बांग्लादेश: ‘पुतुल’ से बेगम जिया तक का उतार-चढ़ाव भरा सफर

अविभाजित भारत के जलपाईगुड़ी में पैदा होने वाली पुतुल उर्फ खालिदा के बांग्लादेश की 'फर्स्ट लेडी' और पहली महिला पीएम बेगम जिया बनने का सफर काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. किसी दौर में राजनीति में उनको पसंद नहीं थी;

Update: 2025-12-30 11:47 GMT

अविभाजित भारत के जलपाईगुड़ी में पैदा होने वाली पुतुल उर्फ खालिदा के बांग्लादेश की 'फर्स्ट लेडी' और पहली महिला पीएम बेगम जिया बनने का सफर काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. किसी दौर में राजनीति में उनको पसंद नहीं थी.

बीते कई दशकों से बांग्लादेश की राजनीति दो महिलाओं - शेख हसीना और खालिदा जिया के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह दोनों नेता देश में राजनीति का पर्याय बन गई थीं. देश के आम लोग भी इन दोनों की प्रतिद्वंद्विता देखने के आदी हो चुके थे. अब खालिदा जिया के निधन से यह प्रतिद्वंद्विता हमेशा के लिए खत्म हो गई है. हालांकि राजनीति के इस अध्याय की शुरुआत तो बीते साल शेख हसीना सरकार के पतन के बाद ही हो गई थी. उन्होंने उसी समय देश छोड़ दिया था और तब से भारत में ही रह रही हैं.

खालिदा का जन्म वर्ष 1945 में अविभाजित दिनाजपुर जिले के जलपाईगुड़ी में हुआ था. उनके पिता इस्कंदर अली मजूमदार चाय के कारोबारी थे. अपने कारोबार को ध्यान में रखते हुए ही देश के विभाजन के समय उन्होंने सपरिवार दिनाजपुर शहर में (अब बांग्लादेश में) बसने का फैसला किया था. हालांकि खालिदा का पैतृक घर तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के फेनी जिले के फऊलगाजी में था. उनके मामा का घर चांदबाड़ी में था जो बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिले में है.

खालिदा का निकाह वर्ष 1960 में पाकिस्तानी सेना के तत्कालीन मेजर जिया उर रहमान के साथ हुआ था. जन्म के समय माता-पिता ने उनका नाम खालिदा खानम पुतुल रखा था. लेकिन शादी के बाद उन्होंने अपने पति के नाम का पहला शब्द उपाधि के तौर पर अपना लिया. इस तरह वो पुतुल से खालिदा जिया बन गईं. वर्ष 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अपने पति का मनोबल बढ़ाने के लिए वो उनके साथ तत्कालीन पश्चिम पाकिस्तान भी गई थी. युद्ध खत्म होने पर वहां से लौटने के बाद वो चटगांव में रहने लगीं. वर्ष 1971 में बांग्लादेश के आजाद होने के छह साल बाद वर्ष 1977 में उनके पति जिया उर रहमान देश के राष्ट्रपति बने थे. उसके अगले साल ही रहमान ने बांग्लादेश राष्ट्रवादी पार्टी (बीएनपी) की स्थापना की थी.

राजनीति में नहीं आना चाहती थी

जिया उर के राष्ट्रपति बनने के बाद खालिदा जिया बांग्लादेश की 'फर्स्ट लेडी' बन गईं. बचपन से ही अंतर्मुखी स्वभाव की खालिदा पति के राष्ट्रपति बनने के बाद से सार्वजनिक तौर पर सामने आने लगीं. मगर तब तक वो खुद राजनीति में आने की इच्छुक नहीं थी. लेकिन सेना के अधिकारियों के एक गुट के हाथों पति की हत्या के बाद उनकी सोच बदल गई. सक्रिय राजनीति में शामिल होने का फैसला करते हुए उन्होंने वर्ष 1982 में अपने पति की ओर से स्थापित बीएनपी की सदस्यता ली. उसके एक साल बाद उनको पार्टी का उपाध्यक्ष चुना गया.

इस्लामी देश का नागरिक होने के नाते खालिदा के सिर पर पल्लू रहना स्वाभाविक था. लेकिन वो एक बड़ा सा धूप का चश्मा लगाती थी जो बाद में उनके व्यक्ति का अभिन्न हिस्सा बन गया. बहुत कम मौके ही ऐसे आए होंगे जब दिन के समय उनको बिना इस चश्मे के देखा गया हो. उनके बोलने का लहजा बेहद गंभीर था. वो सधे स्वर में छोटे-छोटे वाक्यों में अपनी बात कहती थीं. दरअसल, यहीं से पुतुल के बेगम जिया बनने की शुरुआत हुई.

वर्ष 1984 में बीएनपी की कमान संभालने के बाद खालिदा ने पार्टी को बांग्लादेश के सैन्य शासक हुसैन मोहम्मद इरशाद के शासन के खिलाफ मैदान में उतार दिया. दो साल बाद बांग्लादेश में इरशाद के शासनकाल में ही चुनाव कराए गए.

राज्य की दोनों प्रमुख पार्टियां यानी शेख हसीना की अवामी लीग और खालिदा की बीएनपी ने इन चुनावों में हिस्सा नहीं लेने का फैसला किया था. हसीना की पार्टी तो बाद में फैसले को पलटते हुए चुनाव में शामिल हुई. लेकिन बीएनपी आखिर तक अपने फैसले पर अड़ी रही. राजनीतिक दलों और आम लोगों में बढ़ते असंतोष और नाराजगी के कारण इरशाद को वर्ष 1990 में इस्तीफा देना पड़ा.

पहली महिला प्रधानमंत्री बनने का सफर

वर्ष 1986 से 1990 के बीच खालिदा को कई बार घर में नजरबंद रखा गया था. लेकिन उन्होंने इरशाद के खिलाफ अपनी लड़ाई नहीं छोड़ी. इसी लड़ाई ने उनको सुर्खियां दिलाते हुए सत्ता में आने का रास्ता खोला था. खालिदा की प्रचण्ड लोकप्रियता पर सवार होकर 1991 में उनकी पार्टी पहली बार सत्ता में आई थी. तब खालिदा ने देश की पहली महिला प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी.

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खालिदा लगातार दो बार प्रधानमंत्री रहीं थी. पहली बार उनका कार्यकाल 1991 से 1996 तक रहा था. फरवरी, 1996 में हुए चुनाव में जीत हासिल कर वो लगातार दूसरी बार इस पद पर आई थी. लेकिन इस बार उनका कार्यकाल महज 12 दिनों का ही रहा. विपक्षी दलों ने कार्यवाहक सरकार के नेतृत्व में दोबारा चुनाव कराने की मांग उठाई थी. उसके बाद उसी साल जून में हुए चुनाव में जीत कर शेख हसीना की अवामी लीग ने सरकार का गठन किया. प्रधानमंत्री के तौर पर खालिदा का तीसरा और अंतिम कार्यकाल वर्ष 2001 से 2006 तक रहा था.

खालिदा के प्रबल विरोधी भी मानते हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में महिलाओं में शिक्षा को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई थी. उन्होंने शिक्षा के मद में पहले की तुलना में 60 फीसदी बजट बढ़ाया था.

कटघरे में खालिदा

वर्ष 2001 के चुनाव के दो साल पहले खालिदा ने अवामी लीग को पराजित करने के लिए इरशाद की जातीय पार्टी के साथ ही कट्टरपंथी और बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध का विरोध करने वाले संगठन जमात-ए-इस्लामी के साथ गठजोड़ किया था. लेकिन पार्टी के प्रगतिशील तबके को खासकर जमात के साथ खालिदा का हाथ मिलाना पसंद नहीं आया. इसलिए तीसरे कार्यक्राल के दौरान उन पर जमात के इशारों पर काम करने के आरोप भी लगे.

कई लोगों का मानना है कि खालिदा ने प्रधानमंत्री के रूप में विदेश नीति को लागू करने में काफी उदारता बरती थी. लेकिन बीएनपी की विदेश नीति को हमेशा 'भारत विरोधी' ही माना जाता रहा है. हालांकि बीएनपी बार-बार कहती रही कि उसे भारत विरोधी बताने की कोई ठोस वजह नहीं है. पार्टी द्विपक्षीय संबंधों में बराबरी चाहती है. वह अवामी लीग जैसी 'घुटने टेकने वाली' विदेश नीति के खिलाफ है.

खालिदा के तीसरे कार्यकाल के दौरान उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे. यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि वर्ष 2001 से 2005 के बीच विश्व भ्रष्टाचार सूचकांक में बांग्लादेश पहले स्थान पर रहा था. खालिदा के बड़े बेटे तारिक रहमान भी इन आरोपों से अछूते नहीं रहे. इन आरोपों के अलावा तारिक रहमान पर वर्ष 2004 में ग्रेनेड हमले से हसीना और उनकी पार्टी के कुछ नेताओं की हत्या की कोशिश के आरोप भी लगे.

वर्ष 2008 के चुनाव में अवामी लीग के सत्ता में लौटने के बाद हसीना सरकार के साथ कथित गोपनीय डील के तहत तारिक रहमान अपने परिवार के साथ स्वेच्छा से देश छोड़ कर ब्रिटेन में निर्वासन में रहने लगे. वहां करीब 17 साल बिताने के बाद वो बीते सप्ताह ही बांग्लादेश लौटे हैं.

विपरीत धुव्रों पर रहीं हसीना और खालिदा

प्रधानमंत्री के तौर पर खालिदा जिया का तीसरा कार्यकाल वर्ष 2006 में पूरा हो गया. लेकिन सेना समर्थित कार्यवाहक सरकार की निगरानी में वर्ष 2008 में आम चुनाव कराए गए. उसमें बीएनपी के नेतृत्व वाले गठजोड़ की बुरी तरह हार हुई. खालिदा की पार्टी को महज तीस सीटें मिली थीं जबकि अवामी लीग के नेतृत्व वाले गठजोड़ को 263 सीटें. इनमें से अकेले अवामी लीग को 230 सीटें मिली थी.

उसके बाद से खालिदा जिया बांग्लादेश की राजनीति में धीरे-धीरे हाशिए पर जाने लगीं. एक के बाद एक बीमारियों ने भी उनकी राजनीतिक सक्रियता में बाधा पहुंचाई. इसबीच, वर्ष 2018 में भ्रष्टाचार के दो मामलों में उनको 17 साल की सजा सुना दी गई. लेकिन वर्ष 2019 में उनको इलाज के लिए अस्पताल में दाखिल कराया पड़ा. उसके बाद स्वास्थ्य कारणों से उनको रिहा तो कर दिया गया. लेकिन राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होने जैसी कड़ी शर्तें थोप दी गईं. आखिर बीते साल हसीना सरकार के पतन के बाद उनकी जेल से रिहाई हुई और उनके खिलाफ तमाम मामले वापस ले लिए गए.

क्या भारत-विरोध के मुद्दे पर लड़ा जाएगा बांग्लादेश चुनाव?

वर्ष 1991 के आखिरी दिनों में पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले में तीन बीघा आंदोलन के दौर में खालिदा जिया ने इलाके का दौरा किया था. तब कुछ महीने पहले ही उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला था. वो आखिरी बार वर्ष 2012 में भारत आई थीं. उस समय उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अलावा बीजेपी नेता सुषमा स्वराज के साथ मुलाकात की थी.

बांग्लादेश के राजनीतिक इतिहास को देखे तो इरशाद के सैन्य शासन का विरोध ही वह एकमात्र मुद्दा था जिस पर दोनों महिला नेता एक साथ खड़ी नजर आई थी. वो भी महज एक बार. उसके पहले और बाद हसीना और खालिदा हमेशा दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी रही हैं. हाल के दशकों में उनकी तुलना नदी के उन दोनों किनारों से भी होती रही जो कभी आपस में नही मिलते. हसीना सरकार पर खालिदा को इलाज के लिए विदेश जाने की अनुमति नहीं देने के आरोप लगते रहे हैं. हालांकि अवामी लीग के एक नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि जनवरी, 2015 में खालिदा के छोटे बेटे अराफात रहमान की अकाल मौत के बाद हसीना शोक जताने बीएनपी प्रमुख के घर गई थी.

बीमारियों से घिरे रहे जीवन के आखिरी साल

बीते साल हसीना सरकार के पतन के बाद कयास लगाए जा रहे थे कि खालिदा एक बार फिर नए सिरे से राजनीति में सक्रिय होंगी. लेकिन बढ़ती उम्र और शरीर को घेरने वाली गंभीर बीमारियों ने उनको ऐसा नहीं करने दिया. अब उनके बड़े बेटे तारिक रहमान ही बीएनपी के सर्वेसर्वा हैं. फिलहाल अवामी लीग राजनीतिक परिदृश्य से गायब है. बीएनपी की पूर्व सहयोगी जमात-ए-इस्लामी राजनीति के इस खालीपन को भरने के लिए सक्रिय है. हालांकि खालिदा के निधन के बाद अब बीएनपी की भावी रणनीति पर कयास का दौर तेज हो गया है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या करीब दो दशक तक बांग्लादेश और उसकी राजनीति से दूर रहे तारिक रहमान खालिदा की विरासत को आगे बढ़ाने में कामयाब होंगे?

बीएनपी के नेताओं के एक गुट की दलील है: "खालिदा ने इरशाद-विरोधी आंदोलन के जरिए पार्टी का जनाधार मजबूत किया था. पार्टी के संस्थापक जिया उर रहमान भी इसे इतनी लोकप्रियता नहीं दिला सके थे. अब खालिदा की मौत से पार्टी का जनाधार कम नहीं होगा." उनका कहना है कि तारिक रहमान पार्टी को भविष्य की राह दिखाएंगे और पार्टी के बाकी नेता भी बेगम जिया के काम को आगे बढ़ाते रहेंगे.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि खालिदा के निधन के साथ बांग्लादेश की राजनीति का एक अहम अध्याय पूरी तरह खत्म हो गया है. आधा अध्याय बीते साल हसीना सरकार के पतन के साथ खत्म हुआ था और बाकी आधा खालिदा के निधन के साथ खत्म हो गया है. बांग्लादेश की राजनीति को करीब चार दशकों से करीब से देखने वाली राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार शिखा मुखर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "इन दोनों नेताओं के देश के राजनीतिक परिदृश्य से गायब होने के बाद अब उस खाली जगह को भरने की होड़ में कौन कामयाब रहता है, यह तो चुनाव के बाद पता चलेगा. लेकिन बांग्लादेश की राजनीति में महिला नेताओं के वर्चस्व वाला एक बेहद अहम दौर तो खत्म हो ही गया है. अब वहां इनके कद काठी की कोई दूसरी महिला नेता नहीं नजर आती."

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