नेतृत्व की संवेदनाओं की मृत्यु के बाद ही होती है आम आदमी की मृत्यु
सरकार विभिन्न देशों में देखे गए इस वायरस के अनेक म्युटेंट्स के हमारे देश में प्रवेश तथा भारतीय शरीर पर उनके प्रभाव को लेकर गंभीर नहीं थी।;
सरकार इस दूसरी लहर का पूर्वानुमान लगाने में पूर्णत: असफल रही। सरकार विभिन्न देशों में देखे गए इस वायरस के अनेक म्युटेंट्स के हमारे देश में प्रवेश तथा भारतीय शरीर पर उनके प्रभाव को लेकर गंभीर नहीं थी। सरकार यह अनुमान लगाने में भी नाकाम रही कि कोविड-19 की दूसरी लहर बच्चों और युवाओं को भी प्रभावित कर सकती है। सरकार ने यह भुला दिया कि विश्व के अनेक देश पहली लहर से भी भयंकर दूसरी लहर का सामना कर चुके थे।
यह समय ऐसे दृश्यों का सृजन कर रहा है जिनके बारे में किसी को भी संशय हो सकता है कि यह एक ही देश और काल में रचे गए हैं। सम्पूर्ण देश में कोविड-19 की दूसरी लहर का निर्मम प्रसार इंसानी जिंदगियों को लील रहा है। सर्वत्र भय है, अफरातफरी है, अव्यवस्था है, जलती चिताएं हैं, अंतिम संस्कार के लिए अपने आत्मीय जनों की पार्थिव देह के साथ परिजनों की अंतहीन सी प्रतीक्षा है, रुदन और क्रंदन के स्वर हैं।
किंतु दृश्य और भी हैं। इस पूरे घटनाक्रम से व्यथित, चिंतित और आहत होकर इसे नियंत्रित करने का उत्तरदायित्व जिस नेता पर है वह विश्व कवि का बहुरूप धारण कर चुनावी सभाओं में व्यस्त है। वह विश्व कवि की वेशभूषा में बहुत सस्ते संवाद बोल रहा है। कभी-कभी वह हास्य पैदा करने की चेष्टा करता है और उसकी आज्ञापालक प्रजा पता नहीं श्रद्धा अथवा भय, किस भाव की प्रधानता के कारण ठहाके लगाने लगती है। यदि इस विसंगतिपूर्ण परिस्थिति का परिणाम स्वयं आपके अंत जैसा भयंकर न होता तो कदाचित आप भी एक वितृष्णापूर्ण मुस्कान अपने चेहरे पर ला सकते थे। उसके चुनावी वक्तव्य में इस वैश्विक महामारी के देश में हो रहे अंधाधुंध प्रसार का कोई जिक्र तक नहीं है। वह जानता है कि उसकी प्राथमिकता सत्ता है और वह इसे छिपाता नहीं है।
इस नेता का प्रभाव कुछ ऐसा है कि इसे आदर्श मानने वाले नेताओं की एक पूरी पीढ़ी सत्तापक्ष और विपक्ष में तैयार हो रही है। इन नेताओं की भी कुछ वैसी ही विशेषताएं हैं- ये आत्ममुग्ध हैं, बड़बोले हैं, असत्य भाषण में सिद्धहस्त हैं, (मिथ्या) प्रचार प्रिय हैं, आलोचना के प्रति असहिष्णु हैं, भाषा के संस्कार से इनका कोई लेना-देना नहीं हैं और इनका ईश्वर भी कुर्सी ही है।
कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी इस कठिन समय में असम और केरल जैसे राज्यों की चुनावी सभाओं में वैसे ही स्तरहीन चुनाव प्रचार में व्यस्त रहे हैं। इनके अपने राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है। किंतु शहरों के होर्डिंग और अखबार उन विज्ञापनों और प्रायोजित समाचारों से पटे हुए हैं जिनमें इन राज्यों को टेस्टिंग, ट्रेसिंग, आइसोलेशन और वैक्सीनेशन में शिखर पर बताया गया है। विचित्र दृश्यों की श्रृंखला का अंत होता नहीं दिखता। उत्तराखंड के कुंभ में हजारों लोगों की भीड़ एकत्रित है और वहां की सरकार इस आत्मघाती धार्मिक उन्माद को खुला संरक्षण एवं समर्थन दे रही है।
यदि हम किसी नाटक के दर्शक होते तो इन विराट दृश्य बंधों की विपरीतता हमें रोमांचित कर सकती थी किंतु दुर्भाग्य से यह दृश्य हमारे जीवन का हिस्सा हैं। क्या हमें भी उन टीवी चैनलों सा संवेदनहीन हो जाना चाहिए जो जलती चिताओं के दृश्य दिखाते-दिखाते अचानक रोमांच से चीख उठते हैं - प्रधानमंत्री की चुनावी सभा शुरू हो चुकी है, आइए सीधे बंगाल चलते हैं। क्या हमें उन नेताओं की तरह बन जाना चाहिए जो कोविड समीक्षा बैठक में 'दवाई भी और कड़ाई भी का संदेश देने के बाद सोशल डिस्टेंसिंग का मखौल बनाती विशाल रैलियों में बिना मास्क के अपने चेहरे की भाव-भंगिमाओं का प्रदर्शन करते न•ार आते हैं। सौभाग्य से हमारे अंदर भावनाओं को ऑन-ऑफ करने वाला यह घातक बटन नहीं है। जो विमर्श कोविड-19 से जुड़ी बुनियादी रणनीतियों पर केंद्रित होना चाहिए था वह राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के कारण बाधित हो रहा है।
सच्चाई तो यह है कि सरकार इस दूसरी लहर का पूर्वानुमान लगाने में पूर्णत: असफल रही। सरकार विभिन्न देशों में देखे गए इस वायरस के अनेक म्युटेंट्स के हमारे देश में प्रवेश तथा भारतीय शरीर पर उनके प्रभाव को लेकर गंभीर नहीं थी। सरकार यह अनुमान लगाने में भी नाकाम रही कि कोविड-19 की दूसरी लहर बच्चों और युवाओं को भी प्रभावित कर सकती है। सरकार ने यह भुला दिया कि विश्व के अनेक देश पहली लहर से भी भयंकर दूसरी लहर का सामना कर चुके थे, और तो और सरकार ने महामारियों के इतिहास को अनदेखा कर दिया जो यह बताता है कि हमें दूसरी और तीसरी लहर के लिए भी तैयार रहना चाहिए। प्रधानमंत्री जी ने पहली लहर के दौरान हमारे देश में संक्रमण एवं जनहानि कम होने की परिघटना के वैज्ञानिक कारणों के अन्वेषण के स्थान पर अपनी पीठ खुद थपथपानी प्रारंभ कर दी और इसी बहाने लाखों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी अविचारित लॉक डाउन को भी न्यायोचित ठहराने की कोशिश की। हमारी सरकार ने कोविड-19 की दूसरी लहर की आशंका को बहुत हल्के में लिया अन्यथा वह वैक्सीन मैत्री जैसी अति महत्वाकांक्षी पहल अपने देश के नागरिकों के जीवन की कीमत पर नहीं करती।
हमारे देश में कोवैक्सीन को तृतीय चरण के ट्रायल के डाटा आने के पहले ही जनता के लिए स्वीकृति दे दी गई थी। एस्ट्राजेनेका की कोरोना वैक्सीन से ब्लड क्लॉटिंग के खतरे की खबरों के बाद पहले यूरोपियन यूनियन के तीन सबसे बड़े देशों- जर्मनी, फ्रांस और इटली ने एस्ट्राजेनेका की कोविड वैक्सीन का रोलआउट रोक दिया। इसके बाद स्पेन, पुर्तगाल, लतविया, बुल्गारिया, नीदरलैंड्स, स्लोवेनिया, लग्जमबर्ग, नॉर्वे तथा आयरलैंड और इंडोनेशिया ने भी इसके टीकाकरण पर रोक लगा दी। इन देशों में टीकाकरण के बाद ब्लड क्लोटिंग के मामले नगण्य हैं किंतु बावजूद डब्लूएचओ के इस वैक्सीन को सुरक्षित बताने के इन्होंने अपने नागरिकों की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए इसके उपयोग पर रोक लगाई। हमारे देश में भी वैक्सीनेशन के बाद लोगों की मौतों के मामले सामने आए हैं। कई लोग वैक्सीन की दोनों खुराक लगने के बाद भी संक्रमित हुए हैं। सरकार का कहना है कि मौतों के लिए वैक्सीन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और वैक्सीन लगने के बाद कोविड संक्रमण होना अपवाद है, यदि संक्रमण हुआ भी है तो उसका प्रभाव प्राणघातक नहीं है। इस तरह के मामलों को उजागर करने वालों को वैक्सीन के बारे में भ्रम फैलाने का दोषी माना जा रहा है और उन पर कार्रवाई भी की जा रही है।
वैक्सीन का प्रभावी न होना अथवा कभी- कभी उसके घातक साइड इफेक्ट्स होना सरकार या वैज्ञानिकों की गलती नहीं है बल्कि एक वैज्ञानिक परिघटना है। कोविड-19 की भयानकता ने हमें बहुत कम समय में वैक्सीन तैयार करने को बाध्य किया है। यदि इन वैक्सीन्स में कोई कमी है तो इसे जल्दी से जल्दी दूर किया जाना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब हम वैक्सीन लगने के बाद हो रहे घातक सह प्रभावों और संक्रमण को एक वैज्ञानिक परिघटना की भांति लें और इनकी गहरी वैज्ञानिक पड़ताल कर अपनी रणनीति में सुधार करें।
अभी तक विश्व अधिकतम वैक्सीनेशन को ही इस महामारी के प्रसार को रोकने का कारगर जरिया मान रहा है। हमारे देश की रणनीति भी यही है। हमें चाहिए कि हम अपने स्वदेशी टीकों के उत्पादन में अन्य सभी सक्षम दवा निर्माता कंपनियों की हिस्सेदारी बढ़ा कर इनका उत्पादन बढ़ाएं। विदेशी वैक्सीन्स को केवल 100 भारतीय शरीरों पर एक सप्ताह के परीक्षण के बाद टीकाकरण कार्यक्रम में सम्मिलित करने के अपने खतरे हैं।
हमने 50000 मीट्रिक टन मेडिकल ऑक्सीजन के आयात के लिए टेंडर जारी करने का निर्णय लिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन बढ़ाने के बारे में सरकारी दावे कागजी थे। इससे यह भी ज्ञात होता है कि सरकार सेकंड वेव के बाद संभावित मेडिकल ऑक्सीजन डिमांड का अनुमान लगाने में नाकाम रही। बहुचर्चित और विवादित पीएम केअर फण्ड की स्थापना ही कोविड से मुकाबले के लिए सक्षम हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के नाम पर की गई थी। यदि इसका उपयोग पारदर्शी ढंग से सही इरादे के साथ किया गया होता तो शायद कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद हालात इतने भयानक नहीं होते।
कुछ गहन और गंभीर सवाल डब्लूएचओ तथा दुनिया के अग्रणी देशों द्वारा कोविड से मुकाबला करने हेतु अपनाई जा रही रणनीति को लेकर भी हैं। बेल्जियम के जाने माने वायरोलॉजिस्ट गुर्ट वांडन बुशा कोविड-19 से मुकाबले के लिए मॉस वैक्सीनेशन की रणनीति को एक भयंकर भूल बता चुके हैं। वे टीकाकरण विशेषज्ञ हैं तथा इबोला महामारी के समय में टीकाकरण कार्यक्रम का सफल नेतृत्व भी कर चुके हैं। गुर्ट वांडन बुशा के अनुसार मॉस वैक्सीनेशन कार्यक्रम वायरल इम्युनोस्केप की स्थिति ला सकता है। द लैंसेट में प्रकाशित कुछ शोध पत्रों के अनुसार कोविड-19 वायरस प्राथमिक रूप से एयर बोर्न है और हमें अपने सेफ्टी प्रोटोकॉल में व्यापक परिवर्तन करना होगा। यदि यह रिपोर्ट सही है तो अब तक संक्रमण से बचने के लिए अपनाई गई सावधानियों का स्वरूप एकदम बदल जाएगा। इस विषय पर भी चर्चा होनी चाहिए।
अतार्किक और भावना प्रधान विमर्श द्वारा अपनी लापरवाही और नाकामयाबी पर पर्दा डालने की सरकारी कोशिशें सरकार समर्थक मीडिया और सोशल मीडिया के सहयोग से भले ही कामयाब हो जाएं लेकिन इनका परिणाम आम आदमी के लिए विनाशक होगा।
राजू पांडेय