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नैतिकता और सुशासन के भेष में शैतानियत भरा इरादा

सुप्रीम कोर्ट ने इसी महीने की आठ तारीख (8 अगस्त) को प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि वह एक 'धूर्त' की तरह काम करने के बजाय कानून के दायरे में रह कर काम करे

नैतिकता और सुशासन के भेष में शैतानियत भरा इरादा
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  • अनिल जैन

आज अगर देश में यह धारणा होती कि संवैधानिक व्यवस्था सामान्य ढंग से काम कर रही है और कानून लागू करने वाली एजेंसियां निष्पक्षता से ठोस तथ्यों के आधार पर कदम उठाती है, तो प्रस्तावित नए कानून को एक स्वस्थ पहल माना जाता। दुर्भाग्य से आज धारणाएं उसके उलट हैं। जो धारणा व्यापक तौर पर प्रचलित है, वह यह कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां राजनेताओं के दल और उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता को देखकर उनके अपराध तय करती हैं। ऐसे में प्रस्तावित कानून पर विपक्षी खेमों में और आम लोगों में भी आशंका पैदा होना स्वाभाविक है।

सुप्रीम कोर्ट ने इसी महीने की आठ तारीख (8 अगस्त) को प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा था कि वह एक 'धूर्त' की तरह काम करने के बजाय कानून के दायरे में रह कर काम करे। इससे पहले 21 जुलाई, 2025 को भी शीर्ष अदालत के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई ने ईडी के बहाने केंद्र सरकार को नसीहत देते हुए कहा था कि, 'राजनीतिक लड़ाइयां अदालत में नहीं बल्कि जनता के बीच लड़ी जानी चाहिए।' उससे भी पहले 6 मई, 2025 को शीर्ष अदालत ने दो टूक कहा था कि ईडी ने बिना सबूत के आरोप लगाने का 'पैटर्न' अपना लिया है। कोर्ट ने इस प्रवृत्ति पर चिंता जताते हुए कहा था कि कई मामलों में ईडी बिना पर्याप्त सबूतों के आरोप लगाती है। इसी साल फरवरी 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने ईडी की कार्यप्रणाली को 'संवैधानिक प्रावधानों के प्रति असम्मान' करार देते हुए कहा था कि वह 'कानून के विपरीत दलीलें देने' को बर्दाश्त नहीं करेगा। इससे कुछ ही दिनों पहले 21 जनवरी, 2025 को उच्चतम न्यायालय ने ईडी की हिरासत प्रक्रिया को अवैध ठहराया था और इसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करार देते हुए आरोपी को जमानत दे दी थी।

पिछले सात-आठ महीने के दौरान देश की सबसे बड़ी अदालत की ओर से की गई ये सभी टिप्पणियां इस आम धारणा को पुख्ता करती हैं कि ईडी की कार्रवाइयां राजनीतिक प्रतिशोध से प्रेरित होती हैं। केंद्र सरकार की ही एक अन्य एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई भी अपनी कार्यप्रणाली को लेकर सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न राज्यों के हाई कोर्ट से इसी तरह की सख्त टिप्पणियां अक्सर सुनती रहती हैं। इसके बावजूद अब केंद्र सरकार इन्हीं एजेंसियों को यह अधिकार देने वाला कानून बनाना चाहती है कि वे जब चाहे किसी भी निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री या मंत्री का क्रियाकर्म कर दे। यह नए मिजाज का लोकतंत्र विकसित हो रहा है- पुलिसिया लोकतंत्र।

इस सिलसिले में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नैतिकता और सुशासन का ढोल पीटते हुए संसद के मानसून सत्र के अंतिम चरण में 20 अगस्त को आनन-फानन में तीन विधेयक संसद में पेश किए, जो अगर पारित हो गए तो गंभीर आपराधिक मामलों में जेल जाने की स्थिति में प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और राज्यों के मंत्रियों को उनके पद से हटाने का प्रावधान हो जाएगा। हालांकि इस प्रस्तावित कानून के दायरे में प्रधानमंत्री को रखने का कोई मतलब नहीं है। यह प्रावधान एक हास्यास्पद पाखंड है, क्योंकि सब जानते हैं कि भारत जैसे देश में जहां बैंक से ठगी करने वाले किसी रसूखदार कारोबारी या सत्तारूढ़ दल या उसके समर्थक किसी धार्मिक मठ से जुड़े किसी बलात्कारी के खिलाफ तक आसानी से एफआईआर दर्ज नहीं होती है, वहां किसकी हिम्मत होगी कि वह प्रधानमंत्री के खिलाफ किसी मामले में एफआईआर दर्ज कर उन्हें जेल भेज दे? ऐसा होना संभव ही नहीं है।

आज अगर देश में यह धारणा होती कि संवैधानिक व्यवस्था सामान्य ढंग से काम कर रही है और कानून लागू करने वाली एजेंसियां निष्पक्षता से ठोस तथ्यों के आधार पर कदम उठाती है, तो प्रस्तावित नए कानून को एक स्वस्थ पहल माना जाता। दुर्भाग्य से आज धारणाएं उसके उलट हैं। जो धारणा व्यापक तौर पर प्रचलित है, वह यह कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां राजनेताओं के दल और उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता को देखकर उनके अपराध तय करती हैं। ऐसे में प्रस्तावित कानून पर विपक्षी खेमों में और आम लोगों में भी आशंका पैदा होना स्वाभाविक है।

चूंकि इस प्रस्तावित कानून पर केंद्र ने विपक्ष से कोई संवाद नहीं किया है और संसद का सत्र समाप्त होने से महज एक दिन पहले गृह मंत्री ने संसदीय नियमों और प्रक्रियाओं का पालन किए बगैर ये विधेयक पेश किए हैं, लिहाजा सरकार की नियत पर सवालों का उठना और प्रस्तावित कानून को नैतिकता और सुशासन के आवरण में सत्ता के केंद्रीयकरण की एक शैतानियत भरी खूंखार कोशिश के रूप में देखा जाना लाजिमी है।

गृह मंत्री अमित शाह ने दावा किया है कि ये विधेयक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और राजनीति के शुद्धिकरण के संकल्प की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। उनका यह दावा सरासर हास्यास्पद है, क्योंकि मोदी को और उनकी सरकार को अगर भ्रष्टाचार से वाकई परहेज होता तो वे इस पहलकदमी के लिए 11 साल का इंतजार नहीं करते। वे तो यह गर्जना करते हुए ही सत्ता में आए थे कि, ''न खाऊंगा और न खाने दूंगा''। देश ने तो यही देखा है कि उनकी सरकार ने अरबों रुपये के घोटालों में फंसे हेमंत बिस्व सरमा, एकनाथ शिंदे, चंद्रबाबू नायडू, अजीत पवार, नारायण राणे, अशोक चह्वाण, एचडी कुमार स्वामी, सुवेंदु अधिकारी जैसे अनगिनत नेताओं के खिलाफ मामले सिर्फ इसलिए रफा-दफा कर दिए कि इन लोगों ने भाजपा में शामिल होना या सत्ता में उसका सहयोगी बनना कुबूल कर लिया। भाजपा के शिवराज सिंह और रमन सिंह जैसे कई नेताओं पर अरबों रुपये के भ्रष्टाचार के आरोप हैं लेकिन आज तक उनके खिलाफ कार्रवाई तो दूर, जांच तक नहीं हुई है।

नियमानुसार सदन में कोई भी विधेयक पेश होता है तो सदस्यों को उस विधेयक की प्रति 24 घंटे पहले उपलब्ध करानी होती है, ताकि वे विधेयक पर चर्चा के लिए तैयारी करके सदन में आएं, लेकिन ये विधेयक पेश हुए 20 अगस्त को सुबह और इन विधेयकों की प्रतियां सांसदों के पास भेजी गई 19 अगस्त की देर शाम को। लोकसभा सचिवालय को भी इन विधेयकों के बारे में 19 जनवरी की शाम को सूचित किया गया और इन विधेयकों को पेश करने के लिए विशेष अनुमति मांगी गई, जो कि मिलनी ही थी।

बहरहाल एक प्रस्ताव के जरिये इन विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति के पास भेज दिया गया है, जो इन विधेयकों की समीक्षा कर अपनी रिपोर्ट संसद के शीतकालीन सत्र में पेश करेगी। हालांकि इसके बाद भी इन विधेयकों का पारित होना आसान नहीं है, क्योंकि इन्हें संसद में दो तिहाई बहुमत से पारित कराना होगा, जो कि मौजूदा स्थिति में बेहद मुश्किल है। मोदी सरकार अभी सहयोगी दलों के समर्थन पर टिकी हुई है और लगता नहीं कि सारे सहयोगी दल खास कर तेलुगू देशम और जनता दल (यू) इन विधेयकों का समर्थन कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा काम करेंगे, क्योंकि ये विधेयक कानून का रूप लेने के बाद न सिर्फ विपक्षी दलों के लिए तलवार बनेगा, बल्कि यह भाजपा के लिए अपने सहयोगी दलों को भी ब्लैकमेल करने का हथियार बन जाएगा। फिर भी अगर किसी तरह सरकार संसद में इन विधेयकों को पारित करा लेती है तो उसके लिए अगली बड़ी चुनौती होगी कम से कम 15 राज्यों की विधानसभा में इन्हें पारित कराना, जो कि आसान नहीं लगता।

दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार इस समय चौतरफा मुसीबतों से घिरी हुई है। राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर मोदी सरकार ने लंबे समय से यह नैरेटिव बना रखा था कि वह इस मुददे पर कोई समझौता नहीं करती है, लेकिन पहलगाम कांड और ऑपरेशन सिंदूर से उस नैरेटिव की कलई उतर चुकी है। पाकिस्तान पर बढ़त बना रही भारतीय सेना को उसने न सिर्फ अमेरिकी दबाव में सीजफायर करने के लिए मजबूर किया बल्कि इस सिलसिले में उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कोई समर्थन नहीं मिला और उल्टे रणनीतिक रूप से पाकिस्तान की ताकतवर देशों के साथ नजदीकियां बढ़ गईं, जो कि कूटनीतिक मोर्चे पर भारत की बड़ी नाकामी है।

इधर घरेलू राजनीति में उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से इस्तीफा दिलवाने वाले प्रकरण ने तो मोदी सरकार को कमजोर किया ही, साथ ही उजागर हुई गंभीर चुनावी गड़बड़ियों और बिहार में अचानक शुरू हुए मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान के कारण चुनाव आयोग के विवादों में घिर जाने की वजह से भी उसकी मुश्किलें बढ गई हैं। चुनावी गड़बड़ियों के उजागर होने और मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण जैसे विवादास्पद अभियान ने समूचे विपक्ष को एकजुट कर दिया है। बिहार में इस अभियान का तीव्र विरोध हो रहा है, जो अन्य गैर भाजपा शासित राज्यों में भी फैलने की संभावना है। इसलिए लगता है कि इन्हीं सब बातों से लोगों का और खास कर विपक्षी दलों का ध्यान हटाने के सरकार ने इन तीन नए कानूनों को लाने की नैतिकता में लिपटी अनैतिक पहल की है, जिसका हश्र तीन विवादास्पद कृषि कानूनों जैसा ही होने की संभावना है, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने भारी विरोध और लगभग 500 किसानों की दर्दनाक मौत के बाद यह कहते हुए वापस ले लिया था कि ''शायद मेरी तपस्या में ही कोई कमी रह गई है।''

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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