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भयावह संकट खड़ा कर चुका है केन्द्रीय चुनाव आयोग

पिछले सात-आठ सालों के दौरान वैसे तो देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं की साख और विश्वसनीयता पर बट्टा लग चुका है

भयावह संकट खड़ा कर चुका है केन्द्रीय चुनाव आयोग
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- अनिल जैन

राहुल ने अपने आरोपों के साथ सबूत के तौर पर महज एक विधानसभा क्षेत्र से संबंधित हजारों पन्नों के दस्तावेज भी पेश किए थे, जिनका विश्लेषण करने में उनकी टीम को छह महीने का समय लगा था, लेकिन अनुराग ठाकुर ने महज 7 दिन में ही पांच लोकसभा और एक विधानसभा क्षेत्र के बारे में बता दिया कि वहां की मतदाता सूचियों में लाखों लोग फर्जी और संदिग्ध हैं।

पिछले सात-आठ सालों के दौरान वैसे तो देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं की साख और विश्वसनीयता पर बट्टा लग चुका है, लेकिन चुनाव आयोग की साख तो सिरे से ही चौपट हो गई है। हैरानी की बात यह है कि अपने काम-काज और फैसलों पर लगातार उठते सवालों के बावजूद चुनाव आयोग ऐसा कुछ करता हुआ नहीं दिखता, जिससे लगे कि वह अपनी मटियामेट हो चुकी साख को लेकर जरा भी चिंतित है। उसकी कार्यशैली पर उठने वाले सवालों पर जिस तरह सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के नेता उसका बचाव करते हैं, उसे देखते हुए कोई उसे 'चुनाव मंत्रालय' कहता है, तो कोई सत्ताधारी पार्टी के गठबंधन का सदस्य। सोशल मीडिया में तो उसे 'केंचुआ' तक कहा जाने लगा है। हकीकत यह है कि जो भी नया मुख्य चुनाव आयुक्त आता है, वह अपने पूर्ववर्ती की तुलना में खुद को सरकार का बड़ा खिदमतगार साबित करने में जुट जाता है और ऐसा करने में वह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को भी नजरअंदाज करने में कोई संकोच नहीं करता है।

चूंकि चुनाव आयोग अपने मान-अपमान की चिंता से मुक्त है और उसके पास अपनी कारगुजारियों के पक्ष में तार्किक दलीलें भी नहीं होतीं, लिहाजा वह अपनी आलोचना का जवाब देने के लिए सामने आने से अमूमन बचता है। अलबत्ता उसकी ओर से खुद प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के नेता जरूर जवाब देते हैं। वे चुनाव आयोग को नेकचलनी का प्रमाणपत्र देते हुए कहते हैं कि विपक्षी दल चुनाव आयोग का अपमान कर रहे हैं।

इस समय भी यही हो रहा है। चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता के सवाल पर चुनाव आयोग और विपक्षी दलों के बीच जंग छिड़ी हुई है। उनकी इस जंग का अभी तक का चरम बीते रविवार को दिखा, जब बिहार में विपक्षी दलों के महागठबंधन ने चुनाव आयोग को निशाने पर रखते हुए 'वोटर अधिकार यात्रा' शुरू की और दूसरी ओर नई दिल्ली में वह चुनाव आयोग भी प्रेस कांफ्रेंस के जरिये मैदान में आ गया, जिसकी ओर से अभी तक सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं ने मोर्चा संभाल रखा था; या जो अपनी बात को किन्हीं सूत्रों के हवाले से मीडिया में प्रचारित करवा रहा था।

विपक्षी दलों का आरोप है कि चुनाव आयोग केंद्र सरकार के इशारे पर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में काम कर रहा है। इस सिलसिले में बिहार में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अचानक शुरू किया गया मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) तो मुद्दा है ही, इसी के साथ लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी द्वारा पिछले दिनों एक प्रेस कांफ्रेंस में पेश किए गए कई सबूत भी हैं, जो चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं। राहुल गांधी ने इसमें बताया था कि बेंगलूर सेंट्रल लोकसभा सीट के तहत आने वाले महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र में एक लाख दो सौ पचास फर्जी मतदाताओं के जरिये किस तरह चुनाव को भाजपा के पक्ष में प्रभावित किया गया था।

राहुल गांधी ने यह आरोप 7 अगस्त को लगाए थे। उसके ठीक एक हफ्ते बाद 14 अगस्त को भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने भी एक प्रेस कांफ्रेंस के जरिये हूबहू वैसे ही आरोप राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव, डिंपल यादव, तृणमूल कांग्रेस के नेता अभिषेक बनर्जी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन पर लगाए। उन्होंने कहा कि इन नेताओं ने अपने-अपने चुनाव क्षेत्र में लाखों की संख्या में फर्जी और संदिग्ध वोटरों के नाम मतदाता सूची में शामिल करवा कर चुनाव जीता है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि जिन संदिग्ध लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल कराए गए वे ज्यादातर विदेशी घुसपैठिये हैं।

राहुल ने अपने आरोपों के साथ सबूत के तौर पर महज एक विधानसभा क्षेत्र से संबंधित हजारों पन्नों के दस्तावेज भी पेश किए थे, जिनका विश्लेषण करने में उनकी टीम को छह महीने का समय लगा था, लेकिन अनुराग ठाकुर ने महज 7 दिन में ही पांच लोकसभा और एक विधानसभा क्षेत्र के बारे में बता दिया कि वहां की मतदाता सूचियों में लाखों लोग फर्जी और संदिग्ध हैं। हालांकि अपने आरोपों के समर्थन में उन्होंने कोई दस्तावेजी सबूत पेश नहीं किए। फिर भी उनके आरोपों से राहुल के इस आरोप की ही पुष्टि हुई कि चुनाव प्रक्रिया में और चुनाव आयोग के कामकाज में भारी गड़बड़ है।

बहरहाल मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार मीडिया के सामने जब पेश हुए तो लगा था कि वे इन सारे आरोपों पर कोई संतोषजनक सफाई पेश करेंगे, जिससे आयोग की साख पर मंडरा रहे संदेह के बादल छंटेंगे, परन्तु मुख्य चुनाव आयुक्त पेश हुए पूरी तरह से एक राजनेता की तरह। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की तरह धमकी भरे अंदाज में कहा, 'राहुल गांधी झूठे आरोप लगाकर सौ करोड़ मतदाताओं का अपमान कर रहे हैं। उन्हें सात दिन के अंदर अपने आरोपों के समर्थन में आयोग के समक्ष हलफनामा देना होगा अन्यथा, देश से माफी मांगना होगी। इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।'

सवाल यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त ने राहुल गांधी को हलफनामा देने या माफी मांगने के लिए तो कह दिया लेकिन यही बात उन्होंने अनुराग ठाकुर के लिए क्यों नहीं कही? कहीं ऐसा तो नहीं कि अनुराग ठाकुर से चुनाव आयोग खुद माफी मांगेगा? राहुल ने मतदाता सूचियों में व्यापक पैमाने पर गड़बड़ी और हेरा-फेरी के जो आरोप लगाए हैं, वैसे ही आरोप कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी भी लगा चुके हैं। उनका भी कहना रहा है कि उनके लोकसभा क्षेत्र में करीब तीन लाख लोगों के नाम मतदाता सूची से गायब कर दिए गए हैं। ऐसा ही आरोप मध्य प्रदेश के रीवा से भारतीय जनता पार्टी के सांसद जनार्दन मिश्रा ने भी हाल ही में लगाया है। यानी राहुल के आरोप से औपचारिक तौर पर भाजपा भले ही सहमत न हो लेकिन उसके सांसद तो सहमत हैं ही और वे भी चुनाव आयोग की कार्यशैली पर सवाल उठा रहे हैं।

राहुल गांधी ने मांग की है कि मतदान केन्द्रों की वीडियो रिकॉर्डिंग सार्वजनिक की जाए ताकि यह साफ हो सके कि पिछले कुछ चुनावों में शाम पांच बजे के बाद मतदान प्रतिशत में अचानक 7 से 8 फीसदी की बढ़ोतरी कैसे हुई। इस पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने जो दलील पेश की है वह बेहद फूहड़ और शर्मनाक है। उन्होंने बड़े मासूम अंदाज में कहा कि 'क्या हमें अपनी मां-बहनों और बहू-बेटियों के सीसीटीवी फु टेज सार्वजनिक करने चाहिए?' मुख्य चुनाव आयुक्त की इस दलील के आधार पर तो क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, टेनिस आदि खेलने वाली या कुश्ती या तैराकी की महिला खिलाड़ियों के मुकाबलों का टीवी प्रसारण भी प्रतिबंधित कर देना चाहिए।

चुनाव आयोग के मुखिया इस सवाल का भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए कि बिहार में बाढ़ और बारिश के चलते इतनी हड़बड़ी में, इतने कम समय में एसआईआर करने की क्यों जरूरत महसूस हुई? चुनाव आयोग ने ऐसा ही एसआईआर आयोग ने महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली और अन्य राज्यों में चुनाव से पहले क्यों नहीं किया? उनके पास इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं था कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में गड़बड़ियों के आरोपों के समर्थन में समाजवादी पार्टी ने 18 हजार हलफनामे चुनाव आयोग को दिए थे, उनका क्या हुआ?

कुल मिलाकर मुख्य चुनाव आयुक्त ने अपनी प्रेस काफ्रेंस में जो-जो दलीलें पेश कीं और विपक्षी नेताओं को जिस अंदाज में धमकाया है, उससे यही साबित हुआ है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था के रूप में काम करने के बजाय केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के गठबंधन की एक सहयोगी पार्टी के रूप में काम कर रहा है। यह स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और डरावनी है। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बीच सियासी तलवारें खिंचना एक स्वाभाविक घटनाक्रम है। लेकिन किसी एक राजनीतिक पक्ष के निशाने पर कोई संवैधानिक संस्था आ जाए और वह संवैधानिक संस्था भी राजनीतिक दल की तरह व्यवहार करने लगे तो उसे व्यवस्था के गहराते संकट के रूप में ही देखा जाएगा।

यह संकट अभी और गहराने वाला है क्योंकि चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली के खिलाफ बिहार में वोटर अधिकार यात्रा पर निकले राहुल गांधी ने अपने अभियान के दूसरे दिन चुनाव आयोग को चेतावनी देने के अंदाज में कहा कि, 'कुछ दिन इंतजार कीजिए, देश के हर विधानसभा क्षेत्र के मतदाता चुनाव आयोग से हलफनामा मांगेंगे।' यानी मतदाता सूची में बडे पैमाने पर हेराफेरी के जो सबूत राहुल ने अभी सिर्फ कर्नाटक के एक विधानसभा क्षेत्र के दिए हैं, वैसे मामले अभी अन्य क्षेत्रों के भी सामने आएंगे, जो चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करेंगे। चुनाव आयोग के पास अभी भी समय है। वह चाहे तो अपनी वास्तविक भूमिका में आकर विपक्ष के साथ संवाद शुरू कर सकता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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