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नहीं बदला साल में औसतन दो-तीन पत्रकारों की हत्या का तथ्य

पत्रकारिता को लेकर एक घुटन भरी स्थिति बनती जा रही है। एक तरफ सरकार की चाटुकारिता करने वाले पत्रकार हैं

नहीं बदला साल में औसतन दो-तीन पत्रकारों की हत्या का तथ्य
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  • सर्वमित्रा सुरजन

पत्रकारिता को लेकर एक घुटन भरी स्थिति बनती जा रही है। एक तरफ सरकार की चाटुकारिता करने वाले पत्रकार हैं, और दूसरी तरफ जान हथेली पर लेकर चलने वाले पत्रकार हैं और साथ ही देश में ऐसे पत्रकार भी हैं, जिनकी आवाज़ कानून के फंदे में लेकर दबाने की कोशिशें चल रही हैं। कई ऐसे पत्रकार हुए, जिन्होंने किसी औद्योगिक समूह की सरकार से नजदीकियों पर रिपोर्टिंग की, तो उसे अपराध बता दिया गया।

उत्तराखंड में स्वतंत्र पत्रकार राजीव प्रताप की 10 दिन की गुमशुदगी के बाद संदिग्ध हालात में मौत ने देश में पत्रकारों और पत्रकारिता की स्थिति को लेकर चिंताएं बढ़ा दी हैं। इस साल की शुरुआत में छत्तीसगढ़ के बस्तर में ऐसे ही पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या की गई थी। पैटर्न बिल्कुल वही है, पहले पत्रकार को गायब करो और फिर उसकी हत्या कर दो। जब मुकेश चंद्राकर की हत्या का मामला सामने आया था, तब भी मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर सवाल उठे थे और अब राजीव प्रताप की हत्या के बाद भी वही सवाल उठ रहे हैं। यह उम्मीद तो बिल्कुल नहीं की जा सकती कि अब आखिरी बार ऐसे सवाल उठेंगे, उसके बाद कभी इसकी नौबत नहीं आएगी। बल्कि अब तो हालात ऐसे बन चुके हैं कि मीडिया में भी स्पष्ट बंटवारा हो गया है। एक तरफ नज़र आते हैं देश के सेलिब्रिटी पत्रकार। पहले जैसे फिल्मी सितारे, खेल सितारे हुआ करते थे, अब पत्रकार सितारे हो गए हैं। भाषायी लिहाज से इन्हें पत्रकार कहना भी सही नहीं होगा, क्योंकि ये लिखते नहीं, बोलते हैं। इनकी कॉलर पर माइक लगा रहता है और चेहरा कैमरे के सामने होता है। जहां ये सरकार की तरफ से तैयार स्क्रिप्ट पर कार्यक्रम करते हैं, साक्षात्कार करते हैं, नैरेटिव तैयार करते हैं। इसके बदले इन्हें करोड़ों का घोषित वेतन, अघोषित इनाम मिलता है। अपने चैनलों के अलावा सोशल मीडिया पर भी ये सरकार के लिए एकतरफा माहौल बनाने का काम करते हैं।

सेलिब्रिटी पत्रकारों की खबरों में महंगाई, बेरोजगारी का जिक्र दूर-दूर तक नहीं रहता। शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, जनाधिकार आदि पर सरकार की जिम्मेदारी को लेकर ये सेलिब्रिटी एंकर एक लफ्ज़ नहीं बोलते। विपक्षी दलों को घेरने में अगर भाजपा की ट्रोल आर्मी कम पड़ जाए या कहीं कोई कसर रह जाए, तो फिर इन्हें काम पर लगा दिया जाता है। भारत-पाक मैच, जीएसटी रिफार्म, ऑपरेशन सिंदूर, आरएसएस के सौ साल ऐसी तमाम हालिया घटनाओं पर सेलिब्रिटी एंकरों की बात सुनें तो इनमें और भाजपा प्रवक्ताओं में फर्क करना मुश्किल हो जाएगा। इन पत्रकारों के पास बड़ी कोठियां हैं, देश-विदेश में सातसितारा सुविधाओं के साथ इनका घूमना होता है, इनके निजी, पारिवारिक कार्यक्रमों में भाजपा के मंत्री, नेता पधारते हैं। दूसरी तरफ हैं ऐसे पत्रकार जिनका ये मानना है कि सरकार की तरफ से आई विज्ञप्तियों और पटकथाओं से अलग एक भारत है, जिसमें जीते-जागते इंसान रहते हैं, उनकी रोजमर्रा की असली समस्याएं हैं, जिन पर बात होनी चाहिए। अगर कोई घोटाला हुआ है, या उसका शक है तो उसकी खबर बननी चाहिए, ताकि उस पर जांच-पड़ताल हो। व्यवस्था सुधारने का यह भी एक तरीका है कि आप लोकतंत्र का चौथा स्तंभ न बनकर ऐसी जगह खड़े हों, जहां आप निष्पक्षता के साथ चीजों को देखें, परखें और फिर लिखें या उस पर कार्यक्रम बनाएं। देश का लोकतंत्र ऐसी ही पत्रकारिता से मजबूत होगा।

छत्तीसगढ़ में मुकेश चंद्राकर ने अपनी रिपोर्ट में बस्तर में 120 करोड़ रुपये की सड़क निर्माण परियोजना में कथित अनियमितताओं को उजागर किया था। इसमें एक ठेकेदार पर उन्होंने सवाल उठाए थे, बाद में उसी ठेकेदार के घर के बाहर बने सेप्टिक टैंक में उनकी लाश मिली थी। उत्तराखंड में राजीव प्रताप ने एक जिला अस्पताल की बदहाली पर रिपोर्ट बनाई थी। उनकी पत्नी के मुताबिक इस रिपोर्ट को हटाने के लिए उन्हें धमकियां मिल रही थीं, जिससे वो परेशान भी थे। 18 सितंबर की रात को वे घर से निकले तो फिर लौटे ही नहीं और सीधे 10 दिन बाद एक बैराज में उनकी लाश मिली। जिस कार में वे निकले थे, उसमें केवल उनकी चप्पलें थीं। घर वालों को आशंका है कि उनकी हत्या की गई है, क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में अंदरूनी चोटें हैं, लेकिन उनके शव पर चोट के निशान नहीं थे। पुलिस ने पहले तो इसमें किसी साजिश की बात नहीं मानी, मगर अब नए सिरे से जांच के आदेश दिए गए हैं। उत्तरकाशी के पुलिस उप अधीक्षक की अध्यक्षता में एक टीम गठित की गई है, जो मामले से जुड़े सभी पहलुओं की जांच करते हुए जल्द से जल्द रिपोर्ट सौंपेगी।

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने इस घटना पर लिखा है कि उत्तराखंड के युवा पत्रकार राजीव प्रताप जी का लापता होना और फिर मृत पाया जाना सिफ़र् दुखद नहीं, भयावह है। बीजेपी राज में आज ईमानदार पत्रकारिता भय और असुरक्षा के साये में जी रही है। जो सच लिखते हैं, जनता के लिए आवाज़ उठाते हैं, सत्ता से सवाल पूछते हैं - उन्हें धमकियों और हिंसा से चुप कराने की कोशिश की जा रही है। राजीव जी के साथ हुआ पूरा घटनाक्रम ऐसे ही षड़यंत्र की ओर इशारा करता है। राजीव जी की मृत्यु की अविलंब निष्पक्ष और पारदर्शी जांच होनी चाहिए और पीड़ित परिवार को बिना देरी न्याय मिलना चाहिए।

माना जा रहा है कि राहुल गांधी की इस मांग पर ही अब पुष्कर धामी सरकार ने नए सिरे से जांच का फैसला लिया है। लेकिन इस जांच के बाद भी पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। पत्रकारिता को लेकर एक घुटन भरी स्थिति बनती जा रही है। एक तरफ सरकार की चाटुकारिता करने वाले पत्रकार हैं, और दूसरी तरफ जान हथेली पर लेकर चलने वाले पत्रकार हैं और साथ ही देश में ऐसे पत्रकार भी हैं, जिनकी आवाज़ कानून के फंदे में लेकर दबाने की कोशिशें चल रही हैं। कई ऐसे पत्रकार हुए, जिन्होंने किसी औद्योगिक समूह की सरकार से नजदीकियों पर रिपोर्टिंग की, तो उसे अपराध बता दिया गया। यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर पत्रकारों ने मुख्यधारा के मीडिया से हटकर रिपोर्टिंग शुरु की, तो उसमें भी बहुत से पत्रकारों पर सरकार का चाबुक चला। अगर इससे भी काम नहीं बना तो विदेश से वित्तीय सहायता, धनशोधन आदि के मामले बनाकर प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई या इनकम टैक्स को आगे किया गया। कई ऐसे मामले भी सामने आए जिनमें स्थानीय पत्रकारों को सवाल पूछने पर भाजपा नेताओं ने डांटा कि हम तुम्हारे मालिक से शिकायत करेंगे। धमकी के तरह-तरह के रूप स्वतंत्र पत्रकारिता को कुचलने के लिए आजमाए जा रहे हैं। इसी वजह से विश्व में प्रेस स्वतंत्रता में भारत का स्थान काफी पीछे है।

2025 के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों की सूची में भारत 151वें स्थान पर रहा है, 2024 में मिले 159वें स्थान की तुलना में 8 पायदान भारत ऊपर चढ़ा, लेकिन उसका कोई असर धरातल पर दिखाई नहीं दे रहा। बता दें कि वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्था आरएसएफ-रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा तैयार की जाती है। 2025 की रिपोर्ट में भारत की स्थिति पर की गई टिप्पणी में लिखा है, '2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत की मीडिया एक 'अनौपचारिक आपातकाल' की स्थिति में आ गई है। मोदी ने अपनी पार्टी भाजपा और मीडिया पर राज करने वाले बड़े परिवारों के बीच एक उल्लेखनीय निकटता बना ली है। रिलायंस इंडस्ट्रीज़ समूह के मालिक मुकेश अंबानी, जो प्रधानमंत्री के करीबी दोस्त हैं, 70 से अधिक मीडिया संस्थानों के मालिक हैं, जिन्हें कम से कम 80 करोड़ भारतीय देखते हैं। वहीं 2022 के अंत में गौतम अडानी द्वारा एनडीटीवी का अधिग्रहण मुख्यधारा की मीडिया में विविधता के अंत का संकेत था। अडानी भी मोदी के करीबी माने जाते हैं।' रिपोर्ट में आगे लिखा है, 'हाल के वर्षों में वे मीडिया संस्थान प्रमुखता से उभरे हैं, जो ख़बर में भाजपा समर्थक प्रचार मिलाकर दिखाते हैं। दबाव और प्रभाव के जरिए भारत में एक विविधतापूर्ण प्रेस मॉडल को चुनौती दी जा रही है। प्रधानमंत्री प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं करते, केवल उन पत्रकारों को इंटरव्यू देते हैं जो उनके अनुकूल हों, और जो आलोचक हों, उन्हें लेकर वे काफी आलोचनात्मक रुख अपनाते हैं। जो पत्रकार सरकार की तीखी आलोचना करते हैं, उन्हें भाजपा समर्थित ट्रोल्स द्वारा सोशल मीडिया ट्रोलिंग का सामना करना पड़ता है।' रिपोर्ट में पत्रकारों की सुरक्षा पर कहा गया है कि , 'हर साल औसतन दो से तीन पत्रकार अपने काम की वजह से मारे जाते हैं, जिससे भारत दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में शामिल हो गया है जहां मीडिया के लिए काम करना बेहद जोखिम भरा है।' 'जो पत्रकार सरकार की आलोचना करते हैं, उन्हें नियमित रूप से ऑनलाइन उत्पीड़न, धमकियों, शारीरिक हमलों, आपराधिक मुकदमों और मनमाने ढंग से गिरफ्तारी का सामना करना पड़ता है।'

भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहकर उस पर गर्व करने वाले प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के लिए यह कड़वी टिप्पणी ऐसा आईना थी, जिसमें सच्चाई देखकर हालात सुधारने की पहल की जा सकती थी। लेकिन अफसोस कि साल में औसतन दो-तीन पत्रकारों के मारे जाने का तथ्य नहीं बदल पाया।


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