नफरत की दुकान वालों के शटर गिरे, क्या मोहब्बत की दुकान चल गई!

अब चुनाव सिर पर आ गए हंै तो दोनों पक्ष अपनी पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में हैं;

Update: 2024-03-04 05:49 GMT

- शकील अख्तर

अब चुनाव सिर पर आ गए हैं तो दोनों पक्ष अपनी पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में हैं। भाजपा की पहली लिस्ट जारी हो गई है। और उससे स्पष्ट हो गया है कि यह चुनाव पहले दो चुनावों की तरह हिन्दू-मुसलमान पर नहीं होने जा रहा है। क्योंकि अगर ऐसा होता तो भाजपा प्रज्ञा सिंह, बिधुड़ी के टिकट नहीं काटती। चुनाव किस मुद्दे पर होगा कहना मुश्किल है।

खाला का घर नाहीं! दोनों के लिए नहीं है। भाजपा या कांग्रेस या इसे इंडिया गठबंधन कह लो दोनों को यह चुनाव पूरी ताकत से लड़ना पड़ेगा। किसी के लिए भी जीत सहज सुलभ नहीं है।

भाजपा इसे समझ गई है। उसने उन लोगों के टिकट काट दिए जो सिर्फ नफरत की राजनीति पर जिंदा थे। अभी तक भाजपा उन से खुश थी। उनके खिलाफ कभी कोई एक्शन नहीं लिया। प्रधानमंत्री मोदी ने सिर्फ यह कहकर काम चला लिया कि वे प्रज्ञा सिंह को माफ नहीं कर पाएंगे। इस वाक्य में यह ध्वनि है कि करना तो चाहते हैं मगर कर नहीं पाएंगे। क्यों? इसका जवाब अभी मिल गया कि इतनी नफरत, झूठ, गंदगी फैलाकर प्रज्ञा सिंह ने उस समुदाय को ही नाराज कर दिया जिसकी प्रतिनिधि बनने का वे दावा करती थीं।

गांधी को गाली देकर वे समझती थीं कि अब जहाज में वे किसी से भी लड़ सकती हैं। मुसलमान के खिलाफ बोलकर वे समझती थीं कि अब क्षेत्र में किसी का भी काम करने की जरूरत नहीं। अब क्षेत्र में तो अधिकांश हिन्दू ही थे। काम उनका होना बंद हो गया था। मुसलमान से तो वे ऐसे ही मिलती नहीं थीं। तो उसके काम होने न होने का सवाल ही नहीं। हिन्दू जाते थे तो बेइज्जती उनकी होती थी।

तो भाजपा क्या यह समझ गई कि अब हिन्दू-मुसलमान का नशा उतार पर है? पूरी तरह नहीं। कुछ हद तक। उसकी समझ में यह आया है कि प्रज्ञा सिंह, रमेश बिधुड़ी. प्रवेश वर्मा, मीनाक्षी लेखी की तल्ख राजनीति हिन्दुओं को भी नाराज कर रही है। ये लोग यह समझने लगे थे कि केवल नफरती बातें करो और उसी को काम करना समझ लो। जितना ज्यादा यह गंदी जबान बोलते थे उतना ही समझते थे कि अब उन्हें काम करने की जरूरत नहीं है। और काम न करने से जैसा कि ऊपर भी लिखा परेशान तो पूरे क्षेत्र के निवासी होते थे जो ज्यादातर बहुसंख्यक ही हैं। साथ ही जब नेता की आदत अहंकार से बात करने की हो जाए तो सबसे ज्यादा अपमान तो आसपास वालों को अपने ही समुदाय वालों को भोगना पड़ता है।

धर्म को हथियार मानने वाले नेता केवल दूसरे समुदाय पर ही हमले नहीं करते। अपनी ताकत के अहंकार में वे अपने लोगों को भी नहीं बख्शते।
प्रधानमंत्री मोदी को इसलिए इन लोगों के टिकट काटना पड़े कि अब यह नुकसान करने लगे हैं। बिधुड़ी ने जो गाली-गलौज लोकसभा में की थी उससे तो विदेशों तक में मोदी को प्राब्लम हो गई थी। वह सीधे-सीधे मुसलमान के खिलाफ थी। लेकिन विदेश की फिलहाल छोड़िए देश में भी उनकी इस निचले स्तर की भाषा को बहुत बुरा, शर्मनाक माना गया। बहुसंख्यक समुदाय द्वारा ही।

इन लोगों के टिकट कटने से यह साफ हो गया है कि भाजपा यह समझ गई है कि हिन्दू -मुसलमान की उसकी राजनीति का सेचुरेशन पाइंट अब आ गया है। अब उसकी धर्म की राजनीति हिन्दूओं के भी खिलाफ जा रही है।

अभी दिल्ली से जिन पांच लोगों के टिकट कटे। उनमें एक डा. हर्षवर्धन को छोड़ दीजिए तो बाकी चारों अपने लोकसभा क्षेत्र में ऐसे अहंकारी सांसदों के रूप में जाने जाते थे जिनसे कोई मिलना बात करना पसंद नहीं करता था। दिल्ली में यह चुनाव आप और कांग्रेस मिलकर लड़ रही है। जो यह कहते थे कि इंडिया गठबंधन से क्या होगा वे देख लें कि उसी गठबंधन के डर से भाजपा ने दिल्ली के सात में से सिर्फ एक मनोज तिवारी का टिकट रिपीट किया है। और बाकी मनोज तिवारी पर चाहे जो आरोप हों वे बिधुड़ी, प्रवेश वर्मा, लेखी की तरह बदजुबान और अहंकारी नहीं हैं। और यह कोई कहने की बताने की बात नहीं है कि इन लोगों के अहंकार का सबसे बड़ा शिकार हिन्दू ही होते हैं। तो भाजपा ने यह समझ लिया कि अब ये लोग उपयोगी तो हैं ही नहीं बल्कि नुकसान करने वाले हो गए हैं।

यह दिल्ली है। यहां देश भर से आए लोग रहते हैं। आज माहौल इतना नफरत और विभाजन का हो गया है। मगर पहले तो यहां धर्म, जाति, क्षेत्र का कोई महत्व ही नहीं होता था। यहां से मलयाली सीके नायर जिन्हें दिल्ली का गांधी कहा जाता था दो बार 1952, 57 में चुनाव जीते। यहां सीएम स्टीफन यह भी मलयाली, सुचेता कृपलानी, सुभद्रा जोशी, अर्जुन सिंह, केसी पंत जैसे दिल्ली के बाहर के लोग चुनाव लड़े। वाजपेयी, आडवानी, राजेश खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा जैसे कई बड़े नाम तो हैं ही। यह तो बाद में हुआ कि यहां पंजाबी, वैश्य, पूर्वाचंल के नाम पर टिकट दिए जाने लगे। मगर पहले ऐसा नहीं होता था।

खैर अब चुनाव सिर पर आ गए हंै तो दोनों पक्ष अपनी पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में हैं। भाजपा की पहली लिस्ट जारी हो गई है। और उससे स्पष्ट हो गया है कि यह चुनाव पहले दो चुनावों की तरह हिन्दू-मुसलमान पर नहीं होने जा रहा है। क्योंकि अगर ऐसा होता तो भाजपा प्रज्ञा सिंह, बिधुड़ी के टिकट नहीं काटती।
चुनाव किस मुद्दे पर होगा कहना मुश्किल है। भाजपा के पास अगर यह मुद्दा नहीं रहेगा को कुछ नहीं है। चुनाव सीधा रोजी-रोटी के मुद्दे पर केन्द्रित हो जाएगा। और यह मुद्दा भाजपा से संभाले नहीं संभलेगा।

अब यह निर्भर कांग्रेस पर और इंडिया गठबंधन पर है कि वह कैसे जनता के वास्तविक मुद्दों को चुनाव के सवाल बनाए। जनता ने तो अपने स्तर पर सवाल उठाना शुरू कर दिए हैं। मगर इन्हें गति देना इंडिया गठबंधन का काम है।

यूपी में बेरोजगार युवाओं का आक्रोश फूट निकला। सरकार को पहले पुलिस भर्ती के और फिर आर ओ ( रिव्यू आफिसर) और डिप्टी आर ओ के एक्जाम कैंसिल करना पड़े। दोनों में पेपर लीक हो गए थे। यूपी बोर्ड की बारहवीं परीक्षा के गणित और बायलॉजी के पेपर लीक हो गए। केवल परीक्षा कैंसिल हो जाना स्टूडेंट की समस्या का हल नहीं है। उसने जो तैयारी की थी बेकार चली जाती है। दोबारा कब परीक्षा होगी कुछ पता नहीं। इस ऊहापोह में स्टूडेंट, युवाओं का बहुत नुकसान होता है।

युवाओं के आक्रोश की वजह से यह चुनाव भाजपा को बहुत भारी पड़ने वाला है। और लगातार दो चुनाव हार जाने वाले विपक्ष के लिए भी आसान नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी के पास साधन बहुत हैं। दूसरी तरफ विपक्ष साधनहीन तो है ही उस पर ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स, बैंकों में खाते सील करना। जैसा अभी कांग्रेस के खाते सील किए गए। और दूसरी तरफ भाजपा को इल्केट्रोरल बांड जिसे अभी सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है के द्वारा पैसे मिलने के अलावा कई कंपनियों में ईडी पहुंचाकर उनसे चंदा लिया जा रहा है। जैसा एक वेबसाइट के खुलासे के बाद कांग्रेस ने आरोप लगाया।

तो साधनों के मामले में तो भाजपा बहुत आगे हैं। मगर विरथ होने के बावजूद (विरथ रघुवीरा ) विपक्ष के पास इस बार दो बातें बहुत खास हैं।

एक उसकी एकता। जो आज पटना के गांधी मैदान में दिखी। लाखों की भीड़ एकजुट विपक्ष के समर्थन में ही आई थी। दूसरे हिन्दू- मुसलमान राजनीति के खत्म होने के संकेत। जो खुद भाजपा ने अपने ऐसे लोगों के टिकट काट कर दिए जिनकी सांप्रदायिक राजनीति अब उसके गले का ही फंदा बनने लगी थी।

इसलिए हमने शुरू में लिखा खाला का घर नाहीं। दोनों के लिए। सीस उतारे हाथि करि सो पैठे घर मांहि। सामान्य मतलब आसान नहीं है। पूरी जान लगानी होगी। देखते हैं कौन कितनी लगाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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