लेबनान की त्रासदी को समझें
इजराइली हमलों और खासतौर से फिलीस्तीनी मुक्ति के लिए संघर्षरत हथियारबंद संगठन 'हिजबुल्ला' के प्रमुख हसन नसरल्लाह की हत्या के बाद पश्चिम एशिया में मिश्रित आबादी वाला देश लेबनान एक बार फिर सुर्खियों में है;
- जयशंकर गुप्त
लगातार युद्ध, हिंसक झड़पों के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका का सामना करते रहे लेबनान और खासतौर से बेरुत के नए सिरे से खड़ा होने की जिजीविषा अपने आप में एक उदाहरण है। बेरुत में मिश्रित जन जीवन और संस्कृति के दर्शन होते हैं। अपने थिएटर, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक, पब्लिशिंग और बैंकिंग गतिविधियों के साथ ही पब्स और नाइट क्लबों से सज्जित नाइट लाइफ के कारण भी बेरुत अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों का आकर्षण केंद्र बना हुआ है।
इजराइली हमलों और खासतौर से फिलीस्तीनी मुक्ति के लिए संघर्षरत हथियारबंद संगठन 'हिजबुल्ला' के प्रमुख हसन नसरल्लाह की हत्या के बाद पश्चिम एशिया में मिश्रित आबादी वाला देश लेबनान एक बार फिर सुर्खियों में है। ईरान सहित कुछ अन्य मुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया और जवाबी हमलों की चेतावनी के मद्देनजर इलाके में हिंसा और रक्तपात और बढऩे की आशंका बढ़ गई है। इजराइल की योजना लेबनान और उसकी खूबसूरत राजधानी बेरुत को भी गजा बना देने की लगती है जहां आए दिन फिलीस्तीनियों के नरसंहार की खबरें आते रहती हैं। लेबनान की सेना ने एक बयान जारी कर कहा है कि पिछले दो सप्ताह में इजराइली हमलों में 1030 लोग मारे गए हैं जिनमें 156 महिलाएं और 87 बच्चे हैं। यह संख्या बढ़ते ही जा रही है।
लेबनान या इसके कुछ इलाकों पर अड्डा जमाए हिजबुल्ला के ठिकानों पर हमलों से लगता है कि लेबनान भी कोई मुस्लिम देश है। यह सच है कि वहां आधी से अधिक आबादी शिया और सुन्नी मुसलमानों की ही है लेकिन वहां बड़ी आबादी अलग-अलग सेक्ट के ईसाइयों की भी है। इसे हमने हम ग्लोबल मार्च टू येरुशलम के बैनर तले लेबनान में जाकर महसूस किया। हम लोग समुद्री जहाज से लेबनान की राजधानी बेरुत पहुंचे थे। लेबनान की यात्रा के रोचक और रोमांचक अनुभवों को हमने अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक 'दो डग देखा जग' में विस्तार से साझा किया है। यहां हम लेबनान के इतिहास, भूगोल, वहां के सामाजिक जीवन, समावेशी लोकतंत्र से लेकर अपनी रोमांचक यात्रा के कुछ अंश साझा कर रहे हैं।
लेबनान पूर्व में सीरिया तथा दक्षिण में इजराइल की सीमा से लगा मिश्रित सभ्यता और संस्कृतियों का छोटा सा देश है। उसे मध्यूपर्व यानी पश्चिमी एशिया में व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र कहा जा सकता है। अपनी आजादी से पहले 1943 तक लेबनान फ्रेंच साम्राज्य का उपनिवेश भी रहा। इसके अवशेष आज भी यहां जनजीवन पर साफ दिखते हैं। लेबनान और इसका तकरीबन पांच हजार साल पुराना और विकसित राजधानी शहर बेरुत दशकों तक युद्ध-गृह युद्धों और प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका झेलता रहा है। इस लिहाज से देखा जाए तो लेबनान मध्य पूर्व यानी पश्चिम एशिया में सबसे जटिल और बंटे हुए देशों में से एक है।
इजराइल के निर्माण के समय और बाद में भी फिलीस्तीन समस्या से जुड़े जो भी विवाद उठे उनमें किसी न किसी रूप में लेबनान भी शामिल रहा है। 1975 से लेकर नब्बे के दशक तक लेबनान ने एक जबरदस्त गृह युद्ध देखा, जहां क्षेत्रीय ताकतों, विशेषकर इजराइल, सीरिया और फिलस्तीनी मुक्ति संगठनों ने लेबनान को अपने झगड़े सुलझाने के लिए लड़ाई के मैदान के तौर पर इस्तेमाल किया। युद्ध की शुरुआत होते ही सीरियाई सैनिक टुकडिय़ां वहां दाखिल हो गईं। इजराइली सेना ने 1978 और फिर 1982 में हमले किए और फिर वे 1985 में एक स्वघोषित सुरक्षा जोन में दाखिल हो गए जहां से वे हिजबुल्ला के लड़ाकों से मिली शिकस्त के बाद ही बाहर निकले। सीरिया का लेबनान में अच्छा खासा राजनीतिक दबदबा है।
हालांकि सीरिया ने 2005 में अपनी सैनिक टुकडिय़ां वहां से हटा कर 29 साल की अपनी सैन्य मौजूदगी खत्म कर दी थी। यह कदम लेबनान के तत्कालीन प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या के बाद उठाया गया था। लेबनानी विपक्षी गुटों ने इस मामले में सीरिया का हाथ होने का आरोप लगाया। उसके बाद बेरुत में सीरिया समर्थक और सीरिया विरोधी बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित हुईं और सीरिया को वहां से बाहर निकलना पड़ा।
बेरुत की अरब शिया-सुन्नी मुस्लिम, ईसाई बहुल मिश्रित आबादी में एक चौथाई आबादी 1948 में यहां आए फिलीस्तीनी शरणार्थियों की भी है। इस कारण भी वहां अक्सर आपस में और इजराइल से भी हिंसक झड़पें होती रहती हैं। 1982 के युद्ध में इजराइल ने लेबनान और खासतौर से बेरुत शहर को तबाह सा कर दिया था। लेकिन 2006 में हिजबुल्ला के लड़ाकों ने इजराइली सेना को परास्त कर उसे बहुत दूर खदेड़ दिया था। उस युद्ध में विजय और इजराइल की पराजय को यादगार बनाने के लिए बेरुत से कुछ दूर ऊंची पहाड़ी पर 'वार मेमोरियल' बनाया गया है जहां इजराइल के साथ युद्ध में हिजबुल्ला की जीत पर आधारित फिल्म दिखाई जाती है ।
लगातार युद्ध, हिंसक झड़पों के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका का सामना करते रहे लेबनान और खासतौर से बेरुत के नए सिरे से खड़ा होने की जिजीविषा अपने आप में एक उदाहरण है। बेरुत में मिश्रित जन जीवन और संस्कृति के दर्शन होते हैं। अपने थिएटर, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक, पब्लिशिंग और बैंकिंग गतिविधियों के साथ ही पब्स और नाइट क्लबों से सज्जित नाइट लाइफ के कारण भी बेरुत अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों का आकर्षण केंद्र बना हुआ है। यह भी एक वजह है कि न्यूयार्क टाइम्स ने 2009 में बेरुत को पर्यटकों का सबसे पसंदीदा शहर घोषित किया था।
लेबनान की राजधानी बेरुत को पश्चिम एशिया का पेरिस भी कहा जाता है। लेकिन छोटे-मोटे तमाम कामों के लिए यह शहर 'सूरी कामगारों' पर टिका है। सूरी यानी पड़ोसी देश सीरिया में गरीबी, बेरोजगारी और आतंकवाद से त्रस्त होकर यहां आने वाले लोग काम करते नजर आ जाएंगे। सबसे बुरी हालत तो यहां रहने वाले फिलीस्तीनी शरणार्थियों की है। उनकी बस्तियां अलग-अलग इलाकों में हैं। उन्हें किसी तरह के नागरिक अधिकार नहीं हैं।
28 मार्च, 2012 की सुबह नौ बजे हमारा जहाज बेरुत बंदरगाह पर पहुंच गया था। लेबनान के कुछ आप्रवासन अधिकारी जहाज के अंदर आए और हमसे वीसा फार्म भरवाकर हमारे पासपोर्ट लेकर चले गए। कई घंटे बीत जाने के बाद भी जब वीसा नहीं मिला तो चिंता सताने लगी। रात के 11 बजे तक कोई हलचल नहीं दिखी तो एक बार फिर हम लोगों ने आधी रात को जहाज के डेक पर आकर हल्ला-हंगामा और नारेबाजी शुरू की। थोड़ी देर में बंदरगाह के आप्रवासन अधिकारी अहमद आए। उनके साथ हमारी कुछ कहा-सुनी भी हुई। अहमद अगली सुबह नौ बजे तक कुछ होने की बात कह कर चले गए। दाल में कुछ काला भांप कर हम लोगों ने बेरुत स्थित भारतीय दूतावास से संपर्क किया।
इस बीच जहाज पर पहुंचे भारतीय दूतावास में वीसा काउंसिलर ए के शुक्ला ने बताया कि बेरुत के आप्रवासन अधिकारी तो हमें बैरंग दिल्ली डिपोर्ट करने की तैयारी में हैं। मतलब साफ था कि आपको बिना कोई कारण बताए वापस आपके मुल्क भेज दिया जाएगा और आपके पासपोर्ट पर लिख दिया जाएगा, 'डिपोर्टेड'। हमने जहाज में साथियों से विमर्श किया और शुक्ला जी की बातों का मर्म समझाया कि हमारे पासपोर्ट्स पर 'डिपोर्टेड' लिखकर हमें वापस हमारे देश भेज दिया जाएगा। उस पर डिपोर्टेशन का कारण भी नहीं लिखा होगा। हमने तय किया कि गांधी और लोहिया के दिए राजनीतिक अस्त्र 'सिविल नाफरमानी' का इस्तेमाल करते हुए इसकी शालीनता के साथ अवज्ञा करेंगे।
इस बीच शायद 'नई दिल्ली' का संदेश आ चुका था। और तकरीबन 40 घंटे बेवजह जहाज में ही बिताने के बाद हमें वीसा मिल गया। अगली सुबह बसों से हमारा कारवां 'ग्लोबल मार्च टू येरूशलम' का हिस्सा बनने के लिए रवाना हुआ। बेरुत से तकरीबन 60 किमी दूर अरनून गांव की पहाड़ी पर स्थित बेऊफोर्ट कैसल के पास हमें तारों की बाड़ दिखाई दी। किले के पास दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आए सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के द्वारा फिलीस्तीन की मुक्ति एवं येरूशलम पर तीनों धर्मों-मुस्लिम, ईसाई और यहूदियों के पवित्र धर्मस्थलों की सम्मानजनक स्थिति बहाली की मांग के साथ 'ग्लोबल मार्च टू येरूशलम' का एक और चरण पूरा हो गया। प्रदर्शन में स्थानीय फिलीस्तीनी शराणार्थी स्त्री-पुरुष भी बड़ी मात्रा में वहां आए थे।
हालांकि फिलीस्तीन मुक्ति के नाम पर जमा प्रदर्शनकारियों के आपसी मतभेद वहां भी खुलकर दिखे। यह भी एक कारण था कि वहां अपेक्षाकृत भीड़ नहीं जुटी। 'फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा', 'हमास', 'फतह' और 'हिजबुल्ला' के बीच कार्यक्रम के आयोजन का श्रेय लेने की होड़ हिंसक झड़प में बदलने से बाल-बाल बची। मंच पर एक तरह से हिजबुल्ला के लोगों का ही कब्जा हो गया था। लेकिन सबसे अधिक सम्मान तिरंगे के साथ महात्मा गांधी की तस्वीरों को सीने से लगाए भारतीय प्रतिनिधियों का था।