भाजपा के बंगाल प्रवेश में ध्रुवीकरण एक प्रमुख कारक
पश्चिम बंगाल आगामी लोकसभा चुनाव के साथ आजादी के बाद से अपने राजनीतिक इतिहास में एक नया अध्याय लिखने की दहलीज पर खड़ा हो सकता है;
कोलकाता। पश्चिम बंगाल आगामी लोकसभा चुनाव के साथ आजादी के बाद से अपने राजनीतिक इतिहास में एक नया अध्याय लिखने की दहलीज पर खड़ा हो सकता है। लोकसभा चुनाव विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के बीच नए ध्रुवीकरण को उभार सकता है और वाम मोर्चा व कांग्रेस को हाशिए पर धकेल सकता है।
कांग्रेस और वाम मोर्चे के बीच सीटों के बंटवारे की बातचीत समाप्त होने के बाद, जिस ध्रुवीकरण के बारे में विश्लेषक स्पष्ट शब्दों में बात कर रहे हैं, वह भले ही सुनने में सही न लगता हो, लेकिन यह राज्य के इतिहास में चल रही एक प्रक्रिया के पूरा होने जैसा है।
बंटवारे के बाद पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल में बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी पहुंचे और 1971 में बांग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इनकी संख्या में और इजाफा हुआ। बंगाल हमेशा से हिंदू दक्षिणपंथी ताकतों के लिए अपना प्रभाव फैलाने हेतु एक फलदायी राज्य रहा है।
लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और बाद में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे के उभरकर सामने आने से शरणार्थियों को अपने पक्ष में करने का मौका हिंदुत्व ताकतें नहीं उठा पाईं।
वाम मोर्चा के 34 साल के शासनकाल के दौरान हालात समान ही रहे, लेकिन तृणमूल कांग्रेस के 2011 में सत्ता में आने के बाद इसमें थोड़ा बदलाव आया।
ममता बनर्जी सरकार के इमामों और मुअज्जिनों को मासिक भत्ता देने के फैसले ने सरकार के 'चयनात्मक परोपकार' के खिलाफ हिंदू मध्यम वर्ग के बीच गहरी नाराजगी और समाज में दरार पैदा कर दी।
वहीं से आरएसएस और संघ परिवार के अन्य संगठनों ने कदम रखा और पूर्वी राज्य में अपनी जड़ें बढ़ानी शुरू की।
आरएसएस ने 2015 में यहां मीडिया के समक्ष खुलासा किया कि बीते तीन वर्षों में पश्चिम बंगाल में उसकी शाखाओं की संख्या दोगुनी हो गई। पिछले साल संघ ने कहा था कि बंगाल में उसके सदस्यों की संख्या देश में कुछ राज्यों की तुलना में ज्यादा है।
बनर्जी सरकार द्वारा मुस्लिमों के धार्मिक अवसर मुहर्रम के दिन दुर्गा पूजा विसर्जन पर रोक लगाने के फैसले पर भाजपा और संघ ने सरकार के 'पूजा विरोधी रुख' के खिलाफ कड़ा रोष जताया था। बंगाल सरकार ने इस फैसले को भाजपा और संघ द्वारा शांति भंग किए जाने के डर से एहतियाती उपाय करार दिया था।
इसके तुरंत बाद शहर और जिलों में भव्य राम नवमी की रैलियां निकाली गई थीं, जिसमें से कई रैलियों में त्रिशूल, तलवार और भालों का इस्तेमाल किया गया था। इसके बाद हनुमान जयंती पर भी रैलियों का आयोजन किया गया था।
धार्मिक अवसरों पर इस तरह की रैलियां अब तक बंगाल में बहुत लोकप्रिय नहीं थीं, जिन्होंने राज्य में धार्मिक ध्रुवीकरण की चिंगारी को और हवा दे दी, जिसके कारण राज्य के आसनसोल, खड़गपुर, बशीरहाट और धूलागढ़ जैसे स्थानों पर सांप्रदायिक गड़बड़ी की सिलसिलेवार घटनाएं देखी गईं।
भाजपा ने वाम मोर्च के साथ लोगों की गहरी असहमति को भुनाने का काम शुरू कर दिया।
वहीं दूसरी ओर भाजपा के बढ़ते कदम बनर्जी को रास आने लगे, क्योंकि भगवा दल ने वाम मोर्चे और कांग्रेस के वोटबैंक में सेंधमारी शुरू कर दी थी और तृणमूल समर्थित गुंडों द्वारा कथित रूप से हिंसा से सुरक्षा चाहने वाले उनके नेताओं और समर्थकों को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया। इससे विपक्षी वोट विभाजित हो गए।
हालांकि, 2016 विधानसभा चुनाव के दौरान वामपंथी और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के भाजपा की ओर झुकाव पर अस्थायी रोक लगी, जब वाम मोर्चा व कांग्रेस ने गठजोड़ कर लिया था।
लेकिन जैसे-जैसे महागठबंधन आकार लेने लगा भाजपा का राज्य में कद बढ़ता गया और तब से वह विधानसभा, संसदीय उपचुनाव और पिछले साल हुए पंचायत चुनावों में लगातार तृणमूल कांग्रेस की मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर सामने आई है।
42 सीटों के साथ बंगाल का उत्तर प्रदेश (80) और महाराष्ट्र (48) के बाद लोकसभा में तीसरा सबसे बड़ा हिस्सा है।