएगा? सवाल यह भी है कि क्या भारत की संसद पूरे साल चलती है जो हर घटना के बाद नेता प्रतिपक्ष संसद में पहुंचेंगे और अपनी बात कहेंगे? अदालत के संज्ञान में होगा; और नहीं है तो होना चाहिए कि देश के महत्वपूर्ण सवालों पर सरकार संसद का सामना करने से कतराती है।
राहुल गांधी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह की अजीबो-गरीब टिप्पणियां कीं, उसी तरह की टिप्पणी कुछ रोज पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी की थी। उसने भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को देशप्रेम की भावना दिखाने की नसीहत दी थी। मामला यह था कि दोनों पार्टियां गज़ा में हो रहे मानव संहार के खिलाफ मुंबई में प्रदर्शन करना चाहती थीं। प्रशासन ने इजाजत नहीं दी तो दोनों पार्टियों ने हाई कोर्ट में गुहार लगाई, जहां उन्हें यह सुनने को मिला कि 'हमारे देश में ही बहुत समस्याएं हैं, तो आप विदेशी मामलों को लेकर क्यों परेशान होते हैं।' हाई कोर्ट ने दोनों पार्टियों को कोई राहत नहीं दी और प्रशासन के फैसले को सही ठहराते हुए उनकी याचिका खारिज कर दी।
कहने की आवश्यकता नहीं कि अदालतों का यह रवैया न्यायपालिका के प्रति लोगों में जो आस्था और सम्मान है, उसे कम करता है। सुप्रीम कोर्ट ने 26 नवंबर, 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले को पलटते हुए फैसला देने वाले जजों पर काफी तल्ख टिप्पणी की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, 'शेक्सपियर ने अपने मशहूर नाटक 'हेमलेट' में कहा है कि डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ा हुआ है। हम यही बात इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में बारे में भी कह सकते हैं।' सर्वोच्च अदालत की यह टिप्पणी क्या आज समूची न्यायपालिका पर लागू होती प्रतीत नहीं हो रही है?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


