लोकसभा की विश्वनीयता का सवाल

राहुल की सदस्यता वापस बहाल करने का सवाल बहुत बड़ा है। लोकसभा को इसे कानूनी रूप से ही देखना चाहिए;

Update: 2023-08-07 02:14 GMT

- शकील अख्तर

राहुल की सदस्यता वापस बहाल करने का सवाल बहुत बड़ा है। लोकसभा को इसे कानूनी रूप से ही देखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकतम दो साल की सज़ा देने पर आश्चर्य जताया है। आज तक जब से आईपीसी बनी है। 163 साल में किसी को भी मानहानि के मामले में अधिकतम दो साल की सज़ा नहीं मिली है। यह कानून ब्रिटिश शासकों ने भारत में लागू किया था। खुद इनके यहां इसे खत्म कर दिया गया है।

सूरत से दिल्ली की दूरी 1200 किलोमीटर है। वहां की सीजेएम अदालत का फैसला 168 पेज का था और गुजराती में। मगर 24 घंटे में लोकसभा सचिवालय ने उसे मंगा लिया। अंग्रेजी में अनूदित करवा लिया और राहुल की सदस्यता खत्म कर दी।

मगर संसद से 2 किलोमीटर की दूरी से भी कम सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कब तक फैसला होगा यह किसी को नहीं पता। यहां तो आदेश भी अंग्रेजी में है और बहुत छोटा सा। मगर उस पर अमल बड़ा राजनीतिक फैसला लग रहा है। मोदी सरकार के पास बड़ा बहुमत है मगर सरकार जिस तरह घबराई हुई है कि अगर कहीं मंगलवार से शुरु होने वाली अविश्वास प्रस्ताव की चर्चा में राहुल बोल गए तो पता नहीं क्या हो जाएगा? सरकार तो नहीं जाएगी मगर सरकार की मुसीबतें जरूर शुरु हो सकती हैं।

राहुल अविश्वास प्रस्ताव पर बोल पाएंगे या नहीं यह तो कहना मुश्किल है। मगर राहुल ने अपने भाषण की तैयारी जरूर शुरू कर दी है। राहुल को अब अपने भाषण का असर मालूम पड़ गया है। लोकसभा में अडानी पर दिए उनके भाषण के बाद ही उनकी सदस्यता खत्म की गई थी। 23 मार्च को सूरत की अदालत ने फैसला सुनाया और 24 मार्च को राहुल की सदस्यता खत्म।

राहुल अब अपने भाषण की ताकत पहचान गए हैं। और भारत जोड़ो यात्रा, कर्नाटक की जीत एवं 26 विपक्षी दलों के गठबंधन इन्डिया के बनने के बाद उनकी धमक बहुत बढ़ गई है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का उनके पक्ष में फैसला सत्तापक्ष के खेमे में हड़कम्प मचा गया है। अब सबको डर है कि राहुल का भाषण कुछ भी कर सकता है। किसी का भी ग्राफ गिरा सकता है। अगर मंगलवार से पहले राहुल की सदस्यता बहाल कर दी जाती है, जो कि भी जाना चाहिए तो लोकसभा में उनका मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास पर भाषण सुनने लायक होगा। लोकसभा में एक विदेशी राजनयिक गैलरी भी होती है। ऐसे मौकों पर वह हाउसफुल हो जाती है। मणिपुर, जिस पर अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है अभी भी भारी हिंसा की चपेट में है। बमों से एक जातीय समूह दूसरे जातीय समूह पर हमले कर रहा है। सेना के अफसरों को महिलाएं पांव पकड़-पकड़कर रोक रही हैं कि हमें पुलिस के भरोसे छोड़कर मत जाओ। यह हमें मरवा देंगे। कई जगह जहां सेना लोगों को बचाने गई वहां पुलिस और वह आमने सामने आ गई। भारतीय सेना ने कश्मीर, पंजाब, असम और भी कई आतंकवाद से ग्रस्त इलाकों में काम किया है।

मगर इस तरह का गृह युद्ध कहीं नहीं देखा। पुलिस, प्रशासन और राज्य सरकार इकतरफा कार्रवाई कर रहे हैं। तीन महीने से ज्यादा समय हो गया। मारे गए लोगों का अंतिम संस्कार तक नहीं हो पाया। रोज लोग मर रहे हैं। विदेशी मीडिया डिटेल में रिपोर्टिंग कर रहा है।

अमेरिका ने हस्तक्षेप की बात की। यूरोपियन यूनियन ने प्रस्ताव पास किया। मगर प्रधानमंत्री मौन बने हैं। केवल संसद का मानसून सत्र शुरू होने पर जो पत्रकारों से औपचारिक बात करते हैं उसमें ही उन्होंने जरा सा मणिपुर का जिक्र किया और साथ में उसकी हिंसा कम बताने के लिए राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी साथ में जोड़ दिया।
मणिपुर पर उनका कोई और बयान अभी तक नहीं आया है। जबकि राहुल गांधी मणिपुर हो आए हैं। इसलिए अगर मणिपुर में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान राहुल लोकसभा में वापस आकर बैठे भी तो माहौल क्या होगा इसकी कल्पना की जा सकती है। और जब आ जाएंगे तो बोलेंगे जरूर। वह विस्फोटक होगा। गोदी मीडिया उसे दबा नहीं पाएगा। इसलिए राहुल की वापसी को रोकने की पूरी कोशिश हो रही है। लेकिन क्या यह संभव होगा देखना बहुत दिलचस्प रहेगा।

अभी राहुल से पहले एनसीपी के सांसद मोहम्मद फैजल की सदस्यता वापस देने में लोकसभा सचिवालय ने पौने दो महीने लगा दिए थे। लेकिन जब उनके वकील संयोग से वे राहुल के भी हैं,अभिषेक मनु सिंघवी अदालत के फैसले की अवमानना करने के आरोप के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो तत्काल आदेश निकालकर उनकी सदस्यता बहाल की गई।

सदस्यता के मामले में कानून एक है। मगर उसे अलग-अलग तरह से लागू करने में संसद अगर एक नियम से ही काम नहीं करता है तो मैसेज गलत जाता है। संसद सर्वोपरि है। कानून बनाती है। लेकिन अगर कानून को लागू करने में वही भेदभाव करे तो केवल देश में नहीं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी खराब मैसेज जाता है। उस हालत में तो और ज्यादा जब हम खुद को विश्वगुरु कहते हैं। विश्वगुरु ऐसा नहीं हो सकता जो भेदभाव करे।

गुजरात के भाजपा सांसद नारायण भाई काछड़िया को तीन साल की सज़ा हुई। हाईकोर्ट से भी सज़ा रद्द नहीं हुई। बाद में सुप्रीम कोर्ट से माफी मांगने और जिस दलित डाक्टर को ड्यूटी पर मारा था उसे पांच लाख रुपए हर्जाना देने के बाद ही राहत मिली। मगर इस बीच उनकी सदस्यता बनी रही। कांग्रेस लोकसभा अध्यक्ष से मिली। लिखित प्रतिवेदन दिया। मगर वे सदस्य बने रहे। यहां ध्यान देने की बात यह है कि उन्हें ड्यूटी पर एक दलित डाक्टर के काम में बाधा पहुंचाने और हमला करने के गंभीर मामले में सज़ा हुई थी। ऐसे ही एक अधिकारी के साथ मारपीट करने के आरोप में अभी एक और भाजपा सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामशंकर कठेरिया को आगरा की अदालत ने दो साल की सज़ा सुनाई है। देखना होगा कि उनकी सदस्यता कब रद्द होती है।

दरअसल यह बहुत बड़ा सवाल है। जो संसद कानून बनाती है सबके लिए समान। उसे ही जब लागू करने का मौका आता है तो वह कैसे उसे दो अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग तरीके से लागू कर सकती है? अगर खुद संसद ऐसा करेगी तो बाकी कानून लागू करने वाली एजेन्सियों के सामने क्या उदाहरण जाएगा?

इसलिए राहुल की सदस्यता वापस बहाल करने का सवाल बहुत बड़ा है। लोकसभा को इसे कानूनी रूप से ही देखना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकतम दो साल की सज़ा देने पर आश्चर्य जताया है। आज तक जब से आईपीसी बनी है। 163 साल में किसी को भी मानहानि के मामले में अधिकतम दो साल की सज़ा नहीं मिली है। यह कानून ब्रिटिश शासकों ने भारत में लागू किया था। खुद इनके यहां इसे खत्म कर दिया गया है और भी कई विकसित और विकासशील देशों में इसे समाप्त कर दिया गया है। मानहानि असंज्ञेय मामलों की श्रेणी में आता है। मतलब जो गंभीर प्रकृति के नहीं हैं। इनमें समझौता हो सकता है। यही राहुल की अपील सुनते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा।
लेकिन केवल उनकी सदस्यता रद्द करने के लिए दो साल की सज़ा सुनाई गई। यह भी आश्चर्यजनक है कि इसे गुजरात की एक अदालत ने सुनाया जबकि जिस भाषण के आधार पर सुनाया वह कर्नाटक में दिया गया था। और ऐसा ही एक बड़ा विरोधाभास यह है कि जिन-जिन मोदी का राहुल ने नाम लिया उनमें से कोई कोर्ट नहीं गया। बल्कि भाजपा का एक विधायक गया।

यह सब चीजें अभी कोर्ट के सामने हैं। इन पर कांग्रेस पूरी तरह स्पष्टता मांगेगी। मगर फिलहाल सवाल राहुल के संसद में वापस आने का है। लोअर कोर्ट के आदेश पर आप चौबीस घंटे में सदस्यता रद्द कर सकते हैं। तो देश की सबसे बड़ी अदालत के फैसले के बाद उसे लागू करने के लिए आपको कितना समय चाहिए?
यह राजनीति से लेकर, कानून की किताबों तक और दुनिया जो राहुल की सदस्यता के बारे में रोज अन्तरराष्ट्रीय अखबारों में पढ़ रही है वहां तक बड़ा सवाल है। हमारी लोकसभा की विश्वसनीयता का।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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