डॉ, खूबचन्द बघेल-मेरी स्मृति में
डॉ.खूबचन्द बघेल को स्मरण करना यानी एक ऊर्जावान व्यक्तित्व,जो कभी थके नहीं,ऐसे व्यक्तित्व स्मरण करना है;
- डॉ. सत्यभामा आडिल
डॉ.खूबचन्द बघेल को स्मरण करना यानी एक ऊर्जावान व्यक्तित्व,जो कभी थके नहीं,ऐसे व्यक्तित्व स्मरण करना है!
19 जुलाई 1900 को जन्मे व 22 फरवरी 1969 को,69 वर्ष की आयु में,दिवंगत हो गए। छत्तीसगढ़ के स्वप्नद्रष्टा के रूप में वे याद किये जाते हैं,याद किये जाते रहेंगे। बचपन में मैंने उन्हें समाज सुधारक के रूप में जाना था। यह भी सुनने में आया कि उन्होंने अपनी तीनों बेटियों की शादी कुर्मी समाज के अन्य फिरकों में की थी,फलस्वरूप वर्षों तक वे मनवा कुर्मी समाज से बहिष्कृत किये गए थे।सामाजिक बहिष्कार की पीड़ा अत्यधिक दुखदायी होती है, पर डॉ, बघेल ने बहुत हिम्मत के साथ सामना किया। न कुंठा, न निराशा,न शिकायत,उलटा समाज के लोगों के कुंद दिमाग के कपाट खोलते गए। कुछ वर्षों बाद
एक दिन ऐसा समय आया जब समाज ने उन्हें शामिल कर लिया!
अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय समाज को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया।ऐसे ही समय 1966 दिसम्बर में नागपुर के अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय महासभा के राष्ट्रीय महाधिवेशन में, मैं उनके निकट सम्पर्क में आई।उसी समय दूसरे दिन महाराष्ट्र कुनबी समाज का राज्यस्तरीय सम्मेलन भी हुआ।
सन्त तुकडोजीमहाराज, स्वामी आत्मानन्दजी, बृजलाल वर्माजी, केंद्रीय योजना मंत्री अशोक मेहता, महामंत्री बाबू गुप्तनाथ सिंह सम्मिलित थे। अध्यक्ष बाबू लक्ष्मण चन्द्र सिंह जी थे-,जो वर्षो तक कुर्मी क्षत्रिय जागरण मासिक पत्रिका निकालते रहे। नागपुर का महाधिवेशन ऐतिहासिक था। डॉ. बघेल का प्रभाव सर्वव्यापी था--उन दिनों ! समाज के कार्यक्रम में भाग लेने का मेरा पहला अनुभव था।में अकेली युवा महिला मंच पर थी। डॉ, बघेल मेरा ध्यान इस तरह रख रहे थे- मानों मैं उनकी अपनी बेटी हूं!
जब अंतिम दिन समापन के अवसर पर,सन्त तुकडो जी नेअपने निवास पर अतिथि स्वजातियों के लिए महाभोज रखा,तो मैं सन्त तुकडो जी के फकीराना अंदाज,सरलता,प्रेम भाव को देखकर विस्मित थी!
एम,ए, पास होने के पूर्व ही मेरी शादी हो गयी थी-1965 में । एक साल बाद मैं नागपुर के इस महाधिवेशन में उपस्थित थी। डॉ. बघेल मानों मेरे अभिभावक थे। मेरे पति रीवा से आये थे।मैं रायपुर से गई थी-,सम्मानित ग्रुप के साथ। मेरा दायित्व यह ग्रुप निभा रहा था-डॉ, बघेल,बृजलाल वर्मा, स्वामी आत्मानन्दजी,तरेसर वाले भुजबल जी जो बाद में संन्यासी हो गए थे।
सन्त तुकडोजी ,भोज के बाद,मुझसे बोले-'-सत्या बेटी,तुम आमचा महाराष्ट्र में रुक जाओ विधानसभा के लिए। तुमको टिकिट मिलेगी। तुम्हारा भाषण सुनकर,तुम्हारी वक्तृत्व शैली मुझको बहुत अच्छी लगी।'
मैं चुप थी। डॉ, बघेल ने तत्काल प्रतिवाद किया-'नहीं महाराज,इसे राजनीति में आना होगा, तो मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ में चुनाव लड़ेगी। हमारी बेटी हमारे घर से चुनाव लड़ेगी। अभी तो यह सिर्फ 22 साल की है।
स्व, बृजलाल वर्मा और भुजबल जी ने भी यही कहा! स्वामी आत्मानन्दजी मुस्कुराते हुए बोले-'महाराज, देखिए, इसकी गोद में 3 माह का बेटा है। पहले यह मां का दायित्व निभाएगी! राजनीति बाद की बात है!'
डॉ, बघेल ने हामी भरते हुए कहा-'सही बात है महाराज'। डॉ, बघेल ने मेरी गोद से बेटे को लेकर महाराज की गोद में दिया ! महाराज ने दोनों हाथों में मेरे नन्हे शिशु को लिया और पुचकारते हुए,आशीष दिया। उनके कमरे में विठ्ठल भगवान के विभिन्न रूपों की अनेक मूर्तियां क्रम से विराजमान थीं। एकमूर्ति से स्पर्श कराकर बच्चे को मेरी गोद में डाला।
डॉ, बघेल ने मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहा-'बच्चे को महाराज और भगवान दोनों का आशीष मिल गया।'
मेरे मातृत्व सुख का झोला भर गया !
मेरा पहला सामाजिक सम्मेलन का अनुभव अद्भुत व अविस्मरणीय रहा। डॉ, बघेल को इससे पूर्व मैंने सन1960 दिसम्बर में देखा था।
रायपुर में अखिल भारतीय कांग्रेस के महाधिवेशन में पण्डित जवाहरलाल नेहरू, गोविन्दवल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, वगैरह शीर्षस्थ राजनेता आये हुए थे।
इंजीनियरिंग कॉलेज की नई बिल्डिंग में कांग्रेस सेवादल के स्वयंसेवकों का शिविर लगा था।पण्डित नेहरू के साथ राजनेताओं का जुलूस कांग्रेस भवन से तात्यापारा चौक होते हुए,आजाद चौक की ओर बढ़ा।
नेहरूजी खुली गाड़ी में खड़े थे।जैसे ही जुलूस कुर्मी बोर्डिंग के पास पहुंचा,वैसे ही नेहरूजी ने हाथ हिलाकर आवाज लगाई-'डॉ, बघेल जय हिंद!'
दोनों हाथ जुड़े थे ! लोगों ने देखा-'कुर्मी बोर्डिंग के दरवाजे के सामने डॉ, बघेल,दोनों हाथ ऊपर की ओर नमस्कार की मुद्रा में रखे खड़े थे!
लोगों ने आश्चर्य से देखा। मैं विद्यार्थी वर्ग में ,लड़कियों के जत्थे में,कांग्रेस सेवादल के समूह में चल रही थी।
मैंने भी पलटकर दोनों को एक दूसरे से जयहिंद करते,हाथ हिलाते देखा। मुझे गर्व हुआ कि डा, बघेल को नेहरूजी पहचानते थे। जयहिंद की पहल नेहरूजी ने ही की थी!
उस घटना के बाद मैंने सन 1966 में नागपुर में देखा, उनका स्नेह प्राप्त किया। तीसरी बार 6 सितम्बर 1968 को, वे सुबह सुबह सीहोर (भोपाल) में मेरे निवास पर आए।
मेरे पति की पोस्टिंग सीहोर के कृषि महाविद्यालय में थी। हम रीवा से सीहोर आ गए थे। उस समय हमारे पास फोन नहीं था।और न ही स्कूटर था। वह दिन मेरे बेटे का जन्मदिन था। उन्हें जन्मदिन स्मरण था।वे राज्यसभा सदस्य थे।मेरे पति को वे अपार स्नेह करते थे पुत्र की तरह।वे इलाहाबाद होते हुए आये थे,तो हमारे बेटे के लिए बनारस की लकड़ी के बने रंग बिरंगे खिलौने,गंगाजल, व बड़ी सी डलिया लेकर आये थे।
उनके अकस्मात आगमन से हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था। लोगों को पता चला,तो मिलने वाले वी,आई, पी, लोगों का तांता लग गया। वे तीन दिन हमारे घर रहे। छोटे से दो कमरे के घर में उन्हें बहुत आनन्द आया.। वे बेटे को गोद में लेकर घूमते। हमने तांगे में बैठाकर उनको घुमाया। वे इतने सरल व आत्मीय थे हमारे लिए मानो हमारे पिता हों।
बहुत सी सामाजिक चर्चाएं भी करते थे।समाज की कूपमण्डूकता से वे दुखी होते थे,पर उनका समाज प्रेम उत्कट था।
उनके जाने के बाद ,कई दिनों तक सूनापन सा छाया रहा।
जाते-जाते उन्होंने एक विशेष बात कही--
'में एक नाटक लिख रहा हूँ किसानों की समस्या पर!नाम है 'गरकट्टा'! अभी मेरे बैग में है--उसे पूरा करके तुम्हें दूंगा। पढना। उसका मंचन करना है। पथरी के लड़कों को तैयार करूंगा। सिलियारी में करने की सोच रहा हूँ। गर्मी की छुट्टी में तुम लोग आना। मनहर तुम्हें पथरी लेकर आएगा'!
फिर इनकी तरफ मुड़कर बोले- 'सत्या ल ले के आबे बाबू,पथरी। तोला नेवता देवथव !'
'हव बाबूजी!' कहत हुए इन्होंने प्रणाम किया मैंने भी प्रणाम किया। मेरे बेटे को चुम्मा दिए।और स्टेशन रवाना हुए। हमारा तांगेवाला नब्बू मियां स्टेशन ले गया। मेरे पति स्टेशन गए।
हमें क्या मालूम था कि यह हमारी अंतिम मुलाकात है ।
हम तो गर्मी की छुट्टी की प्रतीक्षा करते रहे।
भोपाल में विधानसभा का चालू सत्र देखने गए। तब हम बृजलाल वर्माजी के बंगले में रुकते-पारिवारिक सम्बन्ध था। वे संविद सरकार में उपमुख्यमंत्री थे। समय बीता फरवरी का महीना आया। वर्माजी सीहोर दौरे पर आए सपरिवार।उनकी पत्नी व बच्चों ने खाना खाया। जब वे और आडिल साहब खाने बैठे, उसी समय उनका पी,ए, वायरलेस का संदेश लेकर अंदर आया 'दिल्ली में डॉ, बघेल का हृदयाघात से देहावसान हो गया। उनका शव मालगाड़ी से रायपुर ले जा रहे हैं। भोपाल स्टेशन तत्काल पहुंचे।' रोटी का 'कौर' हाथ से गिर गया। जमीन में बैठकर खा रहे थे। उस समय हमारे पास डायनिंग टेबल नहीं था। वे आडिल साहब के साथ अपनी सरकारी गाड़ी में भोपाल स्टेशन पहुंचे।
अजीब सा लगा जानकर कि इतनी बड़ी विभूति का शव मालगाड़ी में?
छत्तीसगढ़ के लोगों में आक्रोश था-!
बाद में दोनों सदन में यह प्रस्ताव पास हुआ कि ऐसे महत्वपूर्ण हस्तियों को सम्मानित ढंग से उनके गृहनगर ले जाया जाय।
हमें ऐसा महसूस हुआ--जैसे हमारा कोई नहीं।बहुत अपना सा छिन गया।हमने होली नहीं मनाई। गम में डूबे रहे। ख्याल आया -'उस नाटक का क्या हुआ?'
फरवरी के प्रथम सप्ताह में उन्होंने 'अहिवारा' में किसान आंदोलन किया था, उसी फरवरी में दिल्ली आए और 22 तारीख को हृदयाघात हुआ। क्या तनाव में थे? यह प्रश्न मेरे मन मेंआज तक बना हुआ है।
लंबे अरसे बाद 2 जून 1975 को मैंने रायपुर के शासकीय विज्ञान महाविद्यालय में हिंदी विभाग में ज्वाइन किया।तब डॉ, नरेन्द्रदेव वर्मा हिंदी के प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष थे।
25 जून को आपातकाल लगा। विज्ञान महाविद्याल का स्नातकोत्तर कला संकाय बन्द कर दिया गया।
हमने 'पहाती सुकुवा' नाट्य संस्था के बैनर तले उनके नाटक 'करमछहा' का मंचन किया! रायपुर के 'रंग मन्दिर' के नाट्यगृह में! रंगमन्दिर में मंचन के बाद कई गांवों में भी मंचन हुआ।इसी नाटक को , छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद एम, ए, हिंदी साहित्य के एक छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य के प्रश्नपत्र में शामिल किया मैंने। बड़ा गुरुतर दायित्व था मुझ पर!
फिर क्या हुआ डॉ, बघेल के 4 थे नाटक का, जिसे वे मुझे देना चाहते थे?
आपातकाल खत्म होने के बाद। -केंद्र में बृजलाल वर्मा जी व पुरुषोत्तमलाल कौशिक जी मंत्री बन गए। बाद में यह सरकार भी खत्म हो गयी। फिर कुछ वर्ष बीत गए।अचानक मेरी खोज खबर लेने बृजलाल वर्मा जी सपत्नीक घर आये।मेरे प्रति उन दोनों का स्नेह बहुत था।चाय नाश्ता करने के बाद जाते-जाते अपने कुर्ते के बाजू वाले जेब से एक पुरानी स्कूल कापी निकालकर मेरे हाथ में देकर बोले '-सत्या , ये डॉ बघेल ने तुम्हें देने को कहा था !' व्यस्तता में भूल गया था। रखो। यह तुम्हारी थाती है। मैं जिम्मेदारी से मुक्त हो गया अब!'
फिर बोले'--काका की भूल को भूल जा बेटी!'
मैं चुप रही ! कॉपी रख ली। माथे से लगाई। 'गरकट्टा' नाटक ! स्कूल वाली साधारण कॉपी में उनके गोल गोल हस्ताक्षर ! मेरे लिए धरोहर !!
आलमारी में रखा हुआ वह नाटक ।अब प्रकाशित हुआ।
कैसे पश्चाताप करूं? विलम्ब से प्रकाश में लाने के लिए जितने दोषी बृजलाल वर्मा जी यह,उससे कहीं अधिक दोषी में हूँ। प्रकाशन में विलंब के लिए।
परन्तु, ऐसा लग रहा है आज कि यह विलम्ब ठीक ही रहा।। क्योंकि किसान आंदोलन। चल रहा है । किसानों की समस्या पर लिखा हुआ नाटक गरकट्टा बिल्कुल समीचीन है।
मुझ पर असीम विश्वास करने वाले डॉ, बघेल ! ममता उंडेलने वाले डॉ, बघेल,सामाजिक प्रगति की ऊर्जा भरने वाले डॉ, बघेल!
उनके सारे रूप मुझे देखने को मिले।आज उनके नाटक 'गरकट्टा' को प्रकाशन। व विमोचन करके मुझे बहुत हल्का लग रहा है।एक ऋण था,जिससे उबर रही हूँ।
अपने समय के पुरोधा,पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नद्रष्टा--डॉ, बघेल को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन!!