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बिहार चुनाव: अस्पष्ट मुद्दे, अविश्वसनीय नेतृत्व

बिहार में मतदान से पहले 12 राज्यों की मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण का चुनाव आयोग का फैसला सिर्फ प्रशासनिक और रूटीन काम का विस्तार लगने से ज्यादा एक राजनैतिक चुनौती वाला लगता है

बिहार चुनाव: अस्पष्ट मुद्दे, अविश्वसनीय नेतृत्व
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  • अरविन्द मोहन

यह आलेख एक मायने में राहुल गांधी की राजनीति के खास चरित्र और बिहार चुनाव की अब तक बनी स्थिति को समझने का प्रयास है। जिस राजनीति में हर चुनावी सभा लाखों-करोड़ों का खर्च मांगती है उसमें भी बिहार में राहुल की ज्यादातर सभाएं बिना धन खर्च की हुईं और जगह-जगह यह स्थिति रही कि उनमें पैर रखने जगह नहीं थी। वोट चोरी के साथ राहुल जिस तरह अति पिछड़ों, दलितों और महिलाओं से जुड़े मुद्दे उठा रहे थे।

बिहार में मतदान से पहले 12 राज्यों की मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण का चुनाव आयोग का फैसला सिर्फ प्रशासनिक और रूटीन काम का विस्तार लगने से ज्यादा एक राजनैतिक चुनौती वाला लगता है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है, बिहार के पुनरीक्षण को लेकर हजारों आपत्तियां पड़ी हैं, अदालती आदेश से इस कार्यक्रम में दसियों बदलाव हुए और अदालत की प्रतिकूल टिप्पणियों की संख्या भी अच्छी खासी रही। इन सबके बावजूद और बिना ज्यादा बदलाव के इस काम का विस्तार करना आयोग के आत्मविश्वास से ज्यादा हठधर्मिता लगती है। और जाहिर तौर पर इसको ताकत उसे बिहार में पुनरीक्षण विरोधी अभियान अर्थात कथित वोट चोरी रोकने के आंदोलन की हवा निकालने से मिली है। ठीक ठाक जोर पकडऩे के बाद यह अभियान आयोग द्वारा दिखाई जा रही अशिष्टता, भाजपा-जदयू द्वारा उससे चार कदम आगे बढ़ाकर घुसपैठ जैसे मुद्दों को उठाने, अदालत द्वारा कराए गए भूल-सुधार से भी ज्यादा वोट चोरी अभियान के नायक राहुल गांधी के 'गायब' होने और उनके सारथी तेजस्वी यादव द्वारा की गई गलतियों से आज ठंडा पड़ गया है और विपक्ष चुनाव में उलझा हुआ है। इस चुनाव में वोट चोरी कोई बड़ा मुद्दा नहीं लगता-पलायन, बेरोजगारी और कानून-व्यवस्था(जंगल राज) उससे बड़े मुद्दे लगते हैं और यह तब है जब कर्नाटक में वोट चोरी के मामलों को उससे जुड़े विशेष जांच दल ने सही पाया है।

यह आलेख आयोग के मौजूदा फैसले को लेकर नहीं है, जबकि यह फैसला बिहार के वोटरों को कुछ बताने के लिए जरूर है। यह आलेख एक मायने में राहुल गांधी की राजनीति के खास चरित्र और बिहार चुनाव की अब तक बनी स्थिति को समझने का प्रयास है। जिस राजनीति में हर चुनावी सभा लाखों-करोड़ों का खर्च मांगती है उसमें भी बिहार में राहुल की ज्यादातर सभाएं बिना धन खर्च की हुईं और जगह-जगह यह स्थिति रही कि उनमें पैर रखने जगह नहीं थी। वोट चोरी के साथ राहुल जिस तरह अति पिछड़ों, दलितों और महिलाओं से जुड़े मुद्दे उठा रहे थे, आरक्षण की सीमा बढ़ाने की बात करते थे और जिस दिलेरी से मोदी सरकार के कामकाज की आलोचना करते थे उससे उनके प्रति एक खास सहानुभूति दिखती थी जो बाद में प्रियंका गांधी की रैलियों में भी दिखी। विपक्ष भी घबराया था और उसने राहुल के आगे तेजस्वी के नतमस्तक होने का मसला उठाया और कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने भी उसका लाभ गठबंधन में ज्यादा और अच्छी सीटें हासिल करने का प्रयास करने के रूप में उठाया। लेकिन जब तक यह सब परिणाम निकले तब तक संवादहीनता, टिकट बेचने के आरोप, राहुल-प्रियंका के बिहार मामलों से एकदम हाथ झाड़ लेने और बिहार के प्रभारी अलावरू को किनारे करने तथा लालू-तेजस्वी के आगे सरेंडर करने में जैसी घटनाओं का पूरा क्रम दिख गया। कांग्रेस के टिकट बिके लेकिन अलावरू उसमें शामिल थे यह कम लोग मानते है, फिर भी उनकी विदाई तो हुई ही।

टिकट जदयू को छोड़कर हर दल में बिके-उसमें आरोप-प्रत्यारोप चले और महागठबंधन के टिकटों में लालू परिवार का जोर चला। तेजस्वी और राजद की जो स्थिति है उसमें यह स्वाभाविक था। लेकिन तेजस्वी नेता घोषित होने के लिए क्यों बेचैन हुए, पप्पू यादव और कन्हैया जैसों से क्यों चिढ़ते/डरते हैं और गठबंधन की अगुआई करते हुए क्यों नहीं चीजों को समेटने का काम किया? यह समझना मुश्किल है। अब अगर उनको हर घर में सरकारी नौकरी देने या जीविका दीदियों वगैरह को स्थायी काम देने या बिहार में उद्योग लगाने जैसा कार्यक्रम चुनाव जिताऊ और ज्यादा बढिय़ा लगता है तो उन्होंने राहुल के वोट चोरी कार्यक्रम के समय ही इस मसले को क्यों नहीं उठाया। वे तब तो उनका सारथी बनकर भी निहाल थे। अति पिछड़ों की बात करके टिकट देने में अहीर और कुशवाहा पर जोर देना और मुसलमानों को निराश करना भी समझ न आने वाला फैसला है। सबसे पुराने अखाड़ेबाज लालू यादव की देखरेख के बावजूद यह सब कैसे हुआ समझना मुश्किल है।

इस मामले में नीतीश कुमार ने चौंकाया। कमजोर और बीमार होने के शोर के बीच वे पर्याप्त सक्रिय दिखे और उनके यहां सीनियर लोगों को टिकट देने के साथ ही कम से कम हंगामा हुआ। उनके सरकार की उपलब्धियां उनके साथ ही भाजपा और लोजपा के लिए भी सहारा बनी हुई हैं। पिछली बार लोजपा और उसके पीछे खड़ी भाजपा ने उनकी छवि बिगाडऩे का प्रयास किया था-इस बार आम लोगों में उनके प्रति सहानुभूति होने से लेकर भाजपा और लोजपा में भी उनका ही भरोसा रह जाने का भाव भी दिखता है। प्रशांत किशोर ने भाजपा के पांच शीर्ष नेताओं और उनके दुलारे मंत्री के कारनामे सामने करके उनके नेतृत्व को ज्यादा मजबूत बना दिया है। भाजपा भले उनको अगला मुख्यमंत्री घोषित न करे लेकिन चुनाव उनके सहारे ही लडऩा उसकी मजबूरी है। खुद प्रशांत सारी रणनीतिक समझ रखते हुए क्यों घोषणा करके तेजस्वी से लडऩे नहीं गये यह उनके पूरे अभियान पर भारी पड़ गया।

अगर कांग्रेस और महागठबंधन को अब वोट चोरी याद नहीं रहा और चुनाव जिताऊ मुद्दा समझ नहीं आता तो यह मुश्किल भाजपा और एनडीए के लिए और बढ़ी है। नीतीश कुमार शासन के बीस साल की उपलब्धियों की जगह उससे पहले के पंद्रह साल के राजद शासन(जिसे भाजपा जंगल-राज बताती है) को चुनावी मुद्दा बनाने का कितना लाभ होगा कहना मुश्किल है। पिछली बार तक राजद के 'गुंडाराज' का डर दिखाना लाभकर था तो पहले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी हुआ और उससे भाजपा को लाभ मिला। इस बार अभी तक धु्रुवीकरण के सारे प्रयास हवाई ही लगते हैं और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यात्राओं से भी खास लाभ नहीं दिखाता। उनके शासन को लेकर एक प्रशंसा-भाव है लेकिन कटेंगे-बंटेंगे टाइप नारों का असर नहीं लगता। मोदी जी और उनसे भी ज्यादा अमित शाह एक जबरदस्त चुनावी प्रबंधन का नमूना पेश कर रहे हैं लेकिन उससे बिना नेता और बिना मुद्दा वाली भाजपा को लाभ होता नहीं लगता। लेकिन अभी तो चुनाव प्रचार और चुनाव ही असली रंग में कहां थे। अभी तक तो दिवाली-छठ का ही शोर ज्यादा था।


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