शानी का कथा : साहित्य आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक है
संदर्भ : 10 फरवरी, कथाकार गुलशेर ख़ां 'शानी' का स्मृति दिवस;
- ज़ाहिद ख़ान
बीसवीं सदी के छठे-सातवें दशक के प्रमुख कथाकार गुलशेर ख़ां को हिन्दी कथा साहित्य में सिफ़र् उनके उपनाम शानी के नाम से जाना-पहचाना जाता है। अपने बेश्तर लेखन में मध्यम, निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज का यथार्थपरक चित्रण करने वाले शानी पर ये इल्ज़ाम आम था कि उनका कथा संसार हिंदुस्तानी मुसलमानों की ज़िंदगी और उनके सुख-दु:ख तक ही सीमित है। और हां, शानी को भी इस बात का अच्छी तरह से एहसास था। अपने आत्मकथ्य में शानी इसके मुताल्लिक़ लिखते हैं, ''मैं बहुत गहरे में मुतमइन हूं कि ईमानदार सृजन के लिए एक लेखक को अपने कथानक अपने आस-पास से और ख़ुद अपने वर्ग से उठाना चाहिए।'' ज़ाहिर है कि शानी के कथा संसार में किरदारों की जो प्रमाणिकता हमें दिखाई देती है, वह उनके सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से ही है। शानी के कालजयी उपन्यास 'काला जल' की 'सल्लो आपा' हो या फिर 'जनाज़ा', 'युद्ध' कहानी का 'वसीम रिज़वी' ये किरदार पाठकों की याद में गर आज भी बसे हुए हैं, तो अपनी विश्वसनीयता की वजह से। शानी ने इन किरदारों को सिफ़र् गढ़ा नहीं है, बल्कि किरदारों में जो तपिश दिखाई देती है, वह उनके तजुर्बे से मुमकिन हुई है। 'काला जल' की 'सल्लो आपा' को तो कथाकार राजेन्द्र यादव ने हिंदी उपन्यासों के अविस्मरणीय चरित्रों में से एक माना है।
हिंदी में मुस्लिम बैकग्राउंड पर जो सर्वश्रेष्ठ कहानियां लिखी गई हैं, उनमें ज़्यादातर शानी की हैं। 'युद्ध', 'जनाज़ा', 'आईना', 'जली हुई रस्सी', 'नंगे', 'एक कमरे का घर', 'बीच के लोग', 'सीढ़ियां', 'चेहलुम', 'छल', 'रहमत के फ़रिश्ते आएंगे', 'शर्त का क्या हुआ', 'एक ठहरा हुआ दिन', 'एक काली लड़की', 'एक हमाम में सब नंगे' वग़ैरह कहानियों में शानी ने बंटवारे के बाद के भारतीय मुस्लिम समाज के दु:ख-तकलीफ़ों, डर, भीतरी अंतर्विरोधों, यंत्रणाओं और विसंगतियों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से दर्शाया है। शानी की कहानियों में प्रमाणिकता और पर्यवेक्षित जीवन की अक्कासी है। लिहाज़ा ये कहानियां हिंदी साहित्य में अलग ही मुक़ाम रखती हैं। उन्होंने वही लिखा,जो देखा और भोगा। पूरी साफ़—गोई, ईमानदारी और सच्चाई के साथ वह सब लिखा जो, अमूमन लोग कहना नहीं चाहते। भाषा इतनी सरल और सीधी कि लगता है, मानो लेखक ख़ुद पाठकों से सीधा रू-ब-रू हो। कोई भी विषय हो, वे उसमें गहराई तक जाते थे और इस तरह विश्लेषित करते थे, जैसे कोई मनोवैज्ञानिक मन की गुत्थियों को परत-दर-परत उघाड़ रहा हो।
16 मई, 1933 को बस्तर जैसे धुर आदिवासी अंचल के जगदलपुर में जन्मे शानी को बचपन से ही पढ़ने का बेहद शौक़ था। पाठ्यपुस्तकों की बजाय उनका मन साहित्य में ज़्यादा रमता था। किताबों का ही नशा था, कि वे अपने स्कूली दिनों में बिना किसी प्रेरणा और सहयोग के एक हस्तलिखित पत्रिका निकालने लगे थे। बहरहाल, बचपन का यह जुनून शानी की ज़िंदगी की किस्मत बन गया। शानी ने ख़ुद इस बारे में एक जगह लिखा है, ''जो व्यक्ति सांस्कृतिक, साहित्यिक या किसी प्रकार की कला संबधी परंपरा से शून्य बंजर सी धरती बस्तर में जन्मे, घोर असाहित्यिक घर और वातावरण में पले-बड़े, बाहर का माहौल जिसे एक अरसे तक न छू पाए, एक दिन वह देखे कि साहित्य उसकी नियति बन गया है।'' ज़िंदगी के जानिब शानी का नज़रिया किताबी नहीं बल्कि अनुभवसिद्ध था। यही वजह है कि वे 'युद्ध', 'जनाज़ा', 'बिरादरी', 'जगह दो रहमत के फ़रिश्ते आएंगे', 'हमाम में सब नंगे', 'जली हुई रस्सी' जैसी दिलो-दिमाग़ को झिंझोड़ देने वाली कहानियां और 'काला जल' जैसा कालजयी उपन्यास हिंदी साहित्य को दे सके।
शानी के कथा संसार में मुस्लिम समाज का प्रमाणिक चित्रण तो मिलता ही है, बल्कि हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर भी कई मर्मस्पर्शी कहानियां हैं, जो कि भुलाए नहीं भूलतीं। उनकी कहानी 'युद्ध' को तो हिंदी आलोचकों ने हिंदू-मुस्लिम संबंधों के सर्वाधिक प्रमाणित और मार्मिक साहित्यिक दस्तावेज़ों में से एक माना है। समाज में बढ़ता विभाजन हमेशा शानी की अहम चिंताओं में एक रहा। वे ख़ुद, अपनी ज़िंदगानी में भी इन सवालों से जूझे थे। लिहाज़ा उन्होंने कई कहानियों में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के नाज़ुक सवालों को बड़ी ईमानदारी और संजीदगी से उठाया है। कथानक और तटस्थ ट्रीटमेंट इन कहानियों को ख़ास बनाता है।
संस्मरण 'शाल वनों के द्वीप' शानी की बेमिसाल कृति है। हिंदी में यह अपने ढंग की बिल्कुल अल्हदा और अकेली रचना है। इस रचना को पढ़ने में उपन्यास और रिपोर्ताज दोनों का मज़ा आता है। किताब की प्रस्तावना में शानी इसे न तो यात्रा वर्णन मानते हैं और न ही उपन्यास। बल्कि बड़ी विनम्रता से वे इसे कथात्मक विवरण मानते हैं। समाज विज्ञान और नृतत्वशास्त्र से अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने जिस तरह मनुष्यता की पीड़ा और उल्लास का शानदार चित्रण किया है, वह पाठकों को चमत्कृत करता है। हिंदी साहित्य में आदिवासी जीवन को इतनी समग्रता से शायद ही किसी ने इस तरह देखा हो। 'शाल वनों का द्वीप' यदि शानी की बेमिसाल रचना बन पाई, तो इसकी वजह भी है। शानी ने अमेरिकन नृतत्वशास्त्री एडवर्ड जे के साथ एक साल से ज़्यादा अरसा अबुझमाड़ के बीहड़ जंगलों में आदिवासियों के बीच बिताया और आदिवासियों की ज़िंदगी को क़रीब से देखा। जिसका नतीजा, 'शाल वनों का द्वीप' है।
शानी ने कुल मिलाकर चार उपन्यास लिखे 'काला जल', 'नदी और सीपियॉं', 'सॉंप और सीढ़ी' और 'एक लड़की की डायरी'। इनमें 'काला जल' उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। यह उपन्यास भारतीय मुस्लिम समाज का महा—आख्यान है। जिसमें आज़ादी से ठीक पहले और बंटवारे के बाद के निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज के सुख-दु:ख, वेदना, परेशानियां और उनके असीम संघर्ष दिखाई देते हैं।
हिंदी साहित्य में भारतीय मुस्लिम समाज और संस्कृति को बेहतर समझने के लिए जिन तीन उपन्यासों का ज़िक्र अक्सर किया जाता है, 'काला जल' उनमें से एक है। इस उपन्यास को पाठकों और आलोचकों ने एक सुर में सराहा। शानी के जिगरी दोस्त आलोचक धनंजय वर्मा ने 'काला जल' का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, ''काला जल, हिंदी कथा परम्परा की व्यापक सामाजिक जागरूकता और यथार्थवादी चेतना की अगली और नई कड़ी के रूप में उल्लेखनीय है। वह अतीत-वर्तमान-भविष्य संबंधों का एक महा—नाटक है। जिसका रंगमंच है-एक मध्यवर्गीय भारतीय मुस्लिम परिवार। एक विशाल फ़लक पर यह सामाजिक यथार्थ का गहरी सूझ-बूझ और पारदर्शी अनुभूति के साथ मार्मिक अंकन है। पूरा उपन्यास आधुनिक भारतीय जीवन के विविध स्तरीय संघर्षों का चित्र है, जो अपनी घनीभूत और केन्द्रीय संवेदना में भारतीय जनता के आर्थिक और भौतिक संघर्ष का दस्तावेज़ है, जिसका कथा सूत्र समाज की तीन-तीन पीढ़ियों का दर्द समेटे है।''
यह बात सच है कि 'काला जल', भारतीय मुस्लिम समाज का आईना है, जिसमें हम उस समाज का अक्स देख सकते हैं। लेकिन इस उपन्यास में महज़ मुस्लिम विमर्श ही नहीं है, स्त्री विमर्श भी है। 'काला जल' में महिलाओं के जीवन और अस्मिता से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं, जिन्हें शानी ने प्रमुखता से उठाया है। भारतीय समाज में महिलाओं के साथ जो ग़ैर-बराबरी का माहौल है।
लैंगिक असमानता, अत्याचार, उत्पीड़न और उनके शोषण के कई कि़स्से 'काला जल' में महिला किरदारों के ज़रिए आये हैं। 'काला जल' की व्यापक अपील और लोकप्रियता के चलते ही इस पर बाद में टेलीविजन धारावाहिक बना, जो उपन्यास की तरह ही काफ़ी मक़बूल हुआ। इस उपन्यास का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और रूसी भाषा में भी अनुवाद हुआ।